'विपुलहृदयाभियोग्ये खिध्यति काव्ये जड़ो न मौख्रये स्वे !'
अर्थात्, जड़ मनुष्य ह्रदय को विस्तार देने योग्य काव्य को पढ़कर खेद या खिन्नता प्रकट करता है, पर अपनी मूर्खता पर उसके भीतर कभी खेद या खिन्नता का भाव नहीं आता !
अर्थ-विस्तार -- जड़ मनुष्यों की उच्चतम कोटि अंधभक्तों की होती है जिनकी कलात्मक-साहित्यिक समझ की पहुँच हनुमान चालीसा से लेकर फ़िल्मी गीतों की पैरोडी वाले भजनों-आरतियों तक, गीता प्रेस की किताबों से लेकर नरेन्द्र कोहली के उपन्यासों तक तथा मनोज कुमार की फिल्मों के देशभक्तिपूर्ण गीतों तक और मनोज तिवारी के "श्रृंगारिक" गीतों आदि तक होती है ! वे सनी देओल और अक्षय कुमार की फिल्मों को देशभक्ति और वीरता का सर्वोच्च शिखर मानते हैं ! तर्क शब्द से वे घृणा करते हैं और सिर्फ़ गुरूजी के प्रवचनों और फ्यूहरर के निर्देशों पर आचरण करने के लिए उनका मस्तिष्क अनुकूलित होता है ! जो भी साहित्य और कला उनके समझ में नहीं आती, उसे वे देश और धर्म के लिए भयंकर रूप से ख़तरनाक मानते हैं, पर अपनी मूर्खता और अंधभक्ति को प्रचण्ड रूप से लोक-कल्याणकारी मानते हैं ! कला-साहित्य, इतिहास और विज्ञान की बातें सुनकर अंधभक्त क्रोध में हाफपैंट से बाहर हो जाते हैं और गालियों की बौछार करते हुए भारतीय संस्कृति की महानता की बानगी पेश करने लगते हैं, पर अपनी मूर्खता के बारे में सोचने तक को तैयार नहीं होते !
(2अप्रैल, 2020)
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दुर्जनः सुजनीकर्तु यत्नेनापि न शक्यते I
संस्कारेणापि लशुनं कः सुगंधीकरिष्यति II
अर्थ -- प्रयास करने पर भी दुर्जन को सज्जन नहीं बनाया जा सकता ! क्या संस्कार करने पर भी लहसुन सुगंध दे सकता है ? -- अर्थात, नहीं दे सकता !
मृगमदकर्पूरागरुचन्दनगंधाधिवासितो लशुनः I
न त्यजति गन्धमशुभं प्रकृतिमिव सहोत्थितां नीचः II
अर्थ -- कस्तूरी, कपूर, अगरु और चन्दन-गंध से सुवासित किये जाने पर भी लहसुन अपनी दुर्गन्ध नहीं छोड़ता ! उसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति अपनी सहज दुष्ट वृत्तियों का किसी भी सूरत में परित्याग नहीं करता !
दोनों श्लोकों की सप्रसंग व्याख्या और सामयिक शिक्षा -- इन दोनों श्लोकों का निहितार्थ एक ही है और शिक्षा भी ! आप किसी खांटी दुष्ट प्रकृति व्यक्ति को सुधारने के चाहे जितने प्रयास करें, उससे कविता और दर्शन की चाहे जितनी बातें करें, वह अपनी दुष्टता कदापि नहीं छोड़ सकता ! यानी सुधारने के प्रयासों में समय नष्ट करने से पूर्व कुपात्र-सुपात्र की पहचान अवश्य कर लें, अन्यथा छले जायेंगे ! ऐसा भी होता है कि चतुर दुष्ट व्यक्ति आपसे सीखकर कला, कविता और मनुष्यता के बारे में अच्छी-अच्छी बातें भी करना सीख जाता है ! तब वह दुष्ट और अधिक मायावी और ख़तरनाक हो जाता है ! यहाँ कवि यह भी कहना चाहता है कि दुष्टों का ह्रदय-परिवर्तन करने के प्रयास निष्फल हो जाते हैं ! जैसे लहसुन को सुगन्धित बनाने की कोशिशों की जगह बेहतर है कि उसे चबाकर खा जाइए और तदनंतर लिस्ट्रीन से कुल्ला कर लीजिये !
प्रक्षिप्त एवं विस्तारित अर्थ, सोदाहरण -- जैसे कई मंदबुद्धि सज्जन पुरुष सोचते हैं कि वे शान्ति-अहिंसा के सद्वचनों और निर्गुण भजनों व सूफी कलामों से फासिस्ट कट्टरपंथी हत्यारों का ह्रदय-परिवर्तन करके उन्हें एक शालीन नागरिक बना देंगे ! वे खतरनाक भ्रम के स्वयं शिकार होते हैं और लोगों को भी इस भ्रम का शिकार बनाते हैं ! फासिस्टों का ह्रदय-परिवर्तन असंभव है ! उन्हें न समझाया जा सकता है, न ही उनसे तर्क-वितर्क किया जा सकता है ! बस, उन्हें कुचल देना होता है ! अगर आप उन्हें नहीं नष्ट करेंगे तो वे आपको नष्ट कर देंगे ! जो हार्डकोर फासिस्ट होते हैं वे मानव-सभ्यता के इतिहास के दुष्टतम व्यक्ति होते हैं ! कुछ सोशल डेमोक्रेट्स और लिबरल भी सोचते हैं कि बुर्जुआ संविधान में बंधकर फासिस्ट भी कुछ जनवादी संस्कार पा लेंगे, या वे चुनावों में जनता द्वारा ठुकरा दिए जाने पर पीछे हट जायेंगे अथवा अपनी हत्यारी राजनीति को ठीक कर लेंगे ! ऐसे मतिमंद सत्पुरुष लहसुन को कस्तूरी, चन्दन, अगरु और कपूर से दुर्गन्ध-मुक्त करने के निरर्थक-निष्फल प्रयासों में निरंतर लगे रहने वाले गर्दभों के सदृश होते हैं !
-- गूढ़ार्थ-निष्पादक तर्क-शिरोमणि आचार्य धुंधुकारी
(26मार्च, 2020)
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दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालंकृतोSपि सन् ।
मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः ।।"
(चाणक्यशतक---3.35)
अर्थ -- विद्या के अलंकार से अलंकृत होने पर भी दुर्जन से दूर ही रहना चाहिए I मणि से भूषित होने पर भी क्या सर्प भयंकर नहीं होता ?
सप्रसंग सामयिक व्याख्या -- विद्वान दुष्ट व्यक्ति अपनी विद्वत्ता के बावजूद खतरनाक होता है जैसे जो साँप मणिधर होता है, वह भी भयंकर होता है ! इसमें एक निहित अर्थ यह भी है कि दुष्ट व्यक्ति अगर विद्वान न होकर मूर्ख हो तब तो उसकी संगत सर्वथा त्याज्य होती है ! मूर्ख दुष्ट और अधिक भयंकर होता है !
उदाहरण -- जैसे हिन्दुत्ववादी फासिस्ट दुष्ट होने के साथ ही महामूर्ख भी होते हैं ! अतः अगर आप उनके आसपास भी फटकते हैं, या उनकी थोड़ी भी संगत करते हैं तो अपने लिए विपत्ति को आमंत्रण देते हैं !
प्रक्षिप्त या विस्तारित अर्थ -- श्लोक की दूसरी पंक्ति अपना एक स्वतंत्र अर्थ भी रखती है ! आप दूसरी पंक्ति को इसप्रकार भी समझ सकते हैं: मणि से आभूषित सर्प उसीप्रकार भयंकर होता है जिसकी सत्ता की शक्ति से आभूषित फासिस्ट !
-- गूढ़ार्थ-निष्पादक तर्क-शिरोमणि आचार्य धुंधुकारी
(24मार्च, 2020)
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"नाचना तो मुझे बहुत अच्छा आता है ! पर क्या करूँ ? आँगन ही टेढ़ा है !
अब घर तोड़कर आँगन सीधा करूँगी एकदम नाप-जोखकर ! फिर देखिए, क्या गजब का नाच दिखाती हूँ !"
"राधा को दोष ना दो ! राधा नाचे कैसे ? कहा था न ! तभी नाचूँगी जब नौ मन तेल के दिए जलाए जायेंगे ! अभी और तेल पेरना होगा ! जबतक नौ मन तेल नहीं होगा, तबतक राधा नहीं नाचेगी ! समझ लो ! हाँ नहीं तो !"
(24मार्च, 2020)
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