Friday, April 15, 2016

राहुल सांकृत्यायन के उद्धरण...



हमारे सामने जो मार्ग है, उसका कितना ही भाग बीत चुका है, कुछ हमारे सामने है और अधिक आगे आने वाला है। बीते हुए से हम सहायता लेते हैं, आत्मविश्वास प्राप्त करते हैं, लेकिन बीते की ओर लौटना -- यह प्रगति नहीं, प्रतिगति -- पीछे लौटना -- होगी। हम लौट तो सकते नहीं, क्योंकि अतीत को वर्तमान बनाना प्रकृति ने हमारे हाथ में नहीं दे रखा है।

*****


अपनी राजनीतिक समस्‍याओं का हल धर्मों में खोजना भारी गलती है। धार्मिक विचारों के लिए स्‍वतंत्रता भले ही रहे, लेकिन राजनीति में धर्म का दखल बहुत ही हानिकारक बात है।

*****


असल बात तो यह है कि मजहब तो है सिखाता आपस में बैर रखना, भाई को है सिखाता भाई का खून पीना। हिन्‍दुस्‍तानियों की एकता मजहब के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मजहबों की चिता पर होगी। कौवे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली को धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मजहबों की बीमारी स्‍वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहींं।

*****


यदि जनबल पर विश्‍वास है तो हमें निराश होने की आवश्‍यकता नहीं है। जनता की दुर्दम्‍य शक्ति ने फासिज्‍म की काली घटाओं में आशा के विद्युत का संचार किया है। वही अमोघ शक्ति हमारे भविष्‍य की भी गारण्‍टी है।

*****


'इतिहस-इतिहास'... 'संस्‍कृति-संस्‍कृति' बहुत चिल्‍लया जाता है। मालूम होता है, इतिहास और संस्‍कृति सिर्फ मधुर और सुखमय चीजें थीं। पच्‍चीसों बरस के हमारे समाज का तजरबा हमें भी तो है। यही तो भविष्‍य की संतानों का इतिहास बनेगा! आज जो अँधेर हम देख रहे हैं, क्‍या हजार साल पहले वह आज से कम था? हमारा इतिहास तो राजाओं और पुरोहितों का इतिहास है, जो कि आज कि तरह उस ज़मानेे में भी मौज उड़ाया करते थे।

*****


अपने प्राचीन काल के गर्व के कारण हम अपने भूत के स्‍नेह में कड़ाई से बँध जाते हैं और इससे हमें उत्‍तेजना मिलती है कि अपने पूर्वजों की धार्मिक बातों को आँँख मूँदकर मानने के लिए तैयार हो जायें। बारूद और उड़नखटोला में तो झूठ-साँँच पकड़ने की गुंजाइश है, लेकिन धार्मिक क्षेत्र में तो अँँधेरे में काली बिल्‍ली देखने के लिए हरेक आदमी स्‍वतंत्र है। न तो यहां सोलहों आना बत्‍तीसों रत्‍ती ठीक-ठीक तोलने के लिए कोई तुला है और न झूठ-साँँच की कोई पक्‍की कसौटी।    


No comments:

Post a Comment