कुछ साथी एक बड़ी सामान्य-सी बात नहीं समझ पाते हैं। वह बात यह है कि जब क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पूंजीवादी समाज के भीतर किसी कानूनी हक़ की मांग करते हैं, तो हर मामले में उसके पीछे कोई ऐसी ग़लतफ़हमी नहीं होती है कि यह अधिकार पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत मिल ही जाएगा, या पूंजीवादी व्यवस्था यह अधिकार दे सकती है। मिसाल के तौर पर, अगर क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट रोज़गार के अधिकार को कानूनी तौर पर मान्यता देने और इसे मूलभूत अधिकार बनाने का संघर्ष लड़ते हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं होता है कि वे यह मुग़ालता पाले बैठे हैं कि पूंजीवाद सभी को रोज़गार दे देगा। ऐसे साथी ऐसे आंकड़ों को लेकर बैठ जाते हैं कि फलां-फलां देश में तो रोज़गार के हक़ को कानूनी अधिकार के तौर पर मान्यता प्राप्त है, मगर फिर भी वहां इतनी अधिक बेरोज़गारी है। वे एक बहुत सामान्य-सी बात समझने में चूक जाते हैं। कुछ अधिकारों को कानूनी रूप में मान्यता देने के लिए पूंजीपति वर्ग को मजबूर ठीक इसीलिए किया जाता है क्योंकि हम जानते हैं कि पूंजीवाद वह हक़ दे ही नहीं सकता है। यह पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी व्यवस्था को असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुंचाने की बहुत-सी सम्भावनाएं खोलता है। विशेष तौर पर काम के हक़ को मार्क्स ने सर्वहारा वर्ग द्वारा पूंजीपति वर्ग के सम्मुख रखी जाने वाली एक राजनीतिक मांग के रूप में इसीलिए मान्यता दी थी। इसी के बारे में एंगेल्स 'फ्रांस में वर्ग संघर्ष, 1848-50' की 1895 में लिखी गई भूमिका में कहते हैं:
"What gives our work quite special significance is the fact that it was the first to express the formula in which, by common agreement, the workers' parties of all countries in the world briefly summarise their demand for economic transformation: the appropriation of the means of production by society. In the second chapter, in connection with the 'right to work', which is decribed as 'the first clumsy formula wherein the revolutionary demands of the proletariat are summarised', it is said: "but behind the right to work stands the power over capital; behind the power over capital, the appropriation of the means of production, their subjection to the associated working class and, therefore, the abolition of wage labour, of capital and of their mutual relations."
मार्क्स ने जो खुद लिखा है वह यह है:
"The right to work is, in the bourgeois sense, an abusrdity, a miserable pious wish. BUT BEHIND THE RIGHT TO WORK STANDS THE POWER OVER CAPITAL; BEHIND THE POWER OVER CAPITAL, THE APPROPRIATION OF THE MEANS OF PRODUCTION, THEIR SUBJECTION TO THE ASSOCIATED WORKING CLASS, AND THEREFORE THE ABOLITION OF WAGE-LABOUR, OF CAPITAL AND, OF THEIR MUTUAL RELATIONS. BEHIND THE "THE RIGHT TO WORK" STOOD THE JUNE INSURRECTION. THE CONSTITUENT ASSEMBLY WHICH IN FACT PUT THE REVOLUTIONARY PROLETARIAT, HORS LA LOI, OUTSIDE THE LAW, HAD ON PRINCIPLE TO THROW THE PROLETARIAT'S FORMULA OUT OF CONSTITUTION, THE LAW OF LAWS; HAD TO PRONOUNCE ITS ANATHEMA UPON THE "RIGHT TO WORK".
मार्क्स यहां ठीक इस मांग के क्रान्तिकारी राजनीतिक चरित्र को इंगित कर रहे हैं। यहां वह ठीक यही बता रहे हैं कि सर्वहारा वर्ग को यह मांग ठीक इसीलिए उठानी चाहिए कि यह पूंजीवादी व्यवस्था और उत्पादन सम्बन्धों का अतिक्रमण करती है। हर राजनीतिक मांग को उठाने का मूल तर्क यह होता ही नहीं है कि उन मांगों का पूर्ण होना पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर सम्भव है या नहीं। ऐसा सोचना यह न समझना है कि जनता कोई सजातीय या एकाश्मी निकाय नहीं है। राजनीतिक चेतना के आधार पर इसके कुछ उन्नत हिस्से होते हैं, कुछ मध्यवर्ती और कुछ पिछड़े हिस्से। मध्यवर्ती हिस्से व पिछड़े हिस्से महज़ क्रान्तिकारी प्रचार को सुनकर पूंजीवादी व्यवस्था की असलियत और समाजवाद की ज़रूरत को नहीं समझ जाते हैं। वे अपने जनसंघर्षों के आधार पर पूंजीवादी व्यवस्था के सीमान्तों से परिचित होते हैं और समाजवाद की ज़रूरत को समझते हैं।
ये क्रान्तिकारी जनसंघर्ष किन प्रश्नों पर होंगे? जाहिरा तौर पर, आम मेहनतकश जनता की रोज़मर्रा की ज़रूरतों और मांगों के आधार पर। वे क्या हैं? वे रोज़गार गारण्टी है, सबको समान एवं निशुल्क शिक्षा है, सबको सार्वजनिक समान व निशुल्क चिकित्सा व्यवस्था है, सभी के लिए आवास की सुविधा है, इत्यादि।
हम जानते हैं कि पूंजीवाद सभी को समान और निशुल्क शिक्षा, सभी को आवास और सभी को समान एवं निशुल्क सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था नहीं देगा। आज के दौर में तो पूंजीवाद मज़दूरों को सही मायने में आठ घण्टे के कार्यदिवस का हक़ भी नहीं दे सकता। यही तो वजह है कि दुनिया भर में तमाम सरकारें आठ घण्टे के कार्यदिवस के कानून को भी खत्म करने का प्रयास कर रही हैं। इसकी वजह यह है कि ऐसा कानून पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी व्यवस्था की असलियत को जनता के सामने उजागर करने का एक मौका देता है और उनकी आंखों में चुभता रहता है। दूसरे शब्दों में, पूंजीवाद न तो सभी को रोज़गार का हक़ दे सकता है, न आवास का हक़ दे सकता है, न सभी गुणवत्ता वाली चिकिसा का हक़ दे सकता है। तो क्या हम इनकी मांग नहीं करें? तब तो सीधे समाजवादी क्रान्ति ही मांगनी पड़ जाएगी! यदि हम इन मांगों को उठाते हैं, तो जाहिरा तौर पर हम व्यवस्था से इसकी कानूनी गारण्टी की मांग करेंगे। यदि नहीं करते, तो हम इन मांगों को किसी अर्थपूर्ण रूप में सूत्रबद्ध ही नहीं कर पाएंगे। और यह जानते हुए भी कि पूंजीवादी व्यवस्था औपचारिक तौर पर काम के हक़, समान एवं निशुल्क शिक्षा के हक़ आदि के कानून बन जाने पर भी पूंजीवादी व्यवस्था उसे लागू नहीं करेगी या ढंग से लागू नहीं करेगी, हम कानून की मांग करेंगे क्योंकि वह हमें व्यवस्था को अनावृत्त करने और इसके सीमान्तों को उजागर करने का बेहतर मौका देगा। इन कानूनों को बनवाने और लागू करवाने की लड़ाई लड़ते हुए भी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट जनता में पूंजीवादी व्यवस्था की सच्चाई को उजागर करता रहता है। लेकिन इस प्रचार के आधार पर समाजवादी व्यवस्था की आवश्यकता को और पूंजीवादी व्यवस्था की सच्चाई को आम तौर पर केवल उन्नत तत्व ही समझते और स्वीकारते हैं और पिछड़े व मध्यवर्ती हिस्से एक लम्बी प्रक्रिया में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष और क्रान्तिकारी प्रचार के दौरान ही समझते हैं। यदि कोई इन कानूनों को बनवाने को ही संघर्ष का लक्ष्य मानता है तो वह सुधारवादी है और व्यवस्था के प्रति जनता में विभ्रमों को पैदा करने का काम करेगा, और यदि कोई इन मांगों के इर्द-गिर्द जनता को संगठित करने को ही सुधारवाद और केवल पूंजीवादी व्यवस्था की सच्चाई के प्रचार को वांछनीय मानते हैं तो वे प्रचारवादी हिरावलपंथी हैं। यह क्रान्तिकारी जनसंघर्षों का एक बुनियादी उसूल है जिसे समझे बिना न तो दूरगामी को तात्कालिक से जोड़ा जा सकता है, न विशिष्ट को सामान्य से और इसे न समझने वाले साथी या तो हिरावलपंथ के गड्ढे में जाते हैं या फिर अर्थवाद-सुधारवाद की खाई में।
-- Abhinav Sinha
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