(इस टिप्पणी के पहले ही मैं यह बात साफ़ कर देना चाहती हूँ कि दिल्ली के भीतर दो दिल्लियाँ हैं ! एक चमचम-लकदक दिल्ली है, जहाँ तमाम भद्रजन निवास करते हैं -- राजनेता, प्रशासक, हर तरह के बौद्धिक, कलाकर्मी और सुखी एवं ऊब की हद तक संतुष्ट और अदृश्य से डरे हुए लोग ! दूसरी दिल्ली फूटे करम वालों की दिल्ली है, हाड़ गलाने वालों की दिल्ली है जो अन्धकार, घुटन और अनिश्चितता से भरी हुई है ! यह दूसरी दिल्ली इन दिनों उजड़ गयी है ! पर इसे फिर से आबाद होना ही होगा, अपनी तमाम विपत्तियों और संकटों के साथ, क्योंकि इस दिल्ली के बिना उस दिल्ली में प्रतिदिन के वसंतोत्सव मन
ही नहीं सकते, जहाँ अभी पिछले दिनों, कभी डॉक्टर्स को धन्यवाद देने के नाम पर, तो कभी कोरोना के विरुद्ध एकजुटता के नाम पर ताली-थाली बजाकर और दीये जलाकर मानो करोड़ों मेहनतक़शों की तबाही और विस्थापन का जश्न मनाया जा रहा था ! यह जो लकदक-चमचम वाली दिल्ली है,यह उन तमाम सत्तासेवी बौद्धिकों के बिना चल ही नहीं सकती, जिनमें खुले दरबारियों, सलाहकारों और प्रचारकों के अतिरिक्त तमाम आवारा-लम्पट-पियक्कड़-कैरियरवादी, धन्धेबाज़ छद्म-वामपंथी भी शामिल होते हैं ! और कुछ ऐसे मरियल, दयनीय, शरीफ और "सद्गृहस्थ" सात्विक टाइप "वामपंथी" भी होते हैं जो सबसे बनाकर चलते हैं, "उल्टी-सीधी" बात नहीं करते हैं और नाज़ुक मसलों पर चुप रहते हैं ! मैं यहाँ पर पहली वाली दिल्ली की, यानी चमचम-लकदक दिल्ली की बात कर रही हूँ, और विशेषकर इसके बौद्धिक नंदन-कानन की बात कर रही हूँ !)
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आज से शायद सौ वर्षों बाद भारतीय बौद्धिक-सांस्कृतिक जीवन के इतिहास में लिखा जाएगा कि इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में राजधानी दिल्ली एक ऐसी घिनौनी जगह हुआ करती थी जहाँ तमाम ईमानदार कायर लोग साहसी और बेशर्म बेईमान सत्ताधर्मियों को दांत चियारकर नमस्कार करते थे, विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में मूर्ख, घमंडी, आत्मतुष्ट, बत्तमीज़, कुपढ़ और शोध-छात्राओं के यौन-उत्पीड़कों की तूती बोलती थी, प्रगतिशील और वामपंथी जमातों के कुछ लोग भी सत्ता के सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों के इर्द-गिर्द झोला टाँगे घूमते थे, वजीफों और पुरस्कारों के लिए टिप्पस भिड़ाते थे, हत्यारों से सम्मानित होते हुए उनके दस्ताने चढ़े खूनी हाथों को झुककर चूमते थे, दंगे या मॉब लिंचिंग या पुलिस दमन या फर्जी मुठभेड़ की किसी घटना के बाद जंतर-मंतर पर या इंडिया गेट या राजघाट पर 'वैष्णव जन तो तेने कहिये ...' भजन गाते थे और आन्दोलनों के दमन के बाद जब शहर में कर्फ्यू लागू होता था तो अपने शांत ड्राइंग रूम में झूलने वाली कुर्सी पर लेटे हुए राग जैजैवंती सुनते थे !
आलम यह था कि क्रांतिकारी वाम का बैज-बिल्ला लगाए कुछ लोग भी सोशल डेमोक्रेट्स, सर्वोदयियों और किसिम-किसिम के सुधारवादी पैबंदसाज़ों के साथ मिलकर शान्ति से आत्मा को भिगो देने वाले भजन गाते थे, संविधान की कसमें खाते थे और शान्ति-पाठ करते थे ! ईमानदार, सच्चरित्र और प्रतिबद्ध होने का दावा करने वाले बहुतेरे लोग भी चार पेग गटकने के बाद मुत्तन पाँड़े या पद्दन तिवारी या पोंकू सिरीवास्तव टाइप किसी मीडियाकर, लम्पट, दुश्चरित्र, कैरियरवादी और सरकारी अफसरी के साथ साहित्य और पोलिटिकल एक्टिविज्म का दावा करने वाले किसी छंटे हुए बदमाश के गले लगाकर भावविह्वल शब्दों में उसकी प्रशंसा करने को तैयार रहते थे !
तब दिल्ली एक कुटिल, हत्यारी, मायावी महापरियोजना हुआ करती थी जिसके निर्माण में तमाम हरामियों,लम्पटों, बदमाशों, दलालों, बिके हुए लोगों और दुर्दांत महत्वाकांक्षी कैरियरवादियों के साथ ही विद्वत्ता के मुगालते में जीते मूर्खों, चिन्तक का ओवरकोट पहने कूपमंडूकों, कायर शरीफों और "सद्गृहस्थ", "सज्जन"प्रगतिशीलों का भी महत्वपूर्ण योगदान था ! और हाँ, कुछ भोले-भाले नागरिक भी इसमें शामिल थे और उन्हें इसका पता भी नहीं था !
(7अप्रैल, 2020)
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