फासिस्टों के बारे में यूँ ही सी कुछ बातें
(यानी बचपन की एक याद से बात जो निकली तो फैलती ही चली गयी)
बचपन में एक जासूसी उपन्यास पढ़ा था ! कहानी कुछ यूँ थी कि शहर में तमाम क़त्ल होते हैं, बैंक डकैतियाँ होती हैं, फ़सादात होते हैं I जासूस यह तो पता लगा लेता है कि इन सबके पीछे कोई एक शातिर दिमाग़ काम कर रहा है, लेकिन उसका पता नहीं चल पाता ! आखिर में पता चलता है कि वह आदमी दरअसल बजरंगी नामका एक मूर्ख, बौड़म और जोकर टाइप आदमी है जो एक फाइनेंस कंपनी के दफ़्तर में मुलाजिम है ! पर वास्तव में वह अपराधियों के एक माफिया गिरोह का सरदार है ! बजरंगी जब पकड़ में आता है तो रहस्य से दूसरा पर्दा यह उठता है कि वह बचपन से ही कुछ साइको टाइप था और उसने एक स्थानीय फैक्ट्री मालिक के भाड़े के गुण्डे की तरह काम करना शुरू किया था ! एक अपराध-साम्राज्य का मालिक होने के बाद भी वह उस पूँजीपति के लिए काम करता था, लेकिन अब उसके अपने भी बिज़नेस इंटरेस्ट थे, एक आर्थिक साम्राज्य था और एक सापेक्षिक स्वायत्तता थी !
कभी-कभी चलताऊ जासूसी उपन्यासों से भी आपको सामाजिक यथार्थ की एक झलक अनायास ही मिल जाया करती है ! फासिस्ट राजनीति के कई एक धुरंधरों का जीवन अक्सर एक ऐसे मामूली नागरिक (जैसे चायवाला, रंगसाज़, सेना का सैनिक या दलाल आदि-आदि... ) के रूप में शुरू होता है जो छोटे-मोटे अपराध करते-करते राजनीति की दुनिया में आ गए ! शुरुआत तो उन्होंने किसी पूँजीपति के भाड़े के टट्टू के रूप में ही किया, पर फिर अपराध और राजनीति की सीढ़ियाँ चढ़ते चले गए ! जो छोटे-मोटे अपराध या क़त्ल किया करते थे, वे सुनियोजित ढंग से बड़े-बड़े नरसंहारों को अंजाम देने लगे ! थैलीशाहों की अधीनस्थता तो उनके सत्ता के शीर्ष पर बैठने के बाद भी बनी रही, लेकिन उनकी सापेक्षिक स्वतन्त्रता भी किसी हद तक हो गयी !
अब ऐसे किसी फासिस्ट नेता के व्यक्तित्व का थोड़ा नज़दीक से अध्ययन कीजिए ! ज्ञान-विज्ञान-तर्कणा के मामले में वह निपट मूर्ख होता है, एकदम बकलोल ! इसलिए जब भी वह ज्ञान-विज्ञान की, इतिहास और दर्शन की कोई बात करता है तो एक साथ आप सर भी नोचने लगते हैं और हँसते-हँसते पेट पकड़कर ज़मीन पर लोट भी जाते हैं ! यानी फासिस्ट बेवकूफ़ या जोकर होने का नाटक नहीं करता ! वह वाकई बेवकूफ़ और विदूषक होता है ! लेकिन सबसे भयावह बात यह होती है कि वह जोकर और बेवकूफ़ होने के साथ ही एक शातिर-दिमाग़ हत्यारा होता है ! वह दंगे और नर-संहार, फर्जी मुठभेड़ों और हत्या के कुचक्र रचने का उस्ताद होता है ! वह विश्वस्त सलाहकारों, योजनाकारों और प्रचारकों के समूह तैयार करने के हुनर का भी माहिर उस्ताद होता है ! जिन बुद्धिजीवियों के ज्ञान-विज्ञान की दुनिया में उसका कोई दखल नहीं होता, उनके व्यक्तित्व को पढ़ना वह अच्छीतरह जानता है ! उसे पता होता है कि साम-दाम-दंड-भेद से किन बुद्धिजीवियों को खरीदकर सत्ता की सेवा में लगाया जा सकता है और किन बुद्धिजीवियों को चुप कराया जा सकता है और किन बुद्धिजीवियों को किसी भी तरीके से अपने पाले में नहीं लाया जा सकता ! फिर वह ऐसे बुद्धिजीवियों को ठिकाने लगाने की कोशिशों में जुट जाता है और इस काम में भी उसकी मदद भाड़े के गुंडों के साथ ही, सत्ता द्वारा फेंकी गयी हड्डी के टुकड़ों पर बिके हुए बुद्धिजीवी भी करते हैं ! कई फासिस्ट नेताओं के व्यक्तित्व में आपको यह अंतरविरोध देखने को मिलेगा कि महामूर्ख होते हुए भी वे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं, हत्यारी योजनाओं और पूँजीपतियों के हित-साधन को अंजाम देने के मामले में अत्यंत शातिर ढंग से कुशल होते हैं !
लेकिन इस बात को भी ध्यान रखना चाहिए कि एक फासिस्ट नेता के पीछे ठन्डे दिमाग़ से काम करने वाले सिद्धान्तकारों की एक पूरी मंडली होती है ! जैसा कि ऊपर से दीखता है, फ्यूहरर अकेले कुछ नहीं करता ! ऐसा भी नहीं कि साहब चिकारा के बूते ही सारा काम कर लें ! एक फासिस्ट नेता के पीछे नीति-निर्माताओं की एक पूरी बहु-संस्तरीय फौज होती है ! यानी फासिज्म का एक पूरा सिस्टम होता है ! गर्भ-गृह में असली नियंत्रकों की टीम बैठती है ! फिर योजना-निर्माताओं और प्रचारकों की सेना को सम्हालने वाले लोगों की टीमों के मंत्रणा-कक्ष होते हैं ! फिर बर्बर गुंडा-वाहिनियों के संगठनकर्ताओं और सेनापतियों के कई स्तरों के कमांड ऑफिस होते हैं ! जो सड़कों पर रक्त-पिपासु भेड़ियों की तरह व्यवहार करने वाले फासिस्ट प्यादे होते हैं वे पीले बीमार चेहरों वाले उन्मादग्रस्त मध्यवर्गीय युवा होते हैं और उत्पादन की प्रक्रिया से विच्छिन्न विमानवीकृत लम्पट सर्वहारा होते हैं ! इन्हें इतिहास और राजनीति की एक विकृत समझ की घुट्टी पिला-पिलाकर मनोरोगी जैसा नफ़रती और परपीड़क और रक्त-पिपासु बनाया जाता है ! दंगे के जुनून में किसी आम आदमी के हाथों अगर कोई क़त्ल हो जाए तो सामान्य मनःस्थिति में आने के बाद वह ताउम्र अपने को माफ़ नहीं कर पाता ! लेकिन एक पेशेवर दंगाई को कभी कोई अपराध-बोध नहीं होता, कोई पश्चाताप नहीं होता !
एक फासिस्ट नेता का चेहरा तो एक प्रतीक-चिह्न के समान सामने होता है ! वह एक प्रतिनिधि व्यक्तित्व होता है, पर वही पूरा फासिज्म नहीं होता ! फासिज्म का एक पूरा तंत्र होता है' जो समाज में मध्य वर्ग और लम्पट विमानावीकृत सर्वहारा का एक चरम प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करता है ! यूँ तो फासिस्ट आन्दोलन संकटग्रस्त रुग्ण पूँजीवादी समाज में सड़कों पर उत्पात मचाता ही रहता है, पर फासिस्ट जब सत्ता में आ जाते हैं तो बुर्जुआ राज्य का ढाँचा और फासिस्ट आन्दोलन का ढाँचा काफी हद तक ओवरलैप करने लगते हैं या एक दूसरे के साथ पूरे तालमेल के साथ चलने लगते हैं ! ऐसे में कई बार फासिस्टों की गुंडा वाहिनियों और पुलिस तंत्र के बीच अंतर करना मुश्किल हो जाता है !
इसीलिये, हम बार-बार इस बात पर जोर देते हैं कि फासिज्म-विरोधी लड़ाई चुनावी हार-जीत की लड़ाई है ही नहीं ! सत्ता में न रहते हुए भी फासिस्ट अपनी खूनी साजिशें और खूनी उपद्रव जारी रखेंगे ! आज हम पूँजीवाद के जिस दीर्घकालिक ढाँचागत संकट के दौर से गुज़र रहे हैं, उसमें फासिज्म तबतक मौजूद रहेगा जबतक पूँजीवाद मौजूद रहेगा ! यानी फासिज्म-विरोधी संघर्ष पूँजीवाद विरोधी संघर्ष का ही एक अंग है ! हमें इस धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन की टक्कर में मज़दूरों, मेहनतकशों और प्रगतिशील चेतना के युवाओं का एक जुझारू सामाजिक आन्दोलन खड़ा करना ही होगा ! अभी हम फासिज्म के विरुद्ध केवल आत्मरक्षात्मक संघर्ष ही कर पा रहे हैं ! मगर इससे आगे तो हमें जाना ही होगा ! मेहनत और लगन का काम है ! ख़रामा-ख़रामा करते रहने से नहीं होगा ! फासिस्ट हत्यारे अपना काम भरपूर अनुशासन, निष्ठा और लगन के साथ कर रहे हैं ! हम अगर अपने अनुशासन, मेहनत, सूझ-बूझ और धैर्यपूर्ण योजनाबद्धता में उन्हें पीछे नहीं छोड़ सकते तो लानत है हमारी प्रतिबद्धता को !
बुद्धिजीवियों से तो मैं यही कहना चाहूँगी कि चाहे आप जितने बड़े बुद्धिजीवी हों, अगर शारीरिक दृष्टि से लाचार, गंभीर बीमार और अति-वृद्ध नहीं हैं तो अमर और विश्वख्यात कर देने वाले अपने किसी रचनात्मक प्रोजेक्ट पर काम करते रहिये, लेकिन आज जैसे विकट अंधकारमय ऐतिहासिक समय में, सड़क पर भी उतरिये, आन्दोलनों में हिस्सा लीजिये, नौजवानों के साथ कुछ लाठियाँ, आँसू गैस के कुछ गोले और पानी की बौछारें झेलिये, थोड़ी जेल की हवा भी खा आइये ! बहुत मज़ा आयेगा और लेखनी में भी नयी ताक़त आ जायेगी ! एकबार तबीयत से गुंडों और पुलिस की लाठी खाने और हवालात के एक संक्षिप्त अनुभव के आधार पर बता सकती हूँ, बेहद दिलचस्प और रोचक अनुभव होता है !
मान लीजिये, इस बीच आप मर ही गए तो आपका नाम लोर्का, क्रिस्टोफ़र कॉडवेल, नेरूदा, विक्तोर खारा, वाल्टर बेंजामिन,डेविड गेस्ट, नाज़िम हिकमत आदि-आदि के साथ लिया जाएगा ! किसी महत्तर लक्ष्य के लिए मरना भी कोई बड़ी चीज़ नहीं होती ! लोगों ने बिलावजह इसे इतना हौव्वा बना रखा है !
(12मार्च, 2020)
No comments:
Post a Comment