इसलिए, जब भी हम उत्पादन की बात करते हैं, हमारे दिमाग में सामाजिक विकास की एक ख़ास मंजिल में उत्पादन, या सामाजिक व्यक्तियों के द्वारा उत्पादन होता है। इसलिए यह लग सकता है कि उत्पादन की बात करने के लिए, हमें या तो विकास की ऐतिहासिक प्रकिृया के विभिन्न चरणों का पता लगाना चाहिए, या शुरू में ही घोषणा कर देनी चाहिए कि हम एक ख़ास ऐतिहासिक काल, जैसे उदाहरण के लिए आधुनिक पूँजीवादी उत्पादन, का अध्ययन कर रहे हैं, जो वास्तव में इस कृति की विषय-वस्तु है। तो भी उत्पादन की सभी मंजिलों की कुछ सुनिश्चित समान विशेषताएँ होती हैं, कुछ समान उद्देश्य होते हैं। आम तौर पर उत्पादन एक अमूर्तन होता है, लेकिन वह एक तार्किक अमूर्तन होता है, क्योंकि वह समान अभिलाक्षणिकताओं को छाँटकर अलग करता है और सुनिश्चत करता है, तथा इस तरह हमें दुहराव से बचाता है। तथापि तुलना द्वारा उद्घाटित की गयी ये सामान्य या आम अभिलाक्षणिकताएँ एक बहुत जटिल चीज़ को संघटित करती हैं जिसके संघटक तत्वों के अलग-अलग गंतव्य या भवितव्य होते हैं। इनमें से कुछ तत्व सभी युगों में पाये जाते हैं, कुछ अन्य तत्व कुछ युगों में पाये जाते हैं। इनमें से कुछ तत्व सर्वाधिक आधुनिक युग में भी मौजूद हैं और सर्वाधिक प्राचीन युगों में भी मौजूद थे। उनके बिना उत्पादन की कल्पना तक नहीं की जा सकती, लेकिन जहाँ सर्वाधिक सम्पूर्ण विकसित भाषाओं और सबसे कम विकसित भाषाओं के बीच भी कुछ नियम और शर्ते समान होती हैं, वहीं सामान्य और आम से उनके प्रस्थान बिन्दु उनके विकास की अभिलाक्षणिकता होते हैं। आम तौर पर उत्पादन को विनियमित करने वाली स्थितियों का विभेदीकरण किया जाना चाहिए ताकि उस सामान्य एकरूपता के चलते अन्तर के बुनियादी बिन्दु दृष्टिओझल न हो जायें, जो सामान्य एकरूपता इस तथ्य के नाते होती है कि हर स्थिति में कर्त्ता , मानवजाति और लक्षित वस्तु, प्रकृति - ये दोनों चीज़ें समान होती हैं।
इस तथ्य को याद रख पाने में विफलता आधुनिक अर्थशास्त्रियों की उस सारी अक्लमंदी का स्रोत है जो मौजूद सामाजिक स्थितियों की शाश्वत प्रकृति और सामंजस्य को सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं। इस तरह, मिसाल के तौर पर, वे कहते हैं कि उत्पादन के किसी उपकरण के बिना कोई भी उत्पादन सम्भव नहीं होता, भले ही वह उपकरण केवल हाथ हो; कि अतीत के संचित श्रम के बिना कुछ भी सम्भव नहीं होता, भले ही यह श्रम मात्र वह कौशल हो, जो बार-बार प्रयोग द्वारा किसी जंगली मनुष्य के हाथों में संचित और संकेन्द्रित हुआ हो। पूँजी, अन्य चीज़ों के अलावा, उत्पादन का उपकरण भी होती है, अतीत का निर्वैत्तिक श्रम भी होती है। अत: पूँजी एक सार्वभौमिक, शाश्वत, प्राकृतिक परिघटना है; यह सच होगा यदि हम उन विशिष्ट गुणों की अनदेखी कर दें जो एक ''उत्पादन के उपकरण'' को और ''संचित श्रम'' को पूँजी में बदल देते हैं।
-मार्क्स ('राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान', 1859)
No comments:
Post a Comment