Monday, March 30, 2020


शहर क़ाज़ी ने इन्साफ़और क़ानून की जो भी तालीम जामिआ में हासिल की थी, उसे भूलने में ज्यादा वक़्त नहीं लगा ! उन्होंने बादशाह की यह नसीहत गाँठ बाँध ली कि बादशाह ही जामि उल कमालात होता है और क़ानून को भी उसीकी ताबेदारी करनी होती है ! वो जानते थे कि बादशाह के वज़ीरे-ख़ास को तलब करने वाले एक सनकी मुंसिफ़ को किसतरह जान से हाथ धोना पड़ा था !

शहर क़ाज़ी थोड़े रंगीनमिजाज़ भी थे ! जब एक बद्तमीज़ औरत ने खुलेआम उनके ऊपर अपनी इज़्ज़त से खेलने का इलज़ाम लगाया और बादशाह के दरबार में उनकी पेशी हुई तो बादशाह ने उस बेगैरत औरत को भगा दिया और क़ाज़ी साहिब को बेगुनाह क़रार दिया ! वैसे लोगों में खुसफुस यह बात भी होती रहती थी कि बादशाह भी कोई कम रंगीनमिजाज़ नहीं थे ! बहरहाल इस अहसान को शहर क़ाज़ी ताज़िन्दगी नहीं भूल पाए और जबतक शहर क़ाज़ी की कुर्सी पर क़ाबिज़ रहे, बादशाह सलामत से पूछ-पूछकर ही इन्साफ़ करते रहे और फैसले सुनाते रहे !

बादशाह हुज़ूर ने भी इस वफ़ादारी का पूरा ख़याल रखा और शहर क़ाज़ी बूढ़े होकर जब सबुकदोश हुए तो फ़ौरन उन्हें अपने दीवाने-ख़ास में तक़र्रुर अता फ़रमाया ! अब दीवाने-ख़ास के दरबारी होकर शहर क़ाज़ी बादशाह की जुबां से निकली हर बात पर यूँ फ़िदा हुए जाते थे गोया बादशाह कुछ ख़ूबसूरत अशआर कह रहे हों ! वह झुक-झुक कर बादशाह की दस्तबोसी करने लगते थे और अलग से रंगीन महफ़िलों में जब जाम उठाये जाते थे तो बादशाह के लाख मना करने के बावजूद ज़मीन पर लेटकर उनकी क़दमबोसी भी करने लगते थे ! बादशाह ऊपर से मना करते थे, भीतर से खुश होते थे !

शहर के तमाम क़ाज़ी और मुंसिफ़ कहते थे कि इन्साफ़पसंद हो कोई तो बादशाह सलामत जैसा और फ़र्ज़अदायगी का ईनाम किसी को मिले तो क़ाज़ी साहिब जैसा ! सभी शहर क़ाज़ी के नक्शेकदम पर चलना चाहते थे और तवारीख़ में इन्साफ़ की नयी इबारत लिखने में हाथ बँटाना चाहते थे !

(17मार्च, 2020)

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