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नैतिक और न्यायशील होने के लिए आपको साफ़गो और साहसी होना पड़ता है और यह तय करना होता है कि आप किसी सच्चाई को देखने से या किसी ठोस यथार्थ या किसी तर्कसंगत निष्कर्ष को स्वीकार करने से महज इसलिए इनकार नहीं कर सकते कि वह आपको असहज कर देता है, या परेशानी में डाल देता है I कहा जा सकता है कि यह तय करते समय आप नैतिकता और ज्ञान-मीमांसा के संधि-बिंदु पर खड़े होते हैं I
बात को उलटी तरफ़ से देखते हुए यूँ भी कहा जा सकता है किसी निष्कर्ष या किसी स्थापना को आप महज इसलिए स्वीकार करते हैं कि वह आपके लिए सुकूनतलब है, या सुविधाजनक है, तो यह अनैतिकता है, बेईमानी है I वैज्ञानिक तार्किकता के लिए 'स्व' से मुक्त वस्तुपरकता अनिवार्य होती है !
किसी भी दार्शनिक या राजनीतिक वाद-विवाद में यदि कोई पक्ष मूल रूप से उठे हुए प्रश्नों से सीधे टकराने या उनके उत्तर देने की जगह अन्यान्य प्रश्न उठाता है, अवांतर प्रसंगों की चर्चा करता है या गौण अथवा परिधिगत प्रश्नों को रेखांकित करते हुए मूल वाद-विवाद की ज़मीन को ही इधर-उधर खिसकाने हुए उसकी उद्गम-भूमि से दूर ले जाने की कोशिश करता है और उठे हुए मूल प्रश्न को गौण बनाने की कोशिश करता है, हर बार अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए कुछ नए प्रश्न उठाकर मूल प्रश्न पर स्पष्ट अवस्थिति रखने से बचता है, अथवा, थोड़ी-थोड़ी करके, सुविधानुसार अपनी अवस्थिति बदलता रहता है, तो वह 'एथिक्स', 'लॉजिक' और 'एपिस्टेमोलोजी' -- तीनों ही क्षेत्रों में गलत होता है, यानी अनैतिक, अधिभूतवादी और मनोगतवादी, यानी प्रत्ययवादी होता है !
विज्ञान की दुनिया में अभय होना, विनम्र, यानी हठमुक्त होना और वस्तुनिष्ठ होना अनिवार्यतः आवश्यक होता है I
वाद-विवाद की मार्क्सवादी पद्धति की सर्वश्रेष्ठता में किसी मार्क्सवादी को शायद ही कोई संशय हो ! पर यहाँ इतिहास का एक दिलचस्प तथ्य भी हम जानते चलें I प्राचीन भारत के दार्शनिकों और वैज्ञानिकों ने किसी निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए उसी पद्धति को युक्तियुक्त माना जो विचारों के टकराव, या प्रतिपाद्य के सम्मुख प्रतिपक्ष के प्रस्तुतीकरण से, दार्शनिक अवस्थिति की ओर आगे बढ़ता हो I सोचें तो यह बात अंतरविरोधों से होकर आगे बढ़ने की बात ही है I "वाकोवाक्य" एक औपनिषदिक दार्शनिक शब्द है जिसका अर्थ लगभग वही है जो प्राचीन यूनानी शब्द "डायलेक्टिक" का है ! इसका अर्थ है, प्रश्न और उत्तर के माध्यम से विवाद को आगे बढ़ाना I बाद में उपनिषद् काल के दार्शनिक अपने "गोपनीय ज्ञान" की सुरक्षा के प्रति चिंतित होकर 'वाकोवाक्य' की पद्धति की उपेक्षा करने लगे ! फिर इसे आगे बढाया भारतीय विज्ञान और वैज्ञानिक प्रणाली को दिशा देने वाले प्राचीन भारतीय चिकित्साशास्त्रियों (चरक, सुश्रुत आदि) ने I 'चरक-संहिता' में पहली बार सिद्धांत और सैद्धांतिक उपकरण के विकास के लिए विचारों के टकराव की महत्ता पर बल दिया गया I इसमें बताया गया है कि वाद-विवाद के दो रूप होते हैं -- ध्वंसात्मक और सृजनात्मक I ये दोनों अंतर्संबंधित हैं क्योंकि गलत के ध्वंस से सही के सृजन और विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ती है I वाद-विवाद की कला प्रमाण, युक्ति और हेत्वाभास से सम्बंधित अनेक प्रश्नों को सामने लाती है और उनका समाधान प्रस्तुत करती है I
'चरक संहिता' के बाद, तर्क शास्त्र की पहली सांगोपांग भारतीय कृति -- 'न्याय-सूत्र' ईसा से दो शताब्दी बाद किन्हीं गौतम ने लिखी और पाँचवी शताब्दी में किन्हीं वात्स्यायन ने इसकी विस्तृत व्याख्या की I 'चरक संहिता' की प्रारम्भिक तर्क-विधि को आगे बढाते हुए 'न्याय-सूत्र' में विचारों के सीधे टकराव से, उत्पन्न दर्शनशास्त्रीय रीति-विधान की स्पष्ट व्याख्या प्रस्तुत की गयी है I गौतम और वात्स्यायन बताते हैं कि किसी दार्शनिक अवस्थिति की 'अंतिम जाँच-पड़ताल' पूर्णतः समस्या के 'विवेचनात्मक परीक्षण' पर निर्भर करती है 'अंतिम जाँच-पड़ताल' को 'निर्णय' और 'विवेचनात्मक परीक्षण' को 'परीक्षा' कहा गया है I यानी किसी दार्शनिक निष्कर्ष पर पहुँचाने के लिए समस्या की परीक्षा अनिवार्य पूर्वशर्त है I
आगे बताया गया है कि परीक्षा की भी एक आवश्यक शर्त है और वह है 'संदेह !' 'संदेह' को 'संशय' या 'विमर्श' कहा गया है I यानी संदेह के बिना कोई विवेचनात्मक परीक्षण नहीं हो सकता और विवेचनात्मक परीक्षण के बिना कोई युक्तिसंगत दर्शन नहीं हो सकता I तब फिर प्रश्न आता है कि 'संदेह' क्या है ? गौतम और वात्स्यायन बताते हैं कि 'संदेह' एक ऐसी बौद्धिक अवस्था है जहाँ एक-दूसरे का विरोध करने वाली और एक-दूसरे को आक्रान्त करने वाली दो दार्शनिक अवास्थितियाँ मुक़ाबले में खड़ी होती हैं ! वे 'पक्ष' और 'प्रतिपक्ष' होती हैं ! अंग्रेज़ी में जिन्हें हम 'थीसिस' और 'एंटी-थीसिस' कहते हैं ! वात्स्यायन यह निष्कर्ष निकालते हैं कि "विवेचनात्मक परीक्षण और कुछ नहीं, संदेह उत्पन्न करने वाले पक्ष और प्रतिपक्ष के टकराव के माध्यम से अंतिम जाँच-पड़ताल है I"
इसतरह प्राचीन भारतीय दर्शन शास्त्र ने संदेह को दर्शन का प्रारम्भ-बिंदु बनाने के साथ ही संदेह की पूर्वशर्तों को भी निर्दिष्ट किया और इसतरह एक स्पष्ट विचारधारा की स्थापना हुई जिसके अनुसार विचारों के सीधे टकराव, या दो अवस्थितियों की सीधी मुठभेड़ के बिना, दर्शन नामकी चीज़ अस्तित्व में आ ही नहीं सकती I इस टकराव में एक अवस्थिति दूसरी अवस्थिति को उसीतरह अस्वीकार, निर्मूल या ध्वस्त कर देना चाहती है, जिसतरह दूसरी अवस्थिति पहली को I आगे गौतम और वात्स्यायन बताते हैं कि पूर्णतः ज्ञात और पूर्णतः अज्ञात के बीच का क्षेत्र संशय की क्रीड़ाभूमि होता है I संशय के विविध रूप होते हैं, लेकिन एक संशय ऐसा है जिसका दार्शनिकों की दृष्टि में विशेष महत्व है I यह वह संशय है जो एक ही वस्तु के विषय में परस्पर-विरोधी आग्रहों से उत्पन्न होता है --- जिसमें पक्ष के मुक़ाबले उसका प्रतिपक्ष डटा होता है I ये दोनों एक-दूसरे के निषेध का प्रयास करते हुए विवेचनात्मक परीक्षण की माँग प्रस्तुत करते हैं और यहीं से दर्शन-शास्त्र की शुरुआत होती है I
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(डी.पी.चट्टोपाध्याय की पुस्तक 'भारतीय दर्शन में क्या जीवंत है और क्या मृत' पढ़ते हुए कुछ फुटकल, लेकिन काम की बातें )
(28अप्रैल, 2020)
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