Monday, July 13, 2020

 

ये जो भारत का खाया-पीया-अघाया मध्यवर्गीय बौद्धिक समाज है, यह परले दर्जे का पाखंडी, गिरगिटों से भी भयंकर रंगबदलू, गीदड़ों से भी अधिक कायर, हरामखोर, बिल्ली सरीखा चतुर-चौकन्ना,भेड़िये जैसा मक्कार, सत्ता-प्रतिष्ठानों का टुकड़खोर, , केंचुए जैसा लिजलिजा-गिजगिजा, जोंक जैसा परजीवी, सूअरों जैसा गूखोर और विलासी, भेड़ों जैसा लकीर का फ़कीर, महाजनों के दरवाज़े का कुत्ता, भयंकर हृदयहीन, स्वार्थी, हरामी, आत्मग्रस्त और समझौतापरस्त है I


जनवादी मूल्यों के लिए यह सड़क पर उतरकर लड़ने की क़ूव्वत ही नहीं रखता और कुछ मिनमिन-भुनभुन तथा मोमबत्ती-अगरबत्ती जुलूस का अनुष्ठान भी तभी तक करता है, जबतक डंडे खाने और जेल जाने का या मार दिए जाने का खतरा नहीं होता I इसकी आत्मा के तलघरों में सपनों की लाशें सड़ती रहती हैं, इसके दीवानखानों के शोकेसों में आदर्शों के कंकाल सजे होते हैं ! इसके शयन-कक्षों की बड़ी-बड़ी आलमारियों में अलग-अलग मौक़ों पर पहने जाने वाले मुखौटे और लबादे ठसाठस भरे होते हैं ! यह नवयुग का ब्रह्मराक्षस है जो सूनी हवेली और सूखी-अंधी बावड़ी से बाहर निकलकर इंसानी बस्तियों में रहने लगा है और नए-नए संभावना-संपन्न युवाओं को पकड़कर तांत्रिक विधियों से अपने जैसा ही ब्रह्मराक्षस बनाने के उद्यम में अहर्निश लगा रहता है I


इनके बीच जो थोड़े से बहादुर, सिद्धान्तनिष्ठ, समाज-संपृक्त, जन-प्रतिबद्ध, जेनुइन बौद्धिक हैं, हम उनका अत्यधिक सम्मान करते हैं और उन्हें दिल से सलाम करते हैं ! पर ऐसे लोगों को भी तमाम रंग-बिरंगे चोचल ढेलोक्रैट्स और लिबडल सयानों के बारे में विभ्रमों से मुक्त होना पडेगा ! आप इनके साथ क्या संघर्ष का कोई मोर्चा बनायेंगे जो संघर्ष के कठिन मौक़ों पर टट्टी करने चले जायेंगे ! जो सच्चे अर्थों में 'जनता के आदमी' हैं, उन्हें मेहनतक़शों के बीच ही अपनी जगह बनानी होगी और अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं और पद-पीठ-पुरस्कार आदि के लिए महाजनों और सत्ता-प्रतिष्ठानों के आगे-पीछे मंडराने और दांत चियारने की जगह आम लोगों को शिक्षित, जागृत, गोलबंद और संगठित करने के काम में लगना होगा ! इस काम में विचारों और संस्कृति के मोर्चे का अनिवार्य और बुनियादी महत्व है !


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जी, मैं मानती हूँ कि आज ऐसे कथित कम्युनिस्टों की भरमार है जिन्हें थोड़ा सा खुरच दो तो भीतर से एक सवर्ण हिन्दू या नकली सेक्युलर परम्परावादी हिन्दू बाहर निकल आता है I


ऐसे लोगों की भरमार है जो खुद को मार्क्स-लेनिन का अनुयायी बताते हैं बुर्जुआ सत्ता के साथ रातें रंगीन करते हैं और इनाम-वजीफ़ा के लिए फासिस्टों को भी चुम्मा देने लगते हैं I बहुत सारे किताबी कीड़े और संभ्रांत सुविधाभोगी हैं या मार्क्सवाद की एक भी किताब न पढ़े हुए लोग हैं जो खुद को कम्युनिस्ट बताते हैं और बहुत सारे दारूकुट्टे और लम्पट, सरकारी अफसर भी मार्क्सवाद पर क्लास लेते हैं !


ऐसे कम्युनिस्टों की भी भारी संख्या है जो क्रान्ति का सपना देखना कभी का बंद कर चुके हैं और इसी व्यवस्था में सुधार को समर्पित हो चुके हैं या इस या उस बुर्जुआ पार्टी को "थोड़ा बेहतर", "थोड़ा अधिक जनवादी" मानते हुए उसे बिनमाँगी सलाह देते रहते हैं !


लेकिन जो व्यक्ति सभी कम्युनिस्टों को ऐसा ही बताता है, यानी उन्हें दलित-विरोधी, सवर्ण हिन्दू मानसिकता वाला, सुविधाभोगी, सत्ताधर्मी और पाखंडी बताता है, वह या तो अव्वल दर्जे का गधा है, या बेहद धूर्त किस्म का व्यक्ति है, प्रतिक्रिया की शक्तियों की सेवा करने वाला भाड़े का टट्टू है !


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इन दिनों सोशल मीडिया पर साहित्य के बारे में जो टिप्पणियां आती हैं, जो रचना-चर्चाएं होती हैं, जो बहसें होती हैं, उनपर नज़र डालने की भी इच्छा नहीं होती। बस वही उखाड़-पछाड़, वही गिरोहबंदी, वही आत्ममुग्ध चर्चाएं, अधकचरे विमर्श और आह-वाह! पत्रिकाओं में भी प्रायोजित अख़बारी समीक्षानुमा आलोचनाएं, अधकचरे सैद्धान्तिक लेख, लोकरंजक हल्की बातें, उबाऊ संस्मरण। हमारे समय के ऐतिहासिक संकट की जैसे कोई छाया तक नहीं। वैचारिक सुस्पष्टता का भयंकर टोटा! कहीं से शायद ही कुछ सीखने लायक या विचारोत्तेजक मिलता हो। भीषण वैचारिक वंचना और अवसाद का परिदृश्य!



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