अगर मैं कहूं कि दीपक मिश्रा, गोगोई, बोवड़े, अरुण मिश्रा जैसे जजों की मेरी नज़र में कोई इज़्ज़त नहीं, तो क्या यह भी न्यायालय की अवमानना का मामला हो जायेगा ?
क्या क़ानून के डर से कोई ईमान की बात न कर सकेगा ?
यानी क़ानून का काम हमें अनैतिक बनाना है और डराकर रखना है !
क्या एक व्यक्ति के रूप में जज का आचरण न्यायालय के सम्मान का प्रतीक है?
क्या किसी जज के दुराचरण से न्यायालय की मानहानि नहीं होती?
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इंसाफ़ की बातें करने वाले अगर सीखचों के पीछे हैं,
आज़ादी की मांग करने वाले अगर सत्ता की निगाहों में ख़तरनाक बाग़ी हैं,
हक़ की मांग करने वालों के लिए अगर बस लाठियों-गोलियों-जेलों की सौगातें हैं,
ज़मीर की हर आवाज़ पर अगर संगीनों के पहरे हैं,
सपनों पर अगर ख़ौफ़ के साये हैं,
गलियों में बहते बेआसरा यतीम लहू की आवाज़ें अगर बहरे कानों तक नहीं पहुंच पा रही हैं,
अगर, जिसके बारे में हमें पहले से पता होता है वह क़त्ल रोज़ हमारी आंखों के सामने होता है,
अगर इंसाफ़ की कुर्सियों पर बैठे लोगों के पास कोठों के दलालों जितना ईमान है,
अगर संसद में लोटते हैं चर्बीले सूअर और तमाम हत्यारे, दंगाई, बलात्कारी और दलाल जन-प्रतिनिधि के दायित्व निभाते हैं,
अगर लोकतंत्र अंबानी-अडानी-टाटा-बिड़ला के दरवाज़े पर लोटने वाला खजुहा कुत्ता है,
तो महामहिमो ! इस मुल्क के तमाम बेहद मामूली लोगों की इज़्ज़त, ख़ुद्दारी और शान के नाम पर हम इस हत्यारे लोकतंत्र की हर संस्था की दिल की गहराइयों से अवमानना करना चाहते हैं ।
अगर हम, हर सज़ा भुगतने की क़ीमत चुकाकर भी, ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्यता की अवमानना करेंगे और ताउम्र अपने मनुष्य होने पर शक़ करते रहेंगे ।
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