Sunday, December 03, 2017



"सुना है पहले भी ऐसे में बुझ गए हैं चिराग़
दिलों की ख़ैर मनाओ बड़ी उदास है रात"
(फ़िराक़ गोरखपुरी)


दीपावली की शुभकामनाएँ एक अनचाही बारिश की तरह बरस रही हैं। मैं किसी को शुभकामना नहीं दे पा रही हूँ। पूरा देश जैसे एक गहरी काली, उदास रात से होकर गुजर रहा है। 'भात-भात' की रट लगाए मर जाने वाली सिमडेगा की उस भूखी बच्ची की और उसकी बेबस माँ की याद ज़ेहन से जाती नहीं। ढाई साल की वह बच्ची भी रह-रहकर याद आती है, बलात्कार करने के बाद किसी वहशी ने जिसकी हत्या कर दी। आप कहेंगे कि ये घटनाएँ और बर्बरता की तमाम घटनाएँ तो रोज़-रोज़ घट रही हैं, तो क्या खुशिओं के चंद विरल दिनों और बहानों को भी अलविदा कह दिया जाए? बात तो ठीक है, लेकिन ऐन ऐसे समय में रोंगटे खड़े कर देने वाली कोई एक ख़ास घटना जब जानकारी में आती है तो होली-दीपावली भी श्मशान में जश्न मनाने जैसा तो लगने ही लगता है। देश एक मृत्यु-उपत्यका बन चुका है। इसे ज़िंदगी का निवास बनाने के लिए अभी काफ़ी कठिन और लंबी लड़ाई लड़नी होगी। हारकर बैठ जाना मृत्यु की अभ्यर्थना होगी या फिर यातना के सागर में स्वार्थों के द्वीप पर भरपूर कमीनगी के साथ जीना और जश्न मनाना।

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