Tuesday, December 03, 2013

फेसबुक के बारे में चलते-चलाते कुछ 'इम्‍प्रेशंस':




-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

फेसबुक की 'वर्चुअल' दुनिया जहाँ तक 'रीयल' दुनिया  का प्रतिबिम्‍बन है और 'रीयल' दुनिया में सार्थक सामाजिक-सांस्‍कृतिक रूप से सक्रिय लोगों के बीच संवाद-संबंद्ध का माध्‍यम है, वहाँ तक तो इस 'स्‍पेस' के इस्‍तेमाल की सार्थकता समझ में आती है, बाकी सबकुछ निरर्थक प्रतीत होता है।

(1) बहुत सारे लोग फेसबुक पर बहुत सारा समय खपाकर राजनीति-साहित्‍य-समाज के बारे में अपनी दिवालिया समझ का जो प्रदर्शन करते रहते हैं, उसका छोटा सा हिस्‍सा भी वे देश-दुनिया, इतिहास और साहित्‍य-सैद्धांतिकी के अध्‍ययन पर ख़र्च करते तो हिन्‍दी समाज का बहुत भला होता।

(2) दो-दो लाइन के शेरों, घटिया ग़ज़लों से फेसबुक भरा रहता है। सस्‍ती तुकबंदियों और कवितानुमा लाइनों की भरमार रहती है। नाम में ही 'कवि' जोड़े हुए फेसबुकियों की भरमार है। ये सारे साहित्‍याकांक्षी गणों को एक अतिविनम्र सुझाव है कि उन्‍हें विश्‍व के कुछ प्रसिद्ध कवियों को पढ़ना चाहिए, निराला, प्रसाद, पंत, मुक्तिबोध, शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार आदि को पढ़ना चाहिए, अग्रणी सम‍कालीन कवियों को पढ़ना चाहिए और साहित्‍य-सैद्धांतिकी पढ़नी चाहिए। हिन्‍दी कविता की स्थिति इतनी बुरी भी नहीं है कि चार लाइनें जोड़तोड़कर कोई भी गण्‍यमान्‍य बन जाये। खूब लिखिये, आपको अपने मन की कहने की आज़ादी है, पर  उसे डायरी में लिखकर अपने घरवालों और दोस्‍तों को सुनाइये। फेसबुक एक सार्वजनिक स्‍पेस है। वहाँ अपनी भँड़ास निकालकर बहुत सारे लोगों का समय खाने और उन्‍हें बोर करने का काम ठीक नहीं  है।

(3) और कुछ लोग तो बस यही बयान करने में रहते हैं कि इस समय उनके दिल पर क्‍या गु़ज़र रही है! उदासी, बेवफ़ाई, यादें, तनहाइयाँ -- वास्‍तविक दुनिया में तो सुनाने को कोई दोस्‍त है नहीं, किसी के पास फुर्सत है नहीं, सो फेसबुक पर ही सबकुछ उड़ेलकर रख देते हैं, खोमचा लगाकर बैठ जाते हैं अपनी निजी अनुभूतियों-भावनाओं का। ख़ैर, इससे यह तो पता चलता ही है कि समाज में 'एलि‍यनेशन' कितना बढ़ गया है! कुछ बोर होते, निरर्थक बैठे लोग दिनों-रात फेसबु‍क पर बैठे अपनी दिनचर्या बयान करते रहते हैं, 'शुभ प्रभात' बोलने से 'शुभ रात्रि' बोलने तक! यह भी बताते रहते हैं कि उनके बच्‍चे के कितने दाँत निकले! अरे, किसकी दिलचस्‍पी है! अपने परिजनों-मित्रों को चाय पर बुलाकर बताइये न! आप कहाँ जा रहे है कहाँ से आ रहे हैं, इसमें किसकी दिलचस्‍पी है? यदि सम्‍भव हो तो छायाचित्रों सहित कोई अच्‍छा-सा यात्रा-वृत्‍तांत लि‍खिये! वह ज़रूर बहुतों के लिए उपयोगी होगा।

(4) कुछ लोग  न जाने क्‍यों अपनी या अपनी पत्‍नी की या बच्‍चों की तस्‍वीरें ही समय-समय पर अलग-अलग अदाओं में प्रस्‍तुत करते हैं। कुछ स्त्रियाँ भी फेसबुक पर बस तरह-तरह की ''लुभावनी'' और नयी-नयी अदायें दिखाने में ही मशग़ूल रहती हैं। ग़जब की आत्‍मुग्‍धता और प्रदर्शनधर्मिता का धकापेल मचा रहता है। घर मित्रों को बुलाकर अलबम दिखा लीजिये। फेसबुक पर तो जो आपके सीधे मित्र नहीं हैं, उन्‍हें भी क्‍यों बोर करतीं/करते हैं! कुछ स्त्रियाँ बस अपनी भाँति-भाँति की तस्‍वीरें पोस्‍ट करती रहती हैं और कुछ पुरुष बस इसीलिए फेसबुक पर मौज़ूद रहते हैं कि ऐसी अदाएँ देखते ही 'हाय! ग़जब!' टाइप कमेण्‍ट पोस्‍ट कर दें।

(5) बुर्ज़ुआ समाज में वास्‍तविक दुनिया में मित्रता और लगाव का स्‍पेस सिकुड़ता जा रहा है, फलत: थके-हारे अवसादग्रस्‍त-अलगावग्रस्‍त लोग या ख़ाली बैठे लोग आभासी दुनिया को ही भाव-प्रकटन के लिए अपना शरण्‍य बना रहे हैं और मानवीय नैकट्य के मिथ्‍याभास में जी रहे हैं।

(6) फेसबुक मुख्‍य मीडिया द्वारा दबाई सूचनाओं को फैलाकर, दुनिया भर से उन्‍हें छाँट-बटोरकर प्राय: वैकल्पिक मीडिया का काम करता है। यह कई बार सार्थक बहस और समान विचार के लोगों के बीच संवाद और परिचय का अच्‍छा माध्‍यम भी बनता है। दूसरी ओर, यह समाज को एक मिथ्‍याभास भी दे रहा है, 'वर्चुअल' को 'रीयल' का स्‍थानापन्‍न बना रहा है। फिलहाल, जनपक्षधर विचारों की अपेक्षा बुर्ज़ुआ विचारों और कूपमण्‍डूकता का फैलाव ही फेसबुक पर ज्‍़यादा दीखता है।

(7) तर्कशील, प्रगतिकामी, समाज-सम्‍पृक्‍त जनों को विशेष कोशिश करनी चाहिए कि फेसबुक सार्थक विचारों के विनिमय और संवाद के मंच के रूप में ज्‍़यादा से ज्‍़यादा प्रभावी भूमिका निभाये। भारतीय समाज को आज संजीदा वैचारिक-सांस्‍कृतिक माहौल की सख्‍़त ज़रूरत है। भँड़ास निकालने, आत्‍ममुग्‍धता-प्रदर्शन, खिलंदड़ेपन और सतही भावुकता के घटाटोप से फेसबुक का फेस ही भोंड़ा-भद्दा लगने लगता है।
यह एक विनम्र निवेदन है। कृपया कोई अन्‍यथा न ले। 

8 comments:

  1. चुप्पी से तो प्रलाप ही बेहतर है। लोग लिखना पढ़ना बोलना सीखें यह भी ज़रूरी है। क्रमशः विकसित होने दीजिये। दिशाहीनता भी सही दिशा कि ओर जा सकती है। इतना निराशावादी होना भी ठीक नहीं।

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    1. चुप्पी और प्रलाप से अलग कुछ और भी होता है मिश्रा जी जिसे रचनात्मकता कहते हैं.…।

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  2. बढियां विवचारपूर्ण विवेचन

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  3. पर उपदेश कुशल बहुतेरे ..

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  4. आपने कुछ बातें सही लिखी हैं .मगर इसका प्रभाव किसी पर नहीं पड़ेगा .आपकी बातो से अहंकार और दूसरों को तुच्छ समझने की प्रवृति झलक रही है .आपकी नैतिकता अहंकार से उपजी हुई होती है जिसके भीतर अनैतिकता और एकाधिकार की गुप्त अभिलाषा छुपी होती है . निराला को आप पढने की सलाह देती है जो 'शिवाजी के नाम पत्र' नामक कविता में मुसलमानों को गाली की भाषा में वर्णित करता है .सरस्वती वंदना जैसी धार्मिक कवितायेँ लिखता है .मार्क्सवाद पर उपदेश देना आपका कैरियर है लगता है .आपकी समझ भी रूमानी है .फेसबुक एक पूंजीवादी प्रकल्प है जिसका घोषित उद्देश्य यही 'गपशप' है जिससे आपको इतनी कोफ़्त हो रही है .आप फेसबुक का पब्लिक डॉक्यूमेंट पढ़ लें . इस तरह की मुर्ख अपेक्षाएं आपके अहंकार से उपजी काल्पनिक समझ के कारण है .सचमुच कुछ सकारात्मक करना है तो पहले इस उन्नासिक घमंडी दृष्टिभंगी को त्यागे .आलोचना के प्रति सहिष्णुता रखें . दूसरों को नीच समझना बंद करे .अपने कमियों पर ध्यान दें दूसरों की कमियों के साथ साथ .आत्मालोचना और आत्मसंघर्ष द्वारा सच्चा परिवर्तनकामी हुआ जा सकता है .मै उपदेश दे रही हूँ तो बुरा लग रहा होगा .ऐसे ही सबको बुरा लगता है .अहंकार और उपदेश से मुक्त हो .अवधू सहज समाधि भली .अपनी सवर्ण मानसिकता से बाहर आयें .बातो से लग रहा है कि आप सवर्ण है आपने जितने कवियों के नाम को उद्धृत किया है सभी सवर्ण है और उसमे भी ज्यादातर ब्राह्मण !

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  5. हाय ! क्या अदाएं है !!अप्रूवल का भी चक्कर है .गया मेहनत पानी में .लिखना ही नहीं था कमबख्त !

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  6. एक कहावत है की कुछ ना करना भी एक काम है।
    दूसरों की किसी भी कृत्य को सिर्फ निंदा करना ठीक नहीं है ।कविता जी!
    फेसबुक के माध्यम से तमाम ऐसे लोग भी सुचना कर्न्ति के वाहक बन सके जिन्हें इसके बारे में कुछ भी नहीं आता था ।जैसे किसी ज़माने में लोग ये कहते थे की काला आक्षर भैस बराबर है।

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  7. कुछ बातें अच्छी लगीं।

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