कविता कृष्णपल्लवी
हिंदी साहित्य् में कुछ वर्षों से संस्मरण खूब लिखे जा रहे हैं। इनमें लेखकगण नौजवानी के दिनों की अपनी आवारागर्दियों के चर्चे करते हैं, शराबनोशी के किस्से बयान करते हैं और लगे हाथों उन प्रतिस्पर्द्धियों की टांग खिंचाई करते हैं जिनसे कुछ हिसाब-किताब चुकता करना होता है।
इन संस्मरणों में संदर्भित देशकाल का सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक परिदृश्य लगभग अनुपस्थित रहता है। पाब्लो नेरूदा, मक्सिम गोर्की, ब्रेष्ट, लूनाचार्स्की, ओदीसियस इलाइतिस, आदि विश्व के कई रचनाकार हैं जिनके संस्मरणात्मक लेखन में उनका पूरा देशकाल प्रामाणिक रूप में उपस्थित दीखता है। आधी सदी पहले के कई भारतीय लेखकों के संस्मरणों में भी उनके समय का सामाजिक-राजनीतिक-साहित्यिक परिदृश्य उपस्थित दीखता है। साथ ही वे अपने व्यक्तित्व की निर्माण-प्रक्रिया और अपनी रचना-प्रक्रिया पर भी वस्तुतपरक ढंग से बातें करते दीखते हैं। प्रामाणिकता की दृष्टि से इन कृतियों को इतिहास के स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। रूसो अपनी कालजयी कृति 'आत्मस्वीकृतियां' में जितने साहसिक और बेरहम ढंग से स्वयं अपनी चीरफाड़ करते हैं, वह अदभुत है।
राजनीतिक संस्मरणों पर यदि निगाह डालें तो फ्रांज मेहरिंग की कृति 'कार्ल मार्क्स' और क्रुप्स्काया की कृति 'लेनिन' का उदाहरण लिया जा सकता है। ये दोनों कृतियां दो युगनायकों के जीवन के सहज सामान्य मर्मस्पर्शी चित्रों के साथ ही उनके युगों का प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करती प्रतीत होती हैं।
हिंदी के लेखक प्राय: महान लेखक के रूप में इतिहास के पन्नों में इन्दराज़ी के लिए संस्मरण लिखते हैं। यह अलग बात है कि कुछ सिफारिशी और 'फेसबुकी' चर्चाओं के बाद ये संस्मरण भुला दिए जाते हैं। साहित्य सुधी पाठकों द्वारा पढ़ा जाना तो दूर, दीमकें तक इन्हें चाटना पसंद नहीं करतीं। 'नॉरसिसस-ग्रंथि' और गुटपरस्ती लेखकों की आम प्रवृत्ति है और कथित वामपंथी लेखक तो इनमें शायद औरों से भी आगे हैं। यदि आप ''उभरती हुई प्रतिभा'' के रूप में चर्चित होना चाहते हैं, तो किसी मठाधीश या किसी प्रभावी मण्डल का शरणागत हो जाइए। फिर शायद किसी के संस्मरण में भी आपका नाम आ जाएगा।
जो कथित वामपंथी कवि लेखक हैं, दरअसल विचारधारात्मक-राजनीतिक समझदारी की दृष्टि से उनमें से भी अधिकांश एकदम कंगाल होते हैं। अपने देश के उत्पादन संबंधों और राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक अधिरचना में हुए और हो रहे बदलावों के बारे में उनकी कोई समझ नहीं होती। विश्व पूंजीवाद की संरचना और कार्यप्रणाली में विगत तीन-चार दशकों में हुए बदलावों के बारे में वे लगभग कुछ नहीं जानते। मार्क्सवाद की शायद ही कोई क्लासिकी कृति उन्होंने कभी पढ़ी हो। ऐसी स्थिति में अनुभव संगत पर्यवेक्षण के आधार पर अपने रचनात्मक लेखन में भी वे अपने समय और समाज का सामाजिक जीवन, सामाजिक अंतर्सम्बंधों, व्यक्तित्वों की बनावट-बुनावट तथा उनके आत्मिक संसार का मात्र आभासी, खण्डित या विरूपित चित्र ही उपस्थित कर पाते हैं। ऐसे लेखक जब संस्मरण लिखते हैं तो अपने देशकाल का चित्र इसलिए नहीं उपस्थित कर पाते क्योंकि उसकी गतिकी को वे समझते ही नहीं। चलते-चलाते 'बाजार उपनिवेशवाद', 'भूमंडलीकरण', 'पुनर्औपनिवेशीकरण' आदि जुमले वे इस्तेमाल करते रहते हैं पर उनकी कोई समझ नहीं होती। मार्क्सवाद और अंबेडकर को पढ़े बिना वे दोनों की खिचड़ी पकाने की विधि सुझाते हैं। कभी वे 'आइडेंटिटी पॉलिटिक्सं' और 'सबऑल्टर्न' इतिहास लेखन के साथ, तो कभी उत्तर आधुनिकता के साथ मार्क्सवाद का संगम कराते हैं। कुछ युवा लेखक हैं जो पढ़-लिख कर ऐसा करते हैं। उनसे तो बहस हो सकती है,पर कविता-कहानी लिखने वाले ज्यादातर लेखक ऐसे हैं जो बस कुछ शब्द और जुमले बोलते रहते हैं, समझते कुछ नहीं। ऐसे लोग जब संस्मरण लिखते हैं, तो उनमें उनके समय का इतिहास या तो अनुपस्थित रहता है या बलात्कृत, क्षत-विक्षत रूप में उपस्थित रहता है।
कुछ लेखकों के संस्मरणों में अभिशप्त वर्तमान से मुंह मोड़ कर, मनोगतवादी ढंग से, अतीत में गांव में (या कस्बे् में) बिताये गए जीवन के ''शांत मनोरम'' दिनों को 'नॉस्टैल्जिक' होकर याद करने की प्रवृत्ति दिखती है...वे आम के बाग, वह पीपल के पेड़ पर चढ़कर तालाब में छलांग लगाना... वगैरह-वगैरह। ऐसे संस्मरण लिखने वाले प्राय: सवर्ण लेखक होते हैं, जिनके बाप-दादे ज़मींदार थे। एक दलित उन गांवों को तो दु:स्वप्न की तरह ही याद कर सकता है। एक उजड़ा हुआ किसान, जो भले ही महानगर में आकर उजरती गुलामी कर रहा हो, वह भी शहरी नर्क को अतीत के गांव के नर्क से बेहतर ही मानता है। 'नॉस्टैल्जिक' संस्मरणागत लेखक इस बात को समझता ही नहीं कि अपनी स्वाभाविक गति से पूंजी द्वारा ग्रामीण जीवन के पोर-पोर को भेदा ही जाना था। गांव में पूंजी का वर्चस्व, किसान आबादी का विभेदीकरण, ध्रुवीकरण, सर्वहाराकरण, नगरों की ओर पलायन – यह सब होना ही था। जो अतीत वापस लौट नहीं सकता, उसके लिए विलाप निरर्थक है। सच यह है कि वह अतीत भी वैसा शांत-सुरम्य-सुंदर कदापि नहीं था, जैसा याद करने में लगता है। एक गतिहीन, कूपमण्डूक बर्बरता का स्थान आज एक भूचाली, शातिर आततायीपन ने ले लिया है। इसका विकल्प अतीत में नहीं ढूंढ़ा जा सकता, बल्कि भविष्य में ढूंढ़ा जा सकता है।
हल्के-फुल्के तौर पर कहा जा सकता है कि वर्तमान-व्याकुल, अतीत-शरणागत लेखक जब संस्मरण लिखते हैं तो पार्श्वभूमि में ''जाने कहां गए वो दिन...'' या ''कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन...'' की धुन बजती रहती है। पार्श्वभूमि में यदि ''जिंदगी के सफर में गुज़र जाते हैं जो मुकाम, वो फिर नहीं आते...'' या ''मुड़-मुड़ के ना देख, मुड़-मुड़ के...'' की धुन बजती रहती तो बेहतर होता।
सच तो यह है कि हिंदी के जो धोती-कुर्ता छाप, खैनी मलते-खाते लेखक-आलोचक आजकल दिल्ली के महानगरीय जीवन के मजे ले रहे हैं, वे भले ही 'अहा ग्राम्य् जीवन' की रट लगाएं, किसी भी कीमत पर वे गांव में जाकर रहने को तैयार नहीं होंगे। जो लेखक संस्मरणों में अतीत को शरण्य बना रहे हैं, उन्हें यदि उस अतीत में ले जाकर पटक दिया जाए तो वे बिलबिला उठेंगे। दरअसल, अतीत को शरण्य वे बनाते हैं, जो भविष्य को देख-पहचान नहीं पाते, या फिर जिनका वर्तमान सुखी-संतुष्ट होता है कि किसी बेहतर भविष्य के लिए लड़ने के लिए उन्हें ज़रूरत ही नहीं होती।
चुभेगा, जैसे चुभता है कड़वा सच ! कही है खरी-खरी, एकदम सच! बेबाक और बेलाग !
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