Wednesday, December 19, 2012

प्रगति का रास्‍ता एक, पर पतन की राहें अनेक होती हैं


काफ़ी हाउस में रिटायर्ड  क्रान्तिकारियों का एक जमावड़ा देखा। अब सभी अलग-अलग धन्‍धे-पानी में लगे हैं। कोई एन.जी.ओ. में है, कोई दिल्‍ली यूनिवर्सिटी में, कोई मीडिया में, कोई सरकारी मुलाज़‍मि है, कोई एन.आर.आई. बन चुका है और कभी-कभार भारत आता है तो पुराने कॉमरेडों को (जो अब भूतपूर्व हो चुके हैं) बुलाकर दारू पिलाता हैा

बहरहाल, ऐसे ही किसी मौक़े पर ये सभी जन काफ़ी हाउस में जुटे थे। लन्‍तरानियाँ जारी थीं। पुराने ज़माने की बातें हो रही थीं और अपने और एक-दूसरे के कारनामें बखाने जा रहे थे। अभी भी राजनीतिक कामों में लगे लोगों के बारे में चुटकुले गढ़े जा रहे थे। कुत्सित ठहाकों से माहौल सराबोर था। इनमें से कुछ राजनीति से पूरीतरह विरक्‍त हो चुके थे। कुछ जनवादी अधिकार वगैरह करते रहते थे। कुछ की राजनीति गोष्‍ठीबाजी, बयानबाजी, अख़बार के पन्‍नों और फेसबुक-टि्वटर तक सिमट चुकी थी। सभी सुखी-सन्‍तुष्‍ट नागरिक थे। सभी के फ्लैट-बँगले थे। कुछ एक को छोड़ सभी गाड़ी वाले थे। जिनकी गाड़ी नहीं थी, उनकी भी हैसियत रखने की तो थी ही। इनमें से अधिकांश के बच्‍चों का भविष्‍य सँवर चुका था। कुछ विदेश में थे, तो कुछ का कैरियर यहीं स्‍वर्णिम हो चुका था।

इधर-उधर मैंने नज़र दौड़ाई। दूर एक टेबुल पर ''मुक्‍त चिन्‍तक'' वामपंथियों का जमावड़ा था। एक बुज़ुर्ग रिटायर्ड प्राध्‍यापक भी थे। पत्‍नी स्‍वर्ग में हैं, बच्‍चे विदेश में। स्‍वयं एक क्रान्तिकारी पार्टी बनाकर उसके सेक्रेटरी जनरल भी हैं। स्‍वर्गीया पत्‍नी के नाम पर साहित्यिक आयोजन, पुरस्‍कार-वितरण आदि भी करते रहते हैं।

एक और टेबुल पर कुछ अम्‍बेडकरवादी बुद्धिजीवी बैठे थे। बाबा साहब की बदौलत उनका कल्‍याण हो चुका था और वे 'क्रीमी लेयर'  में शामिल हो चुके थे। शहरों और गाँवों की 90 फीसदी अपमानित-लांक्षित दलित आबादी के नारकीय जीवन से कोसों दूर ये लोग केवल शब्‍दों के अगिया-बैताल बन चुके थे। दलित साहित्‍य इनके लिए साहित्‍य का एक बड़ा था और ख्‍याति का पासपोर्ट। दलित अधिकारों के लिए सड़क पर उतरने की इनमें रत्‍तीभर हिम्‍मत नहीं बची थी। कॉफी हाउस ही इनका युद्धक्षेत्र था।

एक दूसरी टेबुल पर मीडिया के कुछ युवा तुर्क अपनी ऐंठी और व्‍यंग्‍यात्‍मक मुद्राओं के साथ विराजमान थे। और भी भाँति-भाँति के पंक्षी थे।

कहीं पढ़ा था कि मंज़ि‍ल तक पहुँचाने वाला सही रास्‍ता तो एक होता है, लेकिन पतन के रास्‍ते अनेक होते हैं।

आज के बौद्धिक परिदृश्‍य को देखकर तो यही लगता है कि खाते-पीते बुद्धिजीवियों का बहुलांश जनमुक्ति के लक्ष्‍य के साथ ऐतिहासिक विश्‍वासघात कर चुका है। उनके पतन के रूप और रास्‍ते अनेक हैं। भतृहरि का एक श्‍लोक है:
शिर: शार्व स्‍वर्गात्‍पतति शिरसस्‍तत्क्षितिधरम्
महीध्रादुत्‍तुंगादवनिमवनेश्‍चापि जलधिम्।।
अधो गंगा सेयं पदमुपगता स्‍तोकमथवा
विवेकभ्रष्‍टानां भवति विनिपात: शतमुख:।।

(गंगा नदी स्‍वर्ग से गिरी शिव के मस्‍तक पर, वहाँ से हिमालय की चोटी पर, फिर मैदान में नीचे, और भी नीचे बहती हुई कम होती गयी और अंत में सैकड़ों धाराओं में टूटकर खारे समुद्र में मिलकर गायब हो गयी। जो व्‍यक्ति विवेक बुद्धि खोता है, उसका पतन भी ऐसे ही सौ रास्‍ते से होता है।)

समझदारी की श्रेणियाँ सीमित होती हैं, पर मूर्खता की कोटियाँ अनन्‍त होती हैं। उसी तरह अच्‍छे, साहसी, न्‍यायप्रिय लोगों की किस्‍में सीमित होती हैं, लेकिन धूर्त, मक्‍कार और पतित  लोगों की अनेक किस्‍में होती हैं, अनेक रूप और अनेक चेहरे होते हैं।

1 comment:

  1. I THINK THIS IS THE REALITY OF SO CALLED INTELLECTUAL THOSE WHO ARE NOT IN THE MOVEMENT-AGITATION

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