भारतीय पुलिस का चरित्र भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता के चरित्र के अनुरूप शुरू से ही भ्रष्ट और निरंकुश दमनकारी रहा है ! औपनिवेशिक काल में जो पुलिस का ढाँचा और चरित्र था वह आज़ादी के बाद भी यथावत बना रहा ! अर्द्धसैनिक बालों का चरित्र तो हमेशा से और बर्बर रहा है और उनका इस्तेमाल हमेशा से जनांदोलनों को कुचलने के लिए ही होता रहा है !
1960 के दशक में सुप्रीम कोर्ट के सुप्रसिद्ध जस्टिस ए.एन. मुल्ला ने भारतीय पुलिस को 'अपराधियों का सर्वाधिक संगठित गिरोह' कहा था ! हूबहू इसीतरह की बात राष्ट्रीय पुलिस आयोग के संस्थापक सदस्य के.एफ़.रुस्तमजी ने भी 1980 के दशक में कही थी ! अपराधियों के इस संगठित राष्ट्रीय गिरोह का साम्प्रदायीकरण तो दशकों पहले ही शुरू हो चुका था ! याद कीजिए मेरठ के हाशिमपुरा और मलियाना की बर्बर मुस्लिम नर-संहार की घटनाएँ ! 1990 के बाद पुलिस के साम्प्रदायीकरण की प्रक्रिया विशेषकर उत्तर भारत में तेज़ गति से आगे बढ़ी है ! गुजरात-2002 में पुलिस की भूमिका स्पष्टतः हिन्दू पार्टी और दंगाइयों के सहयोगी की थी ! अब 2020 की दिल्ली में पुलिस सीधे-सीधे दंगाई गिरोह बन चुकी है जो लोगों को पीट-पीटकर भुरता बना देने के बाद उनसे 'वन्दे मातरम' बोलने को कहती है, आन्दोलनकारियों पर पत्थरबाजी करती है और विश्वविद्यालयों के कैम्पसों और पुस्तकालयों में घुसकर बर्बरता का नंगनाच करती है !
यानी जो अपराधियों का संगठित गिरोह था वह साम्प्रदायिक दंगाइयों का संगठित गिरोह भी बन चुका है ! एक फासिस्ट राज्यसत्ता को ऐसी ही पुलिस की ज़रूरत होती है ! बर्बर बल-प्रयोग के ऐसे उपकरण के बिना 'आतंक-राज' चल ही नहीं सकता !
(28फरवरी, 2020)
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