भाषा का जादू वहीं तक प्रभावी और उपयोगी है जहाँतक वह ज़िंदगी के जादू को उद्घाटित करने के काम आये ! जादू को और अधिक जादू बना देने में कोई जादू नहीं ! जब जीवन की कोई मर्मस्पर्शी कथा कहने की जगह पाठक को चमत्कृत करके मैदान मार लेना ही लेखक का उद्देश्य हो जाए तो उसकी रचना ख़ूबसूरत चमकीले डब्बे में पैक घिसी हुई जूतियों जैसी हो जाती है !
कृतित्व का जादू जैसे-जैसे अपने मूल उत्स -- ज़िंदगी से दूर या विच्छिन्न होता जाता है, वैसे-वैसे उसका सारा आकर्षण समाप्त होता जाता है । रचना का जादू जब ज़िंदगी के जादू का परावर्तन नहीं रह जाता, तो वह चौंक-चमत्कार तो बहुत पैदा कर लेता है पर दिल में घर नहीं बना पाता !
कई बार मान्यता और प्रशंसा से इतराता आत्ममुग्ध लेखक यह समझ ही नहीं पाता कि कब उसकी भाषा का जादू रचना पर हावी हो गया I उसे पता ही नहीं चलता कि कब वह चुकता चला गया और एक घिसा हुआ सिक्का बनकर रह गया ! वह लोगों को चमत्कृत करने की कोशिश में जादुई कथ्य ढूँढने की भी खूब कोशिश करता है और इस दौरान ज़िंदगी की नब्ज़ पर से उसकी उंगलियाँ और अधिक दूर हो जाती हैं ! फिर वह कुछ-कुछ मनोरोगी जैसा हो जाता है और हिन्दी के पाठकों को अहसानफ़रामोश, आलोचकों को गधा और सहयोगी लेखकों को षड्यंत्रकारी गिरोह समझने लगता है ! दूसरी ओर, मान्यता और प्रसिद्धि में आयी कमी की भरपाई के लिए वह विदेशी भाषाओं में अपने अनुवाद के लिए कुलाबे भिडाता है I और इसमें उसे जितनी सफलता मिलती जाती है, वह हिन्दी के पाठकों-लेखकों से उतना ही क्रुद्ध होता जाता है और उनकी "कृतघ्नता" को अक्षम्य मानने लगता है । वह आराम से जीते हुए खुद को प्रताड़ित, उपेक्षित और षड्यंत्रों का शिकार दिखलाता है और हमेशा ऐसी ही मुद्रा अपनाए रहता है ! बीच-बीच में वह अपने को थोड़ा राजकमल चौधरी जैसा तो थोड़ा भुवनेश्वर जैसा, और कभी-कभी 'उग्र' जैसा या मुक्तिबोध जैसा भी, महसूस करता है और उसे अच्छा लगता है ।
रचना में कुछ नया प्रयोग कर पाना वास्तव में तभी संभव है जब आप जीवन में प्रयोगधर्मी हों, आपमें जोखिम उठाने की, बीहड़ जीवन जीने की, यात्राएँ करने की क़ूव्वत हो और आप देश-दुनिया-समाज के बदलावों की दिशा और विशिष्टताओं को समझने की क्षमता रखते हों तथा उसके लिए ज़रूरी अध्ययन भी करते हों I प्रोफेसरी या अफसरी करते हुए, या ऐसा ही किसी तरह का खुशहाल मध्यवर्गीय जीवन जीते हुए, हिन्दुस्तान की 75 फीसदी आम आबादी की ज़िंदगी से बहुत-बहुत दूर रहते हुए, मात्र कुछ स्फुट जीवनानुभवों, कुछ स्मृतियों, कुछ सुनी-सुनायी बातों और कुछ विश्व-साहित्य से लिए गए 'आइडियाओं' के आधार पर "कालजयी" सृजन के भ्रम में जीना तो बंद ही कर देना चाहिए।
(11मई, 2020)
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