Monday, May 27, 2019


यह अगर फासिस्ट हत्यारों का एक सरगना नहीं होता तो गाँव के भकचोन्हर गपोड़ियों-गंजेड़ियों और कूपमंडूकों जैसा मनोरंजक प्राणी होता I लेकिन मत भूलिए कि इस भांड के चेहरे के पीछे एक ख़तरनाक षड्यंत्रकर्ता और ठंडा हत्यारा छिपा बैठा है जो पूँजी की सत्ता का एक मोहरा है ! यह भी मत भूलिए कि लोकतांत्रिक लबादा पहने इस महामूर्ख, लम्पट और स्वेच्छाचारी तानाशाह की आर्थिक नीतियाँ वे "सम्मानित" थिंक टैंक बनाते हैं जो पूँजीपतियों के भाड़े के टट्टू हैं, और यह भी मत भूलिए कि यह हत्यारा मंच पर जो राजनीतिक नाटक करता है उसका पटकथा-लेखन और निर्देशन नागपुर के संघ- शकुनियों की शीर्ष मंडली करती है ! अतिपतनशील पूँजीवाद की राजनीतिक संस्कृति के इस विदूषक प्रतीक-पुरुष का और इक्कीसवीं सदी के फासिज्म के इस सबसे प्रतिनिधि-चरित्र की खूब खिल्ली उड़ाइए, लेकिन इसके खतरनाक इरादों और खूँख्वार मंसूबों के कभी भी कम करके मत आँकिये !

चुनाव हारने के बाद, हो सकता है कि फासिस्ट रणनीतिकारों का शीर्ष गिरोह गुजरात के इस कसाई और तड़ीपार की जोड़ी की जगह कोई और चेहरा आगे करें, पर वे अपनी खूनी, विभाजनकारी, साज़िशाना कार्रवाइयाँ जारी रखेंगे I राजनीतिक पटल पर फासीवाद अपनी पूरी ताक़त के साथ मौजूद रहेगा क्योंकि नवउदारवादी नीतियों और असाध्य ढाँचाग़त आर्थिक संकट के अनुत्क्रमणीय दौर में पूँजीपति वर्ग ज़ंजीर से बंधे कुत्ते की तरह फासिस्ट विकल्प को हमेशा अपने पास बनाए रखेगा ! फासिज्म को चुनावों में हराकर शिकस्त नहीं दिया जा सकता I उसे सड़कों की जुझारू लड़ाई में पीछे धकेलना होगा और फिर अंतिम तौर पर ठिकाने लगाना होगा ! जो लोग फासिज्म-विरोधी संघर्ष को पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष के अविभाज्य अंग के रूप में नहीं देखते और सारे संघर्ष को बुर्जुआ लोकतंत्र और संविधान बचाने की रट लगाते हुए, तथा राष्ट्रीय और क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों के साथ किसिम-किसिम के चुनावी मोर्चा बनाने में "चाणक्य" की भूमिका निभाते हुए बुर्जुआ जनवाद के दायरे तक ही सीमित कर देते हैं वे सभी या तो कायर और पराजितमना, या निहायत शातिर क़िस्म के बुर्जुआ लिबरल और सोशल डेमोक्रेट्स हैं जो इस व्यवस्था की दूसरी-तीसरी सुरक्षा-पंक्ति का काम करते हैं I ये लोग जन-समुदाय की क्रांतिकारी चौकसी को कमज़ोर करते हैं, फासिज्म-विरोधी दीर्घकालिक संघर्ष की चुनौतीपूर्ण तैयारियों के प्रति उसे लापरवाह और अनमना बनाते हैं, तथा, उसकी क्रांतिकारी संकल्प-शक्ति को ढीला करते हैं ! ये संसदमार्गी छद्म-वामपंथी जड़वामन अपनी पुछल्लापंथी नीतियों की कीमत बंगाल में चुका रहे हैं I देश के स्तर पर तो मेहनतक़शों ने इन्हें एक विकल्प के रूप में देखना दशकों पहले बंद कर दिया था ! अब इनसे यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि ये हिटलर-मुसोलिनी-तोजो के वंशजों से उसीतरह आर-पार की लड़ाई लड़ सकते हैं जैसे बीसवीं सदी के सर्वहारा योद्धाओं और कम्युनिस्टों ने लड़ी थी ! हाँ, ये हँसिया-हथौड़े वाला झंडा फिर भी उड़ाते रहेंगे और अपने घरों और ऑफिसों की दीवारों पर मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्तालिन के चित्र लटकाते रहेंगे क्योंकि वही तो इनकी वह पहचान है जिसके बूते इनकी झोली में मज़दूरों के भी कुछ वोट पड़ जाते हैं और यूनियनों की इनकी दूकानदारी भी चलती रहती है Iअन्यथा इनका मार्क्सवाद, इनकी प्रतिबद्धता, इनकी कुर्बानियों का जज़्बा और लड़ने की संकल्प-शक्ति तो ज़माने पहले तेल लेने चली गयी थी !

(15मई, 2019)

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