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कल एक शुभचिंतक साहित्यकार ने ढेरों ज़रूरी सलाहें दीं, पूरा हितोपदेश ही सुना डाला। उनके कहे का निचोड़ यह था कि मगरमच्छों से बैर लेकर पानी में नहीं रहा जा सकता। अपने लेखन से चौतरफा वार करके ज़्यादातर लोगों को कुपित नहीं करना चाहिए। हमेशा 'पोलेमिकल' और आलोचनात्मक लिखने की जगह 'पाज़िटिवली' लिखना चाहिए। सामान्य भाषा में मुद्दों पर बात करनी चाहिए। ज्यादा शुद्धतावादी नहीं होना चाहिए। साहित्य और जीवन की बुराइयाँ लिखने से दूर नहीं होने वाली, इसलिए नाहक लोगों से बैर नहीं लेना चाहिए। ज़माने की हवा देखकर चलना चाहिए। संपादकों और आलोचकों से जीवंत संपर्क बनाए रखना चाहिए और रचनाकारों की रचनाओं की रस्मी प्रशंसा करते रहना चाहिए।
मेरे प्रतिवाद से मेरे वह शुभचिंतक थोड़ा नाराज़ हुए और निराश भी। मैंने उन्हें स्पष्ट कर दिया कि मगरमच्छों वाला वह गंदा तालाब कभी मेरा रहवास नहीं हो सकता। और मगरमच्छ जब भी धूप सेंकने या चहलकदमी करने बाहर आएंगे तो मैं उन्हें लाठी मारूँगी ही। साहित्य में स्थापित होना मेरा उद्देश्य है ही नहीं, फिर मैं आलोचकों और संपादकों की लल्लोचप्पो भला क्यों करूँ? बिन मांगे मैं पत्रिकाओं को रचनाएँ भेजने का भी काम नहीं करती, पुस्तक छपाने की सोचती भी नहीं। साहित्य मेरे लिए विचारधारात्मक वर्ग-संघर्ष का एक क्षेत्र है और अपनी सक्रियता के मुख्य क्षेत्र से कभी-कभार समय निकालकर इस क्षेत्र में भी दखल देती रहती हूँ। फिर मैं महामहिमों की परवाह क्यों करूँ? वैसे भी सोशल मीडिया के जरिये शायद किसी साहित्यिक पत्रिका के मुक़ाबले आज शायद ज़्यादा लोगों तक अपनी बातें पहुंचाई जा सकती हैं।
कला-साहित्य-संस्कृति की दुनिया में छद्मों और विजातीय प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष एक ज़रूरी कार्यभार है। विचारधारात्मक मामलों में कोई नरमी या उदारता नहीं बरती जा सकती। सोशल डेमोक्रेसी और लिबरलिज़्म के प्रति कोई भ्रम पालना आत्मघाती होगा, इतिहास का यही सबक है। उसूली मामलों में यदि हम दृढ़ हैं तो दुनियादारी, व्यावहारिकता या रणकौशल की आड़ लेकर ज़िंदगी और व्यवहार में समझौता करने की कोशिश नहीं करेंगे।
कोई भी संघर्ष ऐसा नहीं हो सकता जिसमें जोखिम और खतरे न हों। अगर आप जोखिम मोल लेने को तैयार नहीं तो उधर किनारे बैठिए "भद्र नागरिक" की तरह, झूठ-मूठ के सूरमा का शिरस्त्राण-कवच पहनकर, खाली-पीली नौटंकी करके लोगों को भ्रम में क्यों डालते रहते हैं?
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