Friday, December 13, 2019


एक मित्र ने इनबॉक्स सन्देश दिया है कि इधर मैं अपनी कविताओं में लगातार सिर्फ़ फासिस्ट दमन और तानाशाही के बारे में ही लिख रही हूँ और यह कि लगातार अतिमुखर और सपाट राजनीतिक कविताएँ लिखते हुए अपनी प्रतिभा नष्ट कर रही हूँ और अपने "साहित्यिक कैरियर" का नुकसान कर रही हूँ और यूँ कि 'जल में रहकर मगरमच्छों से बैर भी पाल रही हूँ I' इसतरह की एकरसता मेरे लिए आत्मघाती है ! मुझे विविध विषयों पर लिखना चाहिए, तभी सुधी पाठकों और बड़े आलोचकों और बड़े कवियों का ध्यान जाएगा और मेरी कविताएँ चर्चित हो सकेंगी ! मित्र ने मुझे राजनीतिक मुखरता और "अतिकथन" और शब्दस्फीति से बचने का सुझाव दिया है !

मेरा विनम्र निवेदन है कि जब गलियों में लहू बह रहा हो और अत्याचार की अनवरत बारिश हो रही हो, तो कविता की बगिया को बहुरंगी फूलों से सजाने और सौन्दर्य के अमरत्व की ऋचाएँ रचने की जगह मैं चीखना पसंद करूँगी, दीवारों को पोस्टरों से पाटना पसंद करूँगी, धूल-राख, लपटों, अंधकार और खून के थक्कों से लिखना पसंद करूँगी और मज़दूरों की किसी बस्ती में जाकर जीवन और संघर्ष की बात कविता की भाषा में और कविता की बात जीवन और संघर्ष की भाषा में करना पसंद करूँगी ! जब कविता को रोटी, पर्चे, पोस्टर-बैनर की तरह ज़िंदगी की फ़ौरी ज़रूरत बनाने की ज़रूरत हो तो "कालजयी" क्लासिक रचने का सपना देखना एक क़िस्म की कमीनगी है ! कविता को ज़िंदगी की शर्तों पर चलना होता है, न कि ज़िंदगी को कविता की शर्तों पर !

दरियागंज के दलालों, सत्ता और पूँजी की अकादमियों के दारूकुट्टे कलावन्त 'प्रॉपर्टी डीलरों', इतिहास में अमर हो जाने को आतुर बौनों के गिरोहों और कायर-कुटिल-कपटी छद्म-वामपंथियों की मंडलियों में शामिल होने से लाख गुना बेहतर है देश के आम लोगों के साथ जीना-मरना, या फिर जेल की चक्की पीसना, या फिर न्याय की हारी हुई लड़ाई को लड़ते हुए मारा जाना ! क्योंकि , मेरा दृढ विश्वास है कि न्याय की किसी भी लड़ाई की हार अंतिम नहीं होती ! बर्बरों की कोई भी जीत अंतिम नहीं होती !

जब सड़कों पर उन्मादी भीड़ लोगों का पीछा कर रही हो और उन्हें ज़िंदा जला रही हो, जब न्याय का 'लोया' हो रहा हो और न्याय की देवी अपनी झीनी पट्टी के पीछे से सबकुछ देखते हुए डंडी मार रही हो और न्यायाधीशों के हथौड़े न्याय और विवेक की खोंपड़ियाँ तोड़ रहे हों, जब सत्ता में बैठे गुण्डे मानवाधिकार की नयी परिभाषा गढ़ रहे हों, जब देश के बड़े-बड़े भूभागों को बड़े-बड़े जेलखानों में बदला जा रहा हो, जब लाखों की आबादी को बन्दूक की नोक पर ज़मीन और जंगलों से दर-बदर किया जा रहा हो, जब खून सनी सडकों पर लाल कालीन बिछाकर देश की तरक्की दिखाने वाली रिपोर्टें तैयार की जा रही हों, जब मज़दूरों के सभी अधिकार छीन लिए गए हों और पंगु-भ्रष्ट-भंड़वा यूनियनें खर्राटा मारकर सो रही हों, जब देश एक मृत्यु-उपत्यका बन चुका हो, तो यह समय कविता का बारीक रेशमी सूत कातने का, विश्व-कवि बनने के लिए दुनिया भर की भाषाओं में अपनी कविताओं का अनुवाद कराने की जुगत भिड़ाने का, हवाई यात्राएँ करके भव्य वातानुकूलित सभागारों में महामहिमों की उपस्थिति में काव्य-पाठ करने के बाद तीन या पाँच सितारा होटलों के कमरों में 'शिवाज़ रीगल' की चुस्कियाँ लेने का, दोपहर की मीठी नींद लेने का और एक रस्मी मोमबत्ती जुलूस से वापस अपने अपार्टमेंट में लौटकर मद्धम रोशनी में आरामकुर्सी पर लेटकर कॉफ़ी पीते हुए बड़े गुलाम अली खाँ को सुनते हुए एक कालजयी कविता लिखने के बारे में सोचने का नहीं है ! अपनी इस बदनाम बदतमीज़ी के लिए मुझे किसी घाघ, दुनियादार से मुआफ़ी माँगने की भी ज़रूरत नहीं महसूस होती !

लोग अगर लोहे की दीवारों के पीछे क़ैद गहरी नींद सो रहे हैं, तो भी मैं लू शुन की सलाह पर अमल करते हुए लगातार आवाज़ लगाते रहना पसंद करूँगी, चिल्लाते रहना पसंद करूँगी ! ऐसी एक आवाज़ का अगर गला घोंट दिया जाएगा तो कई और ऐसी आवाजें पैदा हो जायेंगी !

"यदि कोई भौतिक शक्ति तुम्‍हारे पक्ष में नहीं खड़ी हो और कहीं भी कुछ बदलता न दीख रहा हो, न ही कुछ करना सम्‍भव दीख रहा हो, तो पूरी ताकत से आवाज लगाओ। ... कभी-कभी पहाड़ों में महज़ एक ज़ोरदार आवाज़ से ही हिमस्‍खलन की शुरुआत हो जाती है।"

मैं इनदिनों लगातार फासिज्म के विरोध में लिखी गयी ब्रेष्ट की कविताएँ पढ़ती हूँ, काल-कोठरी में लिखी गयी नाजिम हिकमत की प्रतिरोध कविताएँ पढ़ती हूँ, ईरान, फिलिस्तीन सीरिया और इराक़ की और अफ्रीका की प्रतिरोध कविताएँ पढ़ती हूँ और लातिन अमेरिका के उन योद्धा कवियों की कविताएँ पढ़ती हूँ, जिनमें से कइयों जेलों में यन्त्रणा देकर मार दिया गया या गोली से उड़ा दिया गया ! उनका जीवन खुद में एक कविता है ! उनसे सीखने के लिए कबूतर का नहीं, बाज का कलेजा चाहिए ! वह यश-पिपासु कलमघसीटों के पास नहीं होता, योद्धा कवियों के पास होता है !

(16अक्‍ट्रबर, 2019)

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