‘सत्य के लिए किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं; लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’
-- हजारी प्रसाद द्विवेदी ('वाणभट्ट की आत्मकथा')
तो भइये, सत्य के लिए तो हम काल से भी नहीं डरते तो खाली-पीली बूम मारने वाली इन बौद्धिक गिरोह्बंदियों से क्या डरेंगे ! अगर कोई बड़बोलेपन के साथ आचार्य-पीठ पर बैठकर मार्क्सवाद की बुनियादी स्थापनाओं की ऐसी-तैसी करते हुए सिद्ध-गुटिकाएँ बांचेगा और प्रवचन करेगा, तो हम वैज्ञानिक विश्लेषण के उपकरणों से उसका बैलून तो पिचकायेंगे ही पिचकायेंगे ! और भद्र जनो ! इजाज़त दें तो आपलोगों की 'मिडिल क्लास सेंसिबिलिटीज' को मैं भाड़ में जाने को बोल दूँ ! आपकी ये शरीफ़ाना अदाएं और नाजो-नखरे तब कहाँ चले जाते हैं जब कोई बौद्धिक लम्पट वैज्ञानिक मुद्दों पर बहस में उतरने की जगह अपनी वाल पर सीधे गाली-गलौज, कुत्सा-प्रचार और निकृष्टतम कोटि का चरित्र-हनन करता है ? भद्र जनो ! इसके पीछे कहीं वर्ग-हितों की नहीं तो वर्ग-संस्कारों की कोई सहज एकता तो नहीं है ? आखिर समान परों के पंछी साथ तो उड़ते ही हैं !
गाली और चरित्र-हनन के कुत्सा-प्रयासों से डरकर अगर सैद्धांतिक बहसें और गलत विचारों एवं गलत व्यक्तियों का 'एक्सपोज़र' रोक देना होता, तो यह काम तो हम दशकों पहले कर चुके होते ! अब आपको एक वाकया सुनाते हैं ! मेरी गली में बेहद खूँख्वार 20-25 कुत्तों का एक गिरोह रहता है ! बच्चों-बूढों सहित दर्ज़नों लोगों को वे भंभोड़ चुके थे I कॉलोनी के नागरिक उन्हें पकड़ने के लिए नगरपालिका की कुत्तागाड़ी कई बार बुलवा चुके थे, पर कुत्ते कभी हाथ नहीं आते थे I रात-बिरात लौटते हुए मुझे भी घेरा I बड़ी मुश्किल से बची ! फिर मैं एक तेज़ सायरन जैसी आवाज़ वाली बैटरी वाली सीटी पास में रखने लगी I एक गुप्ती पहले ही से रखती थी I उसका छडी की तरह इस्तेमाल करते हुए कुत्तों को दौडाती थी और रोज़ एकाध को चोटिल करती थी I यह पारस्परिक छापामार युद्ध एक महीने तक चला, फिर कुत्ता बिरादरी ने मुझसे दूर रहना शुरू कर दिया I हाँ, काफी दूर खड़े होकर वे भौंकते ज़रूर हैं I पर वो कहते हैं न ! 'कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी अपनी राह जाता है I'
अभी "मार्क्सवादी" पण्डे के मार्क्सवादी शिक्षण वीडियो-श्रृंखला द्वारा सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे कचरे के खिलाफ 'हंड्रेड फ्लावर्स मार्क्सिस्ट स्टडी ग्रुप' दिल्ली के साथियों ने तीखी भाषा में जब एक क्रिटीक लिखी और उतनी ही तीखी टिप्पणी के साथ मैंने उसे शेयर किया तो पण्डे के गिरोह के साथ ही कुछ "भली आत्माओं" ने भी इस बात पर अप्रसन्नता प्रकट की ! हमने उनकी सेवा में बस इतना ही निवेदन किया कि भाषा-शैली पर हम खुद को कोस लेंगे, पर यह बताइये कि हमारे तर्कों और स्टैंड पर आपकी क्या राय है ? दूसरा हमने विनयपूर्वक यह पूछा कि कभी बिना किसी प्रसंग के, या कभी किसी बहस के जवाब में, यह जंतु जो कुत्सा-प्रचार, चरित्र-हनन और गाली-गलौज करता रहता है तो क्या उसे भी वे फटकार या लाड-प्यार से कुछ लताड़ लगाते हैं ?
कुछ मित्रो-शुभचिंतकों ने फोन करके कहा कि मुद्दों को यूँ सोशल मीडिया पर लाने की जगह बैठकर सुलझा लेना चाहिए ! यह है भलेमानसों की समझ ! हमने बताया कि मार्क्सवाद का कचरा पण्डे ने सोशल मीडिया पर किया है तो सफाई भी तो वहीं की जायेगी ! गंद दुआरे पर हो तो घर के भीतर थोड़े न झाडू लगाते हैं ! दूसरी बात, हमने यह सीधे-सीधे प्रस्ताव रखा कि दिल्ली में चुने हुए 50-60 मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों के समक्ष किसी सार्वजनिक हॉल में, या वेबनार जैसा कुछ प्रबंध करके सभी मसलों पर खुलकर बहस कर ली जाए, आपलोग पण्डे को उस बहस में आने के लिए तैयार कीजिए ! सारे इंतज़ाम की ज़िम्मेदारी हमलोगों की होगी और न्याय और पारदर्शिता की गारण्टी के लिए पूरी बहस की वीडियो-रिकॉर्डिंग कर ली जायेगी !
तो भइये पञ्च-परमेश्वर लोगो ! यह एक खुला प्रस्ताव है ! पंडा महाराज बहस के लिए तैयार हो जाएँ, तिथि आदि तय हो जाए ! फिर हम पण्डे की मार्क्सवाद की समझ पर सोशल मीडिया पर नहीं लिखेंगे और अपनी सारी आलोचनाएँ उस मंच पर ही रखेंगे !
(1जून, 2020)

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