Thursday, September 19, 2019

भाषा : कुछ विचार बिन्दु



भाषा के सवाल को 'सेण्टिमेण्टलाइज़' या 'रोमैण्टिसाइज़' नहीं किया जाना चाहिए।

'हाय हिन्दी', 'आह हिन्दी' करने से, या सतह के लक्षणों-परिघटनाओं को ज़ि‍म्मेदार ठहराने से हिन्दी का (या किसी भी भारतीय भाषा का) कुछ भी अला-भला नहीं होने का।

भाषा एक समाजेेतिहासिक परिघटना है। समाज अगर गतिरोध का शिकार है तो भाषा भी ठहराव और पतनशीलता का शिकार होगी। एक ऊर्जस्वी, ओजस्वी और गतिशील समाज में ही हम भाषा की ऊर्जस्विता, ओजस्विता और गतिशीलता की कल्पना कर सकते हैं।

अगर कोई जनद्रोही सत्ता भाषा की प्रगति के नाना उपक्रम संगठित करती है तो उल्टे वह भाषा को भी जनता से दूर करती जाती है, भाषा का कुलीनीकरण करती है और सत्तासेवी कुलीनों की एक कुत्ती-कमीनी जमात पैदा करती है।

सत्ता के संरक्षण-प्रोत्साहन से किसी भाषा का हित तभी हो सकता है, जब उत्पादन, समाज और राजकाज पर उत्पादन करने वाले काबिज हों, यानी सत्ता जनता की हो।

अंग्रेजी का प्रभुत्व इस देश में आज भी मज़़बूती से क़़ायम है। इसका पहला कारण यह है कि स्वाधीन भारत की नयी बुर्जुआ सत्ता ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद नहीं किया। इतिहास का प्रेत हमारे सिर पर सवार रहा।

दूसरा कारण यह है कि आम लोगों से दूर, और उनसे घृणा करने वाला जो उच्च कुलीन बौद्धिक समुदाय है, उसके सोचने और बरतने की भाषा अंग्रेज़़ी़ है। कुण्ठितमना आम मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा भी कुलीन बनने की बीमार चाहत में उसी अंग्रेज़ि‍यतपरस्त उच्च कुलीनों की बीमार नकल करता है।

तीसरा कारण यह है कि उच्च शिक्षा, प्रशासन और न्याय की भाषा अंग्रेजी बनी हुई है, क्योंकि सत्तातंत्र पर प्रभुवर्गों के एकाधिकार के लिए वह ज़रूरी है। जबतक यह स्थिति बनी रहेगी, तबतक भारतीय भाषाएँ दुरवस्था का शिकार बनी रहेंगी।

चौथा कारण यह है कि भूमण्डलीकरण के दौर में आंग्ल-अमेरिकी धुरी के वर्चस्व वाले विश्व पूँजीवाद के साथा भारतीय अर्थतंत्र के समेकित जुड़ाव ने भारत में अंग्रेजी के वर्चस्व को और अधिक मजबूत बनाया है।

पाँचवा कारण यह है कि एक बीमार और गतिरुद्ध समाज में भी जो जन-प्रतिबद्ध कवि-लेखक-बौद्धिक देशज भाषाओं को किसी हद तक ऊर्जस्वी बना सकते थे, उनका बड़ा हिस्सा छद्म-प्रगतिशील और सत्ताधर्मी है, कायर, सुविधाभोगी और कैरियरवादी है, या स्वयं ही अंग्रेज़ि‍यत की दास-वृत्ति का शिकार है।

(14सितम्बर, 2019)

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