Tuesday, December 03, 2013

तरुण तेजपाल प्रकरण: एक विश्‍लेषण






-कविता कृष्‍णपल्‍लवी


अपने प्रतिष्‍ठान की मुलाजिम स्‍त्री पत्रकार के साथ तरुण तेजपाल द्वारा यौन-हिंसा के कुकृत्‍य ने तहलका-ब्राण्‍ड पत्रकारिता के चरित्र और भूमिका पर भी गम्‍भीर चर्चा की ज़रूरत पैदा कर दी है। 

यौन हिंसा प्रकरण पर मीडियाई बाज़ारू शोरगुल और सनसनीखेज रहस्‍योद्घाटन का सिलसिला अब कुछ मद्धम पड़ रहा है। अब संज़ीदगी से इसपर कुछ बातें हो सकती हैं।

तरुण तेजपाल कोई क्रान्तिकारी पत्रकार नहीं थे। उनकी खोजी पत्रकारिता यदि मात्र नेताओं और पार्टियों का भण्‍डाफोड़ करने के चलते प्रगतिशील मान ली जाये तो उन सारी बम्‍बइया मसाला फिल्‍मों को भी पक्षधर मानना पड़ेगा, जो नेताओं-गुण्‍डों के गठजोड़ को और नेताओं के भ्रष्‍टाचार को आये दिन अपना विषय बनाया करती हैं। तरुण की खोजी पत्रकारिता का रैडिकल तेवर 'मार्केटिंग स्‍ट्रैटेजी' का एक हिस्‍सा था। इस प्रकार का रैडिकल तेवर पाठक/दर्शक के लिए एक सनसनीखेज मनोरंजन मात्र होता है। वह वही देखता है जो उसे पता है। उसका प्रमाण पाकर वह संतुष्‍ट होता है और उसका निष्क्रिय गुस्‍सा थोड़ा शान्‍त होता है। ऐसी रैडिकल बुर्ज़ुआ पत्रकारिता व्‍यक्तियों या चन्‍द पार्टियों को टारगेट करती है, पूरी व्‍यवस्‍था को नहीं। भाजपा के लोगों के दंगा भड़काने की कार्रवाइयाँ या उनके नेताओं के दुरंगे भष्‍टाचार को टारगेट करती हैं, उनकी पूरी फासीवादी परियोजना को नहीं। बुर्ज़ुआ जनवाद मीडिया के दायरे में हर ऐसे विरोधी स्‍वर या आलोचनात्‍मक स्‍वर की सहर्ष अनुमति देता है, या कम से कम, उसे बर्दाश्‍त करता है जो पूरी व्‍यवस्‍था को ही कठघरे में नहीं खड़ा करता, उसकी वैधता पर ही प्रश्‍न नहीं उठाता। यह याद रखना होगा कि पूँजीवादी व्‍यवस्‍था का मीडिया केवल 'कंसेण्‍ट मैन्‍यूफैक्‍चरिंग' का ही काम नही करता, बल्कि व्‍यवस्‍था के चौहद्दी के भीतर 'डिस्‍सेण्‍ट मैन्‍युफैक्‍चरिंग' का भी काम करता है। तेजपाली पत्रकारिता भी अपने तमाम रैडिकल तेवरों के साथ इसी व्‍यवस्‍था के चाक दामन के रफूगरी का ही काम करती है।महज भाजपाई राजनीति का विरोध  किसी को प्रगतिशील नहीं बना देता। बहुत सारे बुर्ज़ुआ जनवादी सुधारवादी और बुर्ज़ुआ बौद्धिक प्रतिष्‍ठानों के सिरमौर हैं जो भाजपा या किसी भी प्रकार के फासीवाद के विरोधी हैं। कुछ चैनल और पत्र-पत्रिकाएँ ऐसी हैं जिन्‍होंने अपनी सामग्री के 'टारगेट कन्‍ज्‍यूमर' के रूप में समाज के उस सुधारेच्‍छुक, व्‍यवस्‍था से क्षुब्‍ध (पर आमूल बदलाव के प्रति निराश या असहमत) और कुछ सेक्‍युलर-प्रबुद्ध नागरिक को चुना है, जो या तो सामाजिक रूप से निष्क्रिय होता है या भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध जंतर-मंतर पहुँचकर, 16दिसम्‍बर की घटना पर इण्डिया गेट पर मोमबत्तियाँ जलाकर या फेसबुक पर सरकार को कोसकर अपनी कर्तव्‍य-पूर्ति के प्रति आश्‍वस्‍त हो जाता है। समाज के ऐसे ही लोगों को 'तहलका' की पत्रकारिता में प्रगतिशीलता दिखती है। 

तरुण तेजपाल पहले एक पत्रकार थे, जिन्‍होंने फिर 'तहलका' को स्‍वतंत्र प्रतिष्‍ठान बनाया। अख़बार मालिकों के अंकुश से मुक्ति के लिए यदि कोई पत्रकार स्‍वयं एक व्‍यावसायिक प्रतिष्‍ठान 'कम्‍पनी' बनाकर अपना अख़बार निकालेगा तो वह वैकल्पिक जन-मीडिया का हिस्‍सा नहीं बनेगा, बल्कि कालांतर में पूँजी और बाज़ार का तर्क़ खुद उसी को अपना ग़ुलाम बना लेगा। आज से डेढ़ सौ वर्षों पहले पत्र-पत्रिकाओं की स्‍वंतत्रता पर ब्रिटेन में जारी वाद-विवाद में हिस्‍सा लेते हुए मार्क्‍स ने यह विचार रखा था कि पूँजीवादी समाज में पत्र-पत्रिकाओं की स्‍वतंत्रता व्‍यवसाय की स्‍वतंत्रता से अधिक कुछ भी नहीं रह जाती। ''व्‍यवसाय की स्‍वतंत्रता, सम्‍पत्ति, अन्‍त:करण, पत्र-पत्रिकाओं, न्‍यायालयों की स्‍वतंत्रता -- ये सब एक ही जाति के, यानी नामरहित सामान्‍य स्‍वतंत्रता के विभिन्‍न रूप हैं।'' ...''व्‍यवसाय की स्‍वतंत्रता ठीक व्‍यवसाय की स्‍वतंत्रता है, और कोई स्‍वतंत्रता नहीं, इसलिए कि उसके अन्‍तर्गत व्‍यवसाय का स्‍वरूप अपने जीवन के आन्‍तरिक सिद्धान्‍त के अनुसार निर्बाध रूप से विकसित होता है।''-(कार्ल मार्क्‍स)

तरुण तेजपाल के सामने दो रास्‍ते थे। या तो किसी पत्र-पत्रिका के मुलाजिम बने रहते या कम्‍पनी बनाकर, शेयर जुटाकर, ठोस 'मार्केटिंग स्‍ट्रैटेजी' बनाकर खुद ही पत्र-पत्रिका के मालिक बन जाते। पहली स्थिति में वे एक बौद्धिक उजरती गुलाम होते और दूसरी स्थिति में एक पूँजी प्रतिष्‍ठान के स्‍वामी। उन्‍होंने दूसरा रास्‍ता चुना और उस स्थिति में उनका पेशेवर और व्‍यक्तिगत जीवन मीडिया व्‍यवसाय के आन्‍तरिक नियमों से अनुकूलित-संचालित होने लगा। और कुछ हो भी नहीं सकता था। अब वे पहले एक कारोबारी थे, पत्रकार नहीं। खोजी पत्रकारिता उनका कारोबार था। तथाकथित रैडिकलिज्‍़म उनका मुखौटा था। बेशक़ 'तहलका' में ऐसे विभ्रमग्रस्‍त युवा पत्रकार भी हैं, जो समझते हैं कि वे किसी बड़े सामाजिक मिशन को अंजाम दे रहे हैं। उनके बारे में बस कवि मनमोहन की डायरी के ये शब्‍द ही पर्याप्‍त है: ''किसी भी कुटिल परियोजना को सफल बनाने में बहुत से प्रतिभाशाली, शरीफ, भले और भोले लोगों का योगदान रहता है।''

कार्ल मार्क्‍स ने स्‍पष्‍ट लिखा है: ''पत्र-पत्रिकाओं की मुख्‍य स्‍वतंत्रता व्‍यवसाय न होने में निहित है।'' यानी बाज़ार के तर्क़ से अलग जनता से संसाधन जुटाकर, सुनिश्चित साझा प्रतिबद्धता वाले लोगों द्वारा, मालिक या वेतनभोगी के रूप में नहीं, बल्कि प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में की जाने वाली पत्रकारिता ही पूँजी और बाज़ार के तर्क से वास्‍तव में स्‍वतंत्र हो सकती है। तेजपाल का न तो यह मक़सद था, न ही उनके पास ऐसा विचार था और न ही उन जैसे चन्‍द लोगों के बूते की यह बात थी।

एक मीडिया प्रतिष्‍ठान के मालिक के रूप में तेजपाल जब एक व्‍यवसायी बन गये तो खोजी पत्रकारिता के जिस ब्राण्‍ड ने उन्‍हें स्‍थापित किया था, उसे बनाये रखने के लिए बाज़ार की प्रतिस्‍पर्धा में उन्‍हें वह स‍ब करना था जो एक पूँजी प्रतिष्‍ठान का मालिक करता है। शेयर लगाने के लिए, विज्ञापन जुटाने के लिए, बाज़ार की 'कुत्‍ता खाये कुत्‍ता' वाली होड़ में टिके रहने के लिए एक पूँजीपति जो-जो करता है, तेजपाल को वह सब करना ही था। बाज़ार का एक ही तर्क होता है: या तो किसी तरह से प्रतिस्‍पर्धी को पीछे छोड़कर आगे बढ़ो या समाप्‍त हो जाओ। वहाँ नैतिकता और उसूल की कोई गुंजाइश ही नहीं होती। मीडिया जगत में उग्र हो चुकी इजारेदारी की प्रवृत्ति के इस दौर में छोटे प्रतिष्‍ठान तरह-तरह की बाज़ारू तिकड़मों, राजनीतिक मिलीभगत और पूँजी-बाज़ार के तमाम कपट-प्रबंधों में शामिल होकर ही टिके रह सकते हैं। तरुण तेजपाल कुशलतापूर्वक यह खेल रहे थे, पर एक सफल व्‍यवसायी के अतिआत्‍मविश्‍वास, ग्‍लैमर से पैदा हुए गुरूर और उन जैसे तमाम धनपतियों के जीवन में अन्‍तर्व्‍याप्‍त आत्मिक रुग्‍णता (जो अनिवार्यत: पुरुषवर्चस्‍ववाद और यौन निरंकुशता से भरी होती है) के उफान में उन्‍होंने गोवा में अपनी महिला सहकर्मी के साथ जो किया और लीक से हटकर उस महिला सहकर्मी ने जो हिम्‍मत दिखायी, उससे तरुण तेजपाल का पूरा मीडिया-व्‍यवसाय हिल गया। 'तहलका' के ब्राण्‍ड की चमक धूमिल हो गयी। बाज़ार में ब्राण्‍ड पर बहु‍त कुछ निर्भर करता है। अब तरुण की कम्‍पनी को आगे छोटे-बड़े शेयरधारक मिलने मुश्किल होंगे, प्रचार के लिए आमिर खान जैसे स्‍टार मिलने मुश्किल होंगे,गोवा का थिंकफेस्‍ट यदि होगा भी तो उसमें सिनेमा, समाज और राजनीति की बड़ी-बड़ी हस्तियाँ आने से कतरायेंगी।

अभी तक यह तहलका की हनक और तेजपाल द्वारा पत्रकारिता के इस्‍तेमाल का ही नतीज़ा था कि तरुण तेजपाल के कई वेंचर्स के घाटे में होने के बावजूद निवेशक उनमें पैसा लगा रहे थे। यह बात अब सामने आ चुकी है कि तहलका निकालने वाली प्राइवेट कम्‍पनी 'अनंत इण्डिया प्राइवेट कम्‍पनी' में पूँजीपति और राज्‍यसभा सांसद के.डी.सिंह की फर्म 'अलकेमिस्‍ट' की 65.75  फीसदी हिस्‍सेदारी है। अनंत मीडिया को 2011-12 में कुल 13करोड़ का घाटा हुआ था। लेकिन कम्‍पनी के इस घाटे से तेजपाल के व्‍यापार साम्राज्‍य के विस्‍तार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। उत्‍तराखण्‍ड और हिमाचल में उन्‍होंने काफी भूसम्‍पत्ति खरीदी है, जिनमें अधिकांश का व्‍यावसायिक इस्‍तेमाल किया जाना है। उनकी 'थिंकवर्क्‍स प्राइवेट लि.' नाम की जो कम्‍पनी गोवा में हर वर्ष 'थिंकफेस्‍ट' इवेण्‍ट कराती है, उसे पिछले वित्‍तीय वर्ष में 1.99 करोड़ का मुनाफा हुआ। तेजपाल की पत्रकारिता की नैतिकता समझने के लिए यह तथ्‍य काफी है कि 'थिंकफेस्‍ट' को उन्‍हीं कुख्‍यात खनन कारपोरेशनों की स्‍पांसरशिप मिली हुई थी, जिनमें  से कुछ के काले कारनामों का 'तहलका' ने कभी भण्‍उाफोड़ भी किया था। यही नहीं, तेजपाल की एक और कम्‍पनी 'थ्राइविंग आर्टस प्रा.लि.' ग्रेटर कैलाश-2 में 'प्रूफराक' नाम से एक एक्‍सक्‍लूसिव इलीट क्‍लब बना रही है, जिसमें उसी कुख्‍यात शराब ब्‍यापारी पोंटी चड्ढा के घराने का काफी पैसा लगा हुआ है, जिसकी पिछले वर्षों हत्‍या हो गयी थी। बात साफ है। तरुण तेजपाल अब मात्र एक व्‍यवसायी हैं जिनके लिए पत्रकारिता अपने आप में तो एक व्‍यवसाय है ही, अन्‍य व्‍यवसायों को आगे बढ़ाने का एक साधन भी है।

गोवा के 'थिंकफेस्‍ट' में अपनी कनिष्‍ठ सहयोगी स्‍त्री पत्रकार पर उन्‍होंने जो यौन-हमला किया, वह आज के भारतीय बुर्ज़ुआ समाज के पूँजीपति, किसी उच्‍च कुलीन बुर्ज़ुआ बुद्धिजीवी या किसी उच्‍चपदस्‍थ बुर्ज़ुआ पत्रकार के आम व्‍यवहार की ही कोटि में आता है। कौन नहीं जानता कि आज मीडिया प्रतिष्‍ठानों में स्‍त्रीकर्मियों को कितने रूपों मे यौन-प्रताड़ना, यौन-दुर्व्‍यवहार और भयादोहनों का सामना करना पड़ता है। कुछ रोज़गार की मज़बूरी या कैरियर के लोभ  में इसे बर्दाश्‍त करती हैं और समझौते करती हैं, कुछ ताक़तवरों का खुलकर प्रतिरोध करने से डरती हैं और प्रतिष्‍ठान बदल लेती हैं या नौकरी छोड़ देती हैं। अपवादस्‍वरूप कुछ होती हैं जो आवाज़ उठाती हैं। कार्यस्‍थलों पर स्त्रियों को उत्‍पीड़न  के जिन रूपों का सामना करना पड़ता है, उनसे मीडिया प्रतिष्‍ठान अछूते कत्‍तई नहीं हैं। पत्रकारों के संगठनों के क्षरण-विघटन, इलेक्‍ट्रानिक मीडिया कर्मियों के संगठन के अभाव में भी ठेकाकरण-विनियमितीकरण की आम प्रवृत्ति ने आम तौर पर मुलाज़ि‍म पत्रकारों की असुरक्षा को बढ़ाया है। इस चीज़ का भी, जैसा कि रोज़गार के सभी क्षेत्रों में होता है, ज्‍़यादा प्रभाव स्‍त्री मीडियाकर्मियों पर पड़ा है।

तेजपाल-प्रकरण के तीन पहलू हैं। एक तो मीडियाजगत के पूरे माहौल और उसमें कार्यरत स्त्रियों की स्थिति का यह एक प्रातिनिधिक उदाहरण है। दूसरे, यह कुलीन बौद्धिक समाज और समाज के ऊपर के तबकों के मानस में गहराई तक पैठे सांस्‍कृतिक पतन और प्रबुद्ध लबादे में ढँके वहशी किस्‍म के पुरुष स्‍वामित्‍ववाद को बेनकाब करता है। तीसरे, आम तौर पर नवउदारवादी दौर के भारत में रहे-सहे जनवादी स्‍पेस का जो संकुचन हो रहा है, बाज़ारीकरण की प्रवृत्ति जिस किस्‍म की स्‍त्री-विरोधी निरंकुशता को जन्‍म दे रही है, पुराने मध्‍ययुगीन पुरुषस्‍वामित्‍ववाद की मानसिक स्थिति के साथ आधुनिक बुर्ज़ुआ स्‍त्री-विरोधी सर्वसत्‍तावाद का जो सम्मिलन हो रहा है -- उसकी अभिव्‍यकित सभी धरातलों पर सामने आ रही है। आश्‍चर्य नहीं, कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान समाज के हर संस्‍तर पर स्‍त्री पर जघन्‍य-बर्बर अत्‍याचारों की घटनाएँ लगातार बढ़ती गयीं हैं। कई नेताओं, अफसरों और साधु-संतों द्वारा यौन-अपराधों की घटनाओं के बाद अब एक जाने-माने पत्रकार, खरबों के सम्‍पत्ति-साम्राज्‍य वाले बाप-बेटे दो संत और सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्‍यायाधीश एवं एक राज्‍य के मानवाधिकार आयोग के अध्‍यक्ष भी आज ऐसे ही आरोपों को लेकर कटघरे में हैं। यह पूरे सामाजिक-सांस्‍कृतिक परिदृश्‍य की पतनशीलता का ही एक पहलू है। यह असाध्‍य संकटग्रस्‍त बुर्ज़ुआ समाज की असाध्‍य नैतिक-सांस्‍कृतिक व्‍याधियों की ही एक अभिव्‍यक्ति है।

4 comments:

  1. जाने कितने परतों में छुपे रहते हैं ऐसे लोग ..
    आपने सही कहा .." यह पूरे सामाजिक-सांस्‍कृतिक परिदृश्‍य की पतनशीलता का ही एक पहलू है। यह असाध्‍य संकटग्रस्‍त बुर्ज़ुआ समाज की असाध्‍य नैतिक-सांस्‍कृतिक व्‍याधियों की ही एक अभिव्‍यक्ति है।"
    ..जागरूक करती सार्थक सामयिक चिंतन भरी प्रस्तुति हेतु धन्यवाद

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  2. दरअसल यह सब तो उस एलीट रास्ते का स्वाभाविक परिणाम है जो मौजूदा समय में तहलका का रास्ता था , स्त्री के स्वतन्त्र सत्ता को सत्ता के दंभ से यह खतरा लगातार बना रहता है

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  3. बहुत बढ़िया आलेख

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