Wednesday, December 19, 2012



 इसलिए, कोई भी चीज़ हमें नहीं रोकती कि हम अपनी आलोचना की शुरुआत राजनीति की आलोचना से करें, राजनीति में पक्ष लेने से, और इसतरह वास्‍तविक संघर्षों से, और उनके साथ अपनी पहचान जोड़ने से करें। तब हम कोरे सिद्धान्‍तवादी अंदाज में, एक नये सिद्धान्‍त के सा‍थ, यह घोषणा करते हुए कि सच्‍चाई यहाँ है, यहाँ सिज्‍़दा करो, दुनिया का सामना नहीं करते हैं। हम दुनिया के लिए नये सिद्धान्‍त दुनिया के सिद्धान्‍तों से ही विकसित करते हैं। हम दुनिया से यह नहीं कहते कि अपने संघर्षों को रोक दो, वे मूर्ख्‍ातापूर्ण हैं, हम तुम्‍हें  संघर्ष का सच्‍चा आदर्श-सूत्र देना चाहते हैं। हम दुनिया को महज़ यह दिखाते हैं कि यह वास्‍तव में क्‍यों संघर्ष करती है, और यह जानकारी एक ऐसी चीज़ है, जो दुनिया को हासिल होनी ही चाहिए,यहाँ तक कि वह न चाहे तब भी!

-कार्ल मार्क्‍स (आर्नल्‍ड रूगे को पत्र, सितम्‍बर 1843)



सिद्धान्‍त जैसे ही जनसमुदाय को अपनी पकड़ में ले लेता है, एक भौतिक शक्ति बन जाता है।
                            -कार्ल मार्क्‍स (हेगेल के 'फिलॉसोफी ऑफ राइट' की आलोचना की भूमिका)

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