Sunday, September 22, 2019


सामाजिक जनवाद और बुर्जुआ उदारतावाद जिस हद तक खाते-पीते मध्य वर्ग की स्वाभाविक वर्गीय प्रतिबद्धता होते हैं , उसी हद तक उसकी कायरता और स्वार्थपरता भी उसे इन विचारों के पीछे ले जा खड़ा करने में भूमिका निभाती है I

ये बुजदिल भलेमानस चाहते हैं कि समाज में सेकुलरिज्म आ जाये, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, गरीबी -- सब समाप्त हो जाए, न्याय का शासन आ जाये, फासिज़्म नेस्तनाबूद हो जाए, लेकिन इसके लिए उन्हें कोई जोखिम न मोल लेना पड़े, उन्हें किसी खतरे का सामना न करना पड़े I भरसक ये सारे काम किसी सामाजिक तूफ़ान के बिना ही, शांतिपूर्वक संपन्न हो जाने चाहिए -- ऐसी उनकी दिली ख्वाहिश होती है I

या फिर ये भलेमानस घंटी-सीटी-झंडी लेकर खेल के मैदान में किनारे बैठ जाते हैं और ठीक से "क्रान्ति का खेल" न खेलने के लिए खिलाड़ियों को कोसते रहते हैं ! क्रांतिकारियों को कोसना, नसीहतें देना और विरक्ति भरी उदासी में डूबे रहना इनका प्रिय शगल होता है I इन सबकी ज़िन्दगी में एक मुकाम आता है जब वे गँवारपन और जाहिलपन के लिए, और क्रान्ति करने के लिए निहायत नाक़ाबिल होने के लिए जनता को ही कोसने लगते हैं और अपनी उम्र और तजुर्बे की दुहाई देते हुए नौजवानों को समझाने लगते हैं कि अपने ज़माने में उन्होंने भी सबकुछ करके देख लिया था, इंक़लाब की कोई उम्मीद न तब थी, न अब है !

पहले ऐसे लोग बुढ़ापे में प्रायः किसी आश्रम या सत्संग में जाने लगते थे I आजकल अपने बच्चों के पास अमेरिका, इंगलैंड,कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि देशों को निकल लेते हैं, या फिर आवाजाही का सिलसिला बना लेते हैं !

(21सितम्‍बर, 2019) 

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