Sunday, September 23, 2018

'पाखी-प्रसंग'

'पाखी-प्रसंग' ज़रा भी अप्रत्याशित नहीं है I यह साहित्यिक दुनिया में गहराई तक व्याप्त व्याधि की मात्र एक अभिव्यक्ति है, पानी पर तैरते आइसबर्ग का मात्र ऊपर दिखाई देने वाला टिप है I ऐसे षड्यंत्र, कुत्सा-प्रचार और चरित्र-हनन साहित्यिक बैठकियों में तो होते ही रहे हैं I इसबार साक्षात्कार छापकर हुआ है I हिन्दी साहित्य की दुनिया इनदिनों सत्तालोलुप, यशकामी वीर बालकों, लम्पटों-लफंगों, व्यभिचारियों, अवसरवादियों, दलालों, ब्लैकमेलरों और शातिर बदमाशों से भरी पड़ी है और इनमें छद्म-वामपंथी बहुतायत में हैं I कुछ चेहरे खुले में आ गए हैं, कुछ अभी परदे में हैं और कुछ लम्पट छद्मवेशियों के बारे में जानते हुए भी लोग नहीं बोलते I साहित्यिक जगत में ऐसे कायर तटस्थ भी कम नहीं हैं I
जनता और जनता के संघर्षों से इन धंधेबाजों को कुछ भी लेना-देना नहीं होता I वह समय भी कभी आएगा जब जनता ऐसे साहित्यिक बदमाशों को सड़कों पर दौड़ा-दौड़ाकर पीटेगी I मौक़ा लगा तो हम भी अपने हाथों की खुजली मिटा लेंगे I

No comments:

Post a Comment