Saturday, August 08, 2020

बाबा और फ़क़ीर

 

एक व्यंग्यात्मक लघुकथा

-- वोल्तेयर

(यह कहानी फ्रांसीसी प्रबोधन काल के महान दार्शनिक वोल्तेयर ने 1750 में लिखी थी ! यह समय था जब पुर्तगाली, अंग्रेज़, डच और फ्रांसीसी कम्पनियाँ भारत पर अपने उपनिवेशवादी प्रभुत्व के लिए संघर्ष कर रही थीं ! उससमय पूरे यूरोप में भारत के साधुओं, तांत्रिकों, अवधूतों, कापालिकों, योगियों, संपेरों आदि के बारे में, योग-ध्यान और अघोरी क्रियाओं, योनि और लिंग की पूजा, श्मशान-साधना आदि के बारे में रहस्य-रोमांच भरी कहानियाँ खूब चलन में थीं I वोल्तेयर, दिदेरो, रूसो, मौन्तेस्क्यू आदि प्रबोधनकालीन दार्शनिक इस चलन के ख़िलाफ़ थे, क्योंकि वे वैज्ञानिक टेम्पर, तर्कणा और जीवन के प्रति भौतिकवादी नज़रिए के पक्षधर थे I इसीलिए, जब फ्रांसीसी कुलीनों और बौद्धिकों के बीच भारत के साधुओं-तांत्रिकों-कापालिकों-अघोरियों आदि-आदि की कहानियों के ज़रिये भाववादी-रहस्यवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया जा रहा था तो प्रबोधनकालीन दार्शनिकों ने इसके ख़िलाफ़ मोर्चा लिया ! वोल्तेयर की यह व्यंग्यात्मक लघुकथा उसी उपक्रम के एक अंग के रूप में देखी जानी चाहिए I)


*

मैं गंगा के किनारे बनारस शहर में था जो ब्राह्मणों की पुरातन भूमि थी I मैंने जमकर अध्ययन किया I मैं हिन्दी अच्छीतरह से समझने लगा था I मैंने ढेर सारी बातें सुनीं और हर चीज़ दर्ज़ कर ली I मैं अपने दोस्त ओम के साथ रुका हुआ था I वह एक ब्राह्मण था, और जितने लोगों को मैं अबतक जानता था, उनमें सबसे अधिक योग्य था I


एक दिन हम एक साथ एक मंदिर में गए I वहाँ हमने कई सिद्ध संतों को देखा I जैसा कि सर्वविदित है, उन्होंने संस्कृत नामक भाषा का अध्ययन कर रखा था जिसमें एक पवित्र पुस्तक लिखी गयी थी जिसे वे वेद कहते थे I


मैं एक सिद्ध पुरुष के सामने से गुज़रा जो उसी पवित्र पुस्तक का अध्ययन कर रहा था I


वह चीखा,”ओ नीच अधम नास्तिक ! तुम्हारे कारण मैं उन स्वरों की संख्या भूल गया जो मैं गिन रहा था I तुम्हारे कारण अब मरने के बाद मेरी आत्मा एक खरगोश के शरीर में जायेगी जबकि मुझे पूरी आशा थी कि यह एक तोते के शरीर में जायेगी I”


उसे शांत करने के लिए मैंने उसे एक रुपया दिया I


वहाँ से कुछ ही कदम आगे बढ़ते दुर्भाग्यवश मुझे छींक आ गयी जिससे एक योगी जाग गया जो समाधि की अवस्था में था I


“मैं कहाँ हूँ,” वह चीखा,”कैसी विपदा है ! मैं अपनी नाक की नोक नहीं देख पा रहा हूँ ! दिव्य ज्योति विलुप्त हो गयी है !”


“अगर मेरे कारण ऐसा हुआ है कि आप अपनी नाक की नोक नहीं देख पा रहे हैं तो इस नुकसान की भरपाई के लिए यह लीजिये एक रुपया ! अब आप अपनी दिव्य ज्योति के पास वापस चले जाइए,” मैंने योगी महाराज से कहा I


मेरा मित्र ओम फिर मुझे सबसे प्रसिद्ध सिद्ध पुरुष की गुफा में ले गया जिसे लोग बाबा कहते थे I वह बन्दर की तरह अलफ़ नंगा था और उसके गले के इर्द-गिर्द एक ज़ंजीर लिपटी हुई थी जिसका वज़न कम से कम साठ पौण्ड था I वह एक कुर्सी पर बैठा हुआ था जो कीलों से भरी हुई थी और कीलें उसके चूतड़ों में धँसी हुई थीं ! बहुत सारी स्त्रियाँ आकर उससे परामर्श ले रही थीं I उसकी बात हर परिवार के लिए भविष्यवाणी थी और उसका सम्मान बहुत अधिक था I


ओम की उससे बहुत लम्बी बातचीत हुई I


ओम ने पूछा,” स्वामीजी, क्या आपको विश्वास है कि सात जीवनों और आत्मा के सात कायान्तरणों के बाद मैं ब्रह्मलोक निवास का अधिकारी हो जाऊँगा?”


“यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम कैसा जीवन बिताते हो !”-- बाबा ने कहा I


“मैं एक अच्छा नागरिक, एक अच्छा पति, एक अच्छा पिता और एक अच्छा मित्र होने के लिए सतत प्रयास करता हूँ I मैं गरीबों को रुपये-पैसे से मदद करता हूँ और पड़ोसियों के साथ शान्ति-सौहार्द्र बनाए रखता हूँ I”-- ओम ने कहा !


बाबा ने पूछा,”क्या तुम कभी-कभी अपने चूतड़ों में कीलें धँसाते हो ?”


“नहीं स्वामीजी, कभी नहीं,” ओम ने उत्तर दिया I


“मुझे खेद है ! तब तुम कभी भी ब्रह्मलोक तक नहीं पहुँच सकते !” -- बाबा ने कहा !

No comments:

Post a Comment