Saturday, November 24, 2018

सत्ता के संस्कृति प्रतिष्ठानों के तमाम "वामपंथी" घुसपैठियों को...

सत्ता के संस्कृति प्रतिष्ठानों के तमाम "वामपंथी" घुसपैठियों को...

समय कुछ ऐसा है कि

कुछ कवि-लेखक-आलोचक

इतने बड़े, इतने बड़े हो गए हैं,

ऐसी ऊँचाइयों तक ऊपर उठ गए है कि

परिभाषाओं और श्रेणियों का अतिक्रमण कर गए हैं

और सत्तासीन फासिस्ट हत्यारे भी मज़बूर हो गए हैं

उनका क़ायल हो जाने के लिए

और उन्हें सम्मानित-पुरस्कृत करने के लिए !

ऐसे कवि-लेखक जब जुटते हैं संगोष्ठियों में

तो अक्सर ऐसा भ्रम हो जाता है कि

माता का जगराता हो रहा है

और कभी-कभी इंक़लाबी जोश में भरकर

जब वे 'लाल सलाम' बोलते हैं

तो उसमें 'जय श्रीराम' की अनुगूँज

सुनाई देती है !
.
(सत्ता के संस्कृति प्रतिष्ठानों के तमाम "वामपंथी" घुसपैठियों को, और विशेष तौर पर, नीतीश कुमार की पार्टी से राज्यसभा में पहुँचे पुराने "समाजवादी" पत्रकार हरिवंश के घनिष्ठ मित्र "वामपंथी" आलोचक रविभूषणजी को सादर समर्पित, जिन्होंने पदीदउ के 'एकात्म मानववाद' में कुछ दिनों पहले प्रगतिशीलता के तत्व ढूँढ निकाले थे )

(23नवम्‍बर,2018)

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