Monday, September 16, 2019


रीतिकाल से लेकर अज्ञेय की और अवा की मंडली के कवियों तक की कविताओं में स्त्री-सौन्दर्य का ऐन्द्रिक वर्णन करते हुए उसके नशे की बात की जाती रही है और स्त्रियों को हिरनी, हंसिनी आदि-आदि कहा जाता रहा है! फिलहाल रीतिकाल से लेकर छायावाद और प्रयोगवाद तथा अवा-उवा की नवरीतिकालीन कविताई के रूपकों-बिम्बों के पुरुषवादी पूर्वाग्रहों की मैं यहाँ चर्चा नहीं करने जा रही हूँ ! मैं तो दंग हूँ तीसरे सप्तक के कवि मदन वात्स्यायन की लोकगीत शैली का एक गीत पढ़कर जिसमें वह अपनी 'गोरी' को गेंहुअन साँप जैसा बताते हैं ! यानी नशे को वात्स्यायन जी ने मारक विष तक पहुँचा दिया I साँप वैसे मुझे भयंकर लगता है, एकदम गिनगिना देने वाला ! मुझे यह एक असंभव कल्पना लगती है कि प्रेमालिंगन को शरीर से साँप के लिपटने जैसा महसूस किया जाए ! मेरा ख़याल है कि जो लोग साँप को प्रकृति का सुन्दर जीव मानते हैं, वे भी अपने प्रेमी या प्रेमिका की गेहुँअन साँप के रूप में शायद ही कल्पना करते हों ! बहरहाल, मदनजी तो अपनी 'गोरी' को अंगों से लपट सरीखी लिपट जाने वाली मादा साँप के रूप में देखते हैं ! उनकी कविता इसप्रकार है :

गोरी मोरी गेहुँअन साँप महुर धर रे
गोरी मोरी गेहुँअन साँप...

फागुन चैत गुलाबी महीने
दोंगा पर आई जैसे चाँद
लहरे वात गात मद लहरे
गोरी मोरी गेहुँअन साँप

गोरे गात रश्मिवत पतरे
रेशमी केंचुल चमाचम
कबरी छत्र कुसुम चितकबरी
गोरी मोरी गेहुँअन साँप

टोना नैन तरंग अंग में
रोक ली रात मेरी राह
लिपट गई अंग अंग लपट सी
गोरी मोरी गेहुँअन साँप

अधर परस आकुल मन
मेरा आँगन घर न बुझाए
निशि नहिं नींद न जाग दिवस में
गोरी मोरी गेहुँअन साँप

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अगर प्रेमी या प्रेमिका की कल्पना गेहुँअन साँप के रूप में की जा सकती है तो फिर बिच्छू, कनखजूरे, छिपकिली या तिलचट्टे के रूप में क्यों नहीं की जा सकती ? मैं भी एक गीत लिखने की कोशिश में हूँ, जो कुछ इसप्रकार शुरू हो रहा है :

मैं बँसवारी का बिसकोपड़ा
गोरी मोर सहरी बिस्तुइया ...

कैसा रहेगा ? गाँवों में बिसकोपड़ा बँसवारी में रहने वाले ज़हरीले माने जाने वाले गिरगिट को कहते हैं और बिस्तुइया छिपकिली को कहते हैं -- यह जान लीजिये और मेरे गीत के पूरा होने का इंतज़ार कीजिए!

(4 सितम्‍बर, 2019)

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