Friday, May 15, 2020


देहरादून के नेहरूग्राम में एक तक़रीबन 70-75 साल की बूढ़ी मज़दूर औरत सड़क किनारे बैठी हुई थी। पूर्वी उ.प्र. की रहने वाली थी। दिहाड़ी करने वाले बेटे-बहू और तीन पोतों के साथ वहीं रहती थी। घर में अब राशन का एक दाना नहीं बचा था।

बैठे-बैठे वह मोदी को सराप रही थी," अरे इस दोगलवा मोदिया कुत्ता आउर एकरे सब संघाती के सगरी देहि में ई लम-लम कीड़ा पड़ें ! सब भाजपा वाले गल-गल के, सड़की पर घिसरा-घिसरा के मरें I ई सबके अंग-अंग कोढ़ से गल जाए ! हम सब मजूर-बनिहार पर ई पहाड़ जइसा जुलुम ढाहि दिया ! ई राच्छस किरौना से भी बड़का किरौना है ! सब पइसा वाला नरक के आग में जलेगा, हज्जार साल तक जलेगा ... ..."

मैं जानती थी कि शापों के फलीभूत होने की कोई संभावना नहीं होती I फिर भी पल भर को यह ख़याल आया कि काश, ऐसा ही होता I लेकिन हम जानते हैं, लुटते-पिटते गरीबों की 'आह' लुटेरों और जालिमों को अपने आप नहीं लगती! उस 'आह' को एक संगठित शक्ति के महाविस्फोट में ढालने के लिए काफ़ी ज़मीनी काम करना होता है, काफी मेहनत करनी होती है, काफी कुर्बानियाँ देनी होती हैं !

वे भी कम घृणास्पद लोग नहीं होते जो इन भयंकर आपदाओं और जालिमों द्वारा ढाए जा रहे ज़ुल्मों का इस्तेमाल भी अपना चेहरा चमकाने और निजी राजनीतिक कैरियर सँवारने के लिए करते हैं ! अगर सरापने से कुछ हो पाता तो मैं भी उस मज़दूर औरत की तरह ही सरापती कि,"ई सब चेहरा-चमकाऊ छिछोरन के सगरी देहि में ई लम-लम कीड़ा पड़ें !"

(15मई, 2020)

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