Friday, October 16, 2020


आततायी सत्ता के प्रतिरोध का एक शक्तिशाली क़दम यह है कि सत्ताधारियों द्वारा अपने हित में क़ानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए और अपने वर्गहितों की हिफाज़त के लिए, जो क़ानून बनाये गये हैं उनकी अवमानना करने के लिए जनता संकल्पबद्ध हो जाये । आम लोगों के क़ानूनी विभ्रमों के इन्द्रजाल को छिन्न-भिन्न कर देना ज़रूरी होता है। 

यह बताना ज़रूरी होता है कि न्यायतंत्र सत्ता तंत्र का ही एक अंग होता है । वह न्याय का  काम वहीं तक करता है जहाँतक पूँजीवादी ढाँचे को कोई नुक्सान नहीं पहुँचता । पूँजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा के दूरगामी हित के लिए कभी-कभी वह किसी व्यक्ति पूँजीपति की भी लगाम कसता है । उसकी पूरी कोशिश होती है कि पूँजीवादी जनवाद का असली वर्ग चरित्र दृष्टि-ओझल रहे । 

पर व्यवस्था का संकट बढ़ने पर सरकार और विधायिका के बाद न्यायतंत्र की भी कलई उतरने लगती है । क्रान्तिकारी शक्तियों का काम है कि वे इस प्रक्रिया को ऐसे समय में ज़्यादा से ज़्यादा तेज़ कर दें । दुनिया की सभी क्रान्तियाँ क़ानूनी चौहद्दियों में क़ैद रहकर नहीं बल्कि उनका अतिक्रमण करके हुई हैं । 

एक व्यापक जन सत्याग्रह और नागरिक अवज्ञा आन्दोलन ऐसा हथियार है जो हथियारों के जखीरे पर बैठे सत्ताधारियों को भी बेबस और भयाक्रांत कर देता है । और जब अंतिम विकल्प के तौर पर वे शस्त्रबल से जागृत जनबल को दबाना चाहते हैं तो जनज्वार और बेकाबू हो जाता है । भय और बदहवासी के इस दौर में शासक वर्गों के आपसी अन्तरविरोध तीखे हो जाते हैं, निरुत्साहित सैन्यबल बिखरने लगता है और जनता बल-प्रयोग का जवाब बल-प्रयोग से देती है । 

तब लुटेरों की मदद करने दुनिया के तमाम बड़े लुटेरे आते हैं पर जिन क्रान्तियों का जनाधार व्यापक और गहरा होता है, सुदीर्घ रचनात्मक कार्यों से जिनकी जड़ें जनता में मजबूती से धँसी होती हैं और जिनका नेतृत्व विचारधारात्मक रूप से समझदार और दृढ़ होता है, उनका दुनिया भर की प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ मिलकर भी बाल बाँका नहीं कर पातीं । इतिहास की तो अबतक की यही शिक्षा है । अब यह हमपर है कि हम इससे क्या सीखते हैं ।

(16 Oct 2020)

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