Friday, February 05, 2016

कविताई का हुनर

कविताई का हुनर
वह कठिन समय का जलता सच था।
गंध चिरांयध फैल रही थी
लाशों की बदबू फैली थी
आसपास उन्मादी नारे गूँज रहे थे।
मैंने इस सच को कविता में रखना चाहा।
हृदय व्यग्र था, उत्तेजित था।
कविता बनी, मगर कविता में
कविता कम थी, सच्चाई का
सीधे-सीधे कथन अधिक था।
कवि ने देखा, मुँह बिचकाया
धिक्कारा उसने, ''ऐसे कैसे सुकवि बनोगी?
तुम सब गुड़गोबर कर दोगी।''
कवि ने फिर कविताई का जौहर दिखलाया
झालर-फुँदनों से सच को ही ढँक डाला।
बोली मैं, ''कवि जी, यह कविता पास रखो तुम
काम आयेगी, चर्चा होगी और
बहुत सम्मान मिलेगा।
समय मिला तो हम भी माँजेंगे कविताई
लेकिन अभी ज़रूरत जैसी,
कम कविता और ज्यादा सच से
अपना काम चला लेंगे हम।''
अच्छी होती है कविताई,
दुर्लभ गुण है, लेकिन ऐसे कठिन समय में
सच्चाई और कविताई में चुनना ही हो
अगर हमें तो
सच्चाई को हम चुन लेंगे।
समय मिलेगा अगर कभी तो
कविता की बहुरंगी चादर भी बुन लेंगे।
(5फरवरी, 2016)

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