Friday, October 25, 2013

साधो, ये मुरदों का गाँव


-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

पाठ्यपुस्‍तकों में हम पढ़ते आये हैं, 'साहित्‍य समाज का दर्पण है।' लेकिन समकालीन हिन्‍दी कविता, कहानी, उपन्‍यास, नाटक आदि पढ़कर कहीं से भी ऐसा नहीं लगता कि इनमें आज का भारत और इसके लोग कहीं उपस्थित हैं।
इनमें ज्‍़यादातर मध्‍यवर्गीय खाये-अघाये लोगों की यौन रसलीलाएँ और रुग्‍ण फन्‍तासियाँ हैं, विदेशी कविताओं की नक़ल पर लिखी गयी सूखे भूसे जैसी या अबूझ पहेलियों जैसी कविताएँ हैं, इतिहास की गति से पीछे छूट चुके अतीत के लिए विलाप है, जनपक्षधरता के नाम पर जनजीवन के काल्‍पनिक और अप्रामाणिक चित्र हैं और संस्‍मरणों के नाम पर देश-काल से विच्‍छिन्‍न आत्‍मुग्‍धता के रेखाचित्र हैं।
यूँ कहने को ज्‍़यादातर लेखक अपने को वामपंथी ही कहते हैं, लेकिन उनके पास न तो 'जनसंगऊष्‍मा' है, न ही इतिहास-बोध और वैज्ञानिक विवेक है। इधर-उधर से, पल्‍लवग्राही तरीके से, कुछ पंजीरी लेकर कोई मार्क्‍सवाद की ऐसी-तैसी कर रहा है, कोई उत्‍तरआधुनिकतावाद पर अनर्गल प्रलाप कर रहा है, कोई 'आइडेण्टिटी पॉलिटिक्‍स' की देगची में मार्क्‍सवाद और अम्‍बेडकरवाद का शोरबा पका रहा है तो कोई साहित्‍य के समाजशास्‍त्र के नाम पर साहित्‍यालोचना-सिद्धान्‍त और समाजशास्‍त्र की बखिया उघेड़ रहा है। ऐसी वैचारिक कंगाली इतिहास के पन्‍नों पर शर्मनाक़ कलंकित दिनों के रूप में दर्ज़ रहेगी।
राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन के दिनों में सम्‍पादक के रूप में बालकृष्‍ण भट्ट, महावीर प्रसाद दिवेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखन लाल चतुर्वेदी, प्रेमचन्‍द आदि ने रचनाकारों के लिए शिक्षक और मार्गदर्शक की भूमिका निभाई थी। आज कोई भी 'आँख का अंधा गाँठ का पूरा', जो लिख नहीं सकता, वह जेब से पैसे ख़र्च करके एक पत्रिका निकाल देता है और अपने आप को लघु पत्रिका आन्‍दोलन का खंभा समझने लगता है। छपास के रोगियों की रचनाओं से उसकी मेज भर जाती है। फिर वह एक बड़ी मेज और बड़ी कुर्सी ख़रीदने फ़र्नीचर की दुकान की ओर भागता है। जो कविता-कहानी नहीं लिख सकता है और पत्रिका भी नहीं निकाल सकता, वह दर्शन, आलोचना-सैद्धान्तिकी और सौन्‍दर्यशास्‍त्र की बुनियादी किताबें छुए बिना ही आलोचक बन जाता है।
हिन्‍दी साहित्‍य की दुनिया मुख्‍यत: आत्‍मतुष्‍ट कूपमण्‍डूकों की दुनिया है, यह लिलिपुटियंस की दुनिया है, दरबारी चाटुकारों, गुटबाजों और भोगी-विलासी आवारागर्दों की दुनिया है, ऐसे अवसरवादियों की दुनिया है जो अफसर, प्रोफेसर, पत्रकार, डॉक्‍टर आदि पेशों में लगे मलाई चाटते हैं और जनता के दु:खों पर गाहे-बगाहे उतना घड़ि‍याली आँसू बहा लेते हैं, जितना प्रगतिशील का तमगा लेने के लिए ज़रूरी होता है। अवसरवाद भी इतना गंदा और बदबूदार किस्‍म का है कि पूछिये मत! विद्यानिवास मिश्र के चेले, जनेऊधारी पुरबिहा ब्राह्मण विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी साहित्‍य अकादमी के अध्‍यक्ष हैं, पर उनका कृपापात्र बनने के लिये कई कथित वामपंथी कवि-लेखक-आलोचक आपको उनके आगे-पीछे घूमते, उनकी कविता को 'महान प्रगतिशील कविता' सिद्ध करते मिल जायेंगे। लीलाधर जगूड़ी वामपंथी कवि हैं (पहाड़ी वामपंथी कवियों के गुट के मान्‍य सदस्‍य हैं) पर कभी वे भाजपाई मंत्री को पितातुल्‍य बता रहे थे और अब उत्‍तराखंण्‍ड की कांग्रेसी सरकार की पहाड़ों में नदियों पर बाँध बनाने की विनाशकारी नीति की जमकर वकालत कर रहे हैं। कवि केदारनाथ सिंह मुलायम सिंह के सैफई महोत्‍सव में पहुँचकर इलाके की प्रगति देखकर भावविभोर हो गये और बोल उठे कि देश की बागडोर यदि 'नेताजी' के हाथों में आ जायेगी तो वो पूरे देश को ऐसा ही धनधान्‍यपूर्ण बना देंगे। शीला दीक्षित, नीतीश कुमार और दूसरे मुख्‍यमंत्रियों की सरकारों के खुलेआम आगे-पीछे घूमने वाले या छुपकर लाभ उठाने वाले प्रगतिशीलों की भी कमी नहीं है।
सरकारी और पूँजीपतियों के प्रतिष्‍ठानों के पुरस्‍कारों की भरमार हो चली है। दर्ज़नों तो लख‍टकिया पुरस्‍कार हैं। पहले एक भारत भवन था, अब एक म.गा.हि.वि.वि. भी है और दर्ज़नों साहित्‍य और कला के नये प्रतिष्‍ठान खुल गये हैं। एन.जी.ओ. वाले भी इस धन्‍धे में उतर आये हैं। अखबार वाले भी उतर आये हैं। अंग्रेजी के कुलीनतावादी तो हिन्‍दी वालों को अब भी दो कौड़ी का ही मानते हैं, पर हिन्‍दी वाले तो पद-पीठ-पुरस्‍कारों के मात्र इतने विस्‍तार से ही फूले नहीं समा रहे हैं। विश्‍वविद्यालयों में सम्‍मान्‍य अग्रजों के नाम पर स्‍थापित पीठों पर एक से एक कूपमण्‍डूक धंधेबाज विराजमान हैं। कुछ पुरस्‍कारों के बहाने मास्‍को-लंदन की सैर कर ले रहे हैं, तो कुछ प्रकाशकों को पटाकर या दूतावासों में टिप्‍पस भिड़ाकर। कोई इनसे बैर नहीं मोल लेता। ये सभी ख़तरनाक माफिया गिरोह के समान होते हैं। इनके ख़ि‍लाफ़ ज्‍यों ही कोई चूँ भी बोला, ये सभी आपसी तकरार भूलकर एकजुट हो जाते हैं और उसपर टूट पड़ते हैं, साहित्‍य-संसार से उसे बहिष्‍कृत कर देते हैं, उसकी रचनाओं को खारिज कर देते हैं, या उसके ख़ि‍लाफ़ चुप्‍पी का षड्यंत्र रचने लगते हैं, या फिर अफवाहें फैलाने लगते हैं।
आप पुस्‍तक मेले में हिन्‍दी प्रकाशकों के स्‍टॉलों पर जाइये, मण्‍डी हाउस, इण्डिया इण्‍टरनेशनल सेण्‍टर, इण्डिया हैबिटेट सेण्‍टर, साहित्‍य अकादमी और विश्‍वविद्यालयों के हिन्‍दी विभगों में जाइये ओर चुपचाप हिन्‍दी के लेखकों-कवियों को निरखिये-परखिये। उधर एक बूढ़ा कवि लाल मफलर लपेटे एक युवा कवयित्री के पीछे लार टपकाते कुत्‍ते की तरह भागा जा रहा है। एक मोटा तुंदियल पत्रकार-लेखक एक लेखिका की प्रशंसा करते हुए उसपर गिरा जा रहा है। एक अधेड़ कवयित्री अपनी आधुनिकतावादी कविताओं से अलग छायावादी अदायें दिखा रही है। एक कुलपति, एक अकादमी अध्‍यक्ष और एक विभागाध्‍यक्ष के आस-पास लोग मण्‍डलियाँ बनाये खड़े हैं, उनके चियारे हुए दाँतों की चमक में उनके चेहरे साफ नहीं दिख रहे हैं। एक झबरीले बालों वाला कवि अपनी विदेश यात्रा के किस्‍से सुना रहा है। एक लेखक अपनी रचनाओं की प्रशंसाएँ गिना रहा है। एक नया सम्‍पादक दौड़ता हुआ माननीयों को अपनी पत्रिका थम्‍हा रहा है। कुछ माननीय परिचितों को न पहचानते हुए यूँ गज़र रहे हैं मानों भीड़ के सिर पर से तैरते हुए जा रहे हों। कहीं गुज़री हुई शराब की महफिलों की चर्चा हो रही है तो कहीं आगे की योजना बन रही है।
इन लोगों को देखकर कहीं से भी ऐसा नहीं लगता है कि ये ऐसे देश के साहित्‍यकार हैं, जहाँ शिखरों पर समृद्धि की तमाम चकाचौंध के बावजूद 21 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं, 18करोड़ लोग बेघर हैं और 18 करोड़ लोग झुग्गियों या कच्‍चे घरों में रहते हैं, 35करोड़ भारतीयों को अक्‍सर भूखे पेट सोना पड़ता है, 50फीसदी बच्‍चे कुपोषित हैं, 75फीसदी माँओं को पोषणयुक्‍त भोजन नहीं मिलता, सालाना 1.17 लाख स्त्रियाँ गर्भावस्‍था या प्रसव के दौरान मर जाती हैं और 77फीसदी आबादी रोज़ाना 20 रुपये से भी कम पर जीती हैं(इसमें से 22फीसदी रोज़ाना 11.60रुपये पर, 19फीसदी रोज़ाना 11.60 से 15 रुपये के बीच की आमदनी पर गुज़ारा करती है)।मानव विकास सूचकांक और वैश्विक भूख सूचकांक के हिसाब से, बच्‍चों की मृत्‍यु दर, भुखमरी और स्‍वास्‍थ्‍य एवं शिक्षा के मामले में भारत, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के कई बेहद ग़रीब देशों से भी पीछे है। अरबपतियों की कुल दौलत के लिहाज से भारत अमेरिका के बाद दुनिया में दूसरे नम्‍बर पर है, लेकिन दूसरी ओर, बेघरों, कुपोषितों, भूखों और अनपढ़ों की तादाद के लिहाज़ से भी, यह दुनिया में पहले नम्‍बर पर है। देश की ऊपर की दस फीसदी आबादी के पास कुल परिसम्‍पत्ति का 85 प्रतिशत इकट्ठा हो गया है, जबकि नीचे की 60 फीसदी आबादी के पास मात्र दो प्रतिशत है। देश में 0.01 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिनकी आबादी पूरे देश की औसत आमदनी से दो सौ गुना अधिक है। ऊपर की तीन फीसदी और नीचे की चालीस फीसदी आबादी की आमदनी के बीच का अन्‍तर आज साठ गुना हो चुका है।
यह है आज़ादी के बाद के 66 वर्षों के पूँजीवादी विकास का बैलेंसशीट। लोकतंत्र की असलियत यह है कि चुनाव के पाँचसाला प्रहसन और नेताशाही-नौकरशाही पर होने वाले ख़र्च के मामले में भारत विकसित पूँजीवादी देशों से भी आगे है। देश के भीतर और बाहर काले धन का इतना अम्‍बार संचित है कि उससे पूरी आबादी के लिए नि:शुल्‍क स्‍वास्‍थ्‍य, नि:शुल्‍क शिक्षा और आवास का इन्‍तज़ाम किया जा सकता है। चुनावी वामपंथी मदारियों सहित सभी संसदीय पार्टियों की जनता के साथ खुली गद्दारी की भूमिका साफ़ हो चुकी है। स्‍थापित ट्रेडयूनियनें कमीशनखोर दलालों के गिरोह से अधिक कुछ भी नहीं है। इस दायरे के बाहर कोई संगठित क्रान्तिकारी विकल्‍प अभी मौजूद नहीं है। गतिरोध और विपर्यय का दमघोंटू माहौल है। संक्रमण का कठिनतम कालखण्‍ड है। क्रान्तिकारी संकट यहाँ-वहाँ स्‍वत:स्‍फूर्त जनविस्‍फोटों को दे रहा है, लेकिन क्रान्तिकारी दिशा की सुनिश्चित समझ से लैस किसी पार्टी के नेतृत्‍व में मज़दूर वर्ग के संगठित नहीं होने के कारण यह क्रान्तिकारी संकट क्रान्ति का पूर्वाधार नहीं बन पा रहा है।
एक पीड़ादायी, लम्‍बी, क्रमिक प्रक्रिया से पूँजी भारतीय समाज के पोर-पोर को बेध चुकी है। प्रतिवर्ष पूँजी की मार से करोड़ों किसान कंगाल होकर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। वहाँ झुग्गियों में वे नर्क़ का जीवन बिताते हैं। 95 फीसदी शहरी और ग्रामीण मज़दूर असंगठित हैं, जिनके लिए श्रम क़ानूनों का व्‍यवहारत: कोई मतलब ही नही है। उत्‍पादन सम्‍बन्‍धों में बदलाव के साथ सामाजिक-सांस्‍कृतिक ऊपरी ढाँचे में भी भारी बदलाव आये हैं। पुरानी मध्‍ययुगीन बर्बरताएँ अभी भी क़ायम हैं, पर नये शासकों की सेवा कर रही हैं। नयी बर्बरताओं ने पुरानी बर्बरताओं के साथ सहमेल क़ायम कर लिया है।
इन सारी सच्‍चाइयों की इन्‍दराज़ी साहित्‍य में कत्‍तई नहीं हो पा रही है, क्‍योंकि हमारा साहित्‍यकार जनता के जीवन और संघर्षों से दूर, बहुत दूर खड़ा है। वह ऐसा मध्‍यवर्गीय बुद्धिजीवी है जो जनता के साथ ऐतिहासिक विश्‍वासघात कर चुका है।
दरअसल, हिन्‍दी के साहित्यकारों का बहुलांश (प्रोफेसर, पत्रकार, अफसर और उच्‍च आय वाले स्‍वतंत्र पेशेवर के रूप में) देश के उस 15-20 करोड़ खाते-पीते मध्‍यवर्ग का हिस्‍सा बन चुका है, जिसकेलिए तमाम अपार्टमेण्‍ट्स हैं, शॉपिंग मॉल्‍स और मल्‍टीप्‍लेक्‍स हैं, होटल-रिसॉर्ट्स-रेस्‍टोरेण्‍ट्स हैं, पचासों किस्‍म की कारें हैं, बचत-बीमा की स्‍कीमें हैं तथा खाने-पीने-पहनने-ओढ़ने की महँगी चीज़ों के सैकड़ों विकल्‍प हैं। साहित्‍य इनके लिए जनता को मुक्ति के स्‍वप्‍न और विचार देने का माध्‍यम नहीं, बल्कि सामाजिक प्रतिष्‍ठा और आत्‍मतुष्टि का साधन मात्र है।
लेकिन इतिहास की यात्रा पर पूर्ण विराम यहीं नहीं लगने वाला है। समय आयेगा जब जनता इन सा‍हित्यिक जड़वामनों से हिसाब माँगेगी। वह पूछेगी कि वे क्‍या कर रहे थे जब निराशा, अंधकार और रक्‍त में जनता की ज़ि‍न्‍दगी को, उसके स्‍वप्‍नों और आकांक्षाओं को डुबो देने की कोशिश की जा रही थी। तब इनके पास कोई उत्‍तर नहीं होगा। फिर जनता इनपर थूकेगी। उस थूक की ढेरी पर ये बौने लोग मक्खियों के समान अपने पंख फदफदायेंगे।
ये जो पद-पीठ-पुरस्‍कार हैं, यह जो कथित नाम और प्रतिष्‍ठा है, तब घोड़े की लीद के समान बेकार सिद्ध होंगे। वर्तमान व्‍यवस्‍था में, जैसा कि उरुग्‍वे के प्रसिद्ध जन-सरोकारी सर्जक एदुआर्दो गालिआनो ने एक भाषण में कहा था, ''यह सत्‍तातंत्र है जो हमेशा तय करता है कि मानवता के नाम पर किसे याद रखा जाये और किसे भुला दिया जाये।'' फिर भी न गोर्की, लूशुन और नाज़ि‍म हिकमत को भुलाया जा सका है, न प्रेमचंद, राहुल और मुक्तिबोध को। जनता के जीवन, संघर्ष और स्‍वप्‍नों के भागीदार सृजनकर्मियों की धारा संकटग्रस्‍त और कमज़ोर हो सकती है, पर समाप्‍त नहीं हो सकती। उसे परम्‍परा और भविष्‍य स्‍वप्‍नों से ऊर्जा मिलती रहेगी। प्रशस्ति पत्रों, पुरस्‍कारों, तमगों की उसे दरकार नहीं।
एदुआर्दो गालियानों ने एक जगह लिखा है: ''मुझे यह भय काफ़ी सताता है कि हम सभी स्‍मृतिलोप का शिकार हो रहे हैं। मैं मानवीय इन्‍द्रधनुष की पुनर्प्राप्ति के लिए लिखता हूँ, जिसे विकृत कर दिये जाने का ख़तरा है।''

हमें भी जनता के साहित्‍य और जनता के साहित्‍यकारों की शानदार परम्‍परा को विस्‍मृत कर दिये जाने के विरुद्ध लड़ना होगा। हमें लिखने को लड़ने का अंग बनाना होगा और इसमें निहित सारी परेशानियाँ, सारे जोखिम उठाने होंगे। मुक्ति स्‍वप्‍नों के इन्‍द्रधनुष को विस्‍मृति में खोने से भी बचाना होगा और विकृतिकरण की कोशिशों से भी। सृजन-कर्म की एकमात्र यही सार्थकता हो सकती है। 

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