दृश्य एक: उत्तर पश्चिम दिल्ली में बादली
औद्योगिक क्षेत्र के पीछे राजा विहार बस्ती में एक छोटा-सा कमरा जिसमें चार
स्त्रियाँ बैठकर एक बेहद छोटे-से स्प्रिंग के दोनों सिरों पर पतले-पतले तारों को
प्लास की सहायता से निकाल रही थीं। मैंने भी उनसे लेकर स्प्रिंग के तार निकालने की
कोशिश की, लेकिन तार इतना महीन था कि प्लास से पकड़ना तो दूर
मुझे तो वह दिखाई ही नहीं दे रहा था। पूछने पर पता चला कि एक हज़ार स्प्रिंग के तार
निकालने पर बीस रुपये मिलते हैं। कभी-कभी एक औरत पूरे दिन में एक हज़ार पीस ही कर
पाती है।
दृश्य दो: ऐसा ही एक दूसरा नीमअँधेरा कमरा
जहाँ एक स्त्री नीचे बैठकर मोबाइल चार्जर के अन्दर की वायरिंग लपेट रही थी। उसे
100 पीस पर 6 रुपये मिलते हैं।
दृश्य तीन: एक छोटे-से अँधेरे कमरे में
तीन-चार महिलाएँ 10-10 प्लास्टिक के चम्मचों की गड्डी बना रही थीं। उन्हें एक बोरी
चम्मचों के तीस रुपये मिलते हैं।
दिल्ली में मध्यवर्गीय इलाकों की चकाचौंध
से दूर मज़दूर बस्तियों में बीड़ी बनाने, ज़री, कढ़ाई, रेडीमेड कपड़ों के धागे काटना, पैकेटों में बिन्दी चिपकाना, बच्चों के खिलौने,
सिलाई, लेबल चिपकाना, स्क्रैप
से सामान छाँटना, पुराने टायरों से धातु के तार निकालना,
मूँगफली या बादाम तोड़ना, दस्तानों व मोज़ों
की छँटाई जैसे अनगिनत काम होते हैं और एक बहुत बड़ी आबादी इनमें लगी हुई है। अर्जुन
सेनगुप्ता कमेटी की 2006 की रिपोर्ट के मुताबिक देश में आठ करोड़ से ज़्यादा स्त्रियाँ
घर पर रहकर कोई न कोई काम करती हैं। इनमें से 80 प्रतिशत स्त्रियाँ पीस रेट पर काम
करती हैं।
देश की तरक्की के लम्बे-चैड़े दावे किये जा
रहे हैं। सकल घरेलू उत्पाद में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी दिखायी जा रही है। मगर इस तरक्की
में इन औरतों के श्रम का योगदान किसी को कहीं नहीं दिखायी देता है। अपने सारे
घरेलू काम करने के अलावा ये औरतें 10-12 घण्टे काम करती हैं। बेहद कम मज़दूरी पर ये
हाड़ गलाकर, आँख फोड़कर दिन-रात सबसे ज़्यादा मेहनत
वाले, उबाऊ और थकाऊ कामों में लगी रहती हैं। कई स्त्रियाँ
इसलिए भी घर पर काम करती हैं क्योंकि अपने छोटे बच्चों को घर छोड़कर फैक्ट्री में
नहीं जा सकती हैं, या फैक्ट्री के माहौल के कारण वहाँ जाकर
काम नहीं करना चाहतीं। कुछ महिलाएँ अपने पिछड़ेपन या पति के पिछड़ेपन की वजह से बाहर
काम नहीं करना चाहती हैं, और इन वजहों से भी
मालिकों की चाँदी हो जाती है -- एक तो उन्हें बहुत कम मज़दूरी देनी पड़ती है,
दूसरे, जगह के किराये, पानी-बिजली,
मशीन-औज़ार, मेण्टेनेंस जैसे खर्चों से छुटकारा मिल
जाता है। इनका भयंकर शोषण होता है, इन्हें कोई भी
सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती, कोई श्रम कानून इन
पर लागू नहीं होता है। किसी भी सरकारी विभाग में इन्हें मज़दूर माना ही नहीं जाता।
लेकिन सबसे बुरी बात तो ये है कि ये औरतें ख़ुद को मज़दूर मानती ही नहीं हैं,
उन्हें लगता है कि अपने खाली समय में या घर पर बैठे-बैठे थोड़ा-बहुत कमा
लेती हैं जिससे बच्चों को थोड़ा बेहतर खाने को मिल जाता है या कर्ज़ का बोझ कुछ कम
हो जाता है।
काम करने की बेहद खराब परिस्थितियों के
कारण ये तमाम तरह की बीमारियों की शिकार होती हैं -- गर्दन, पीठ, कमर,
टाँगों, सिर और पेट में दर्द, घुटनों में सूजन, उँगलियों में अकड़न,
आँखों से पानी गिरना, साँस व फेफड़े की
बीमारियाँ, काँच, तेज़ाब,
केमिकल आदि से कटना, जलना, घाव हो जाना। ज़्यादातर औरतें इन तकलीफ़ों के बावजूद इलाज नहीं कराती,
और चुपचाप काम में लगी रहती हैं।
साल 2008 में एक संस्था के सर्वेक्षण के
मुताबिक ज़्यादातर औरतें घर के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर रोज 7-8 घण्टे काम करके
रोज़ाना औसतन 32-33 रुपये ही कमा पाती हैं -- इन्हें महीने में औसतन 16 दिन ही काम मिल पाता है। अगर लगातार काम मिले
तो भी दिनों-रात काम करके पीस रेट से कोई औरत मज़दूर ज़्यादा से ज़्यादा 3000 रुपये
महीना ही कमा पाती है, लेकिन ऐसी औरतें कम ही हैं। इतने कम पैसे
मिलने पर भी वे काम छोड़ नहीं सकती क्योंकि हज़ारों दूसरी औरतें काम के इन्तज़ार में
बैठी रहती हैं।
इन औरतों में से सिप़र्फ छह प्रतिशत ऐसी
हैं जिनके घर में किसी के पास परमानेण्ट नौकरी है। ज़्यादातर के पिता या पति
दिहाड़ी, कैज़ुअल या टेम्परेरी मज़दूर हैं या ख़ुद कोई छोटा-मोटा
काम-धन्धा करते हैं। कई ऐसे भी हैं जहाँ पूरा परिवार मिलकर घर पर पीस रेट पर काम
करता है। इनमें आधी से ज्यादा महिलाएँ कर्ज़ में डूबी हैं। 93 प्रतिशत औरतों के पास
अगले महीने के लिए या हारी-बीमारी के दिनों के लिए कुछ भी नहीं बच पाता।
ज़्यादातर स्त्रियाँ ठेकेदारों से काम
लाकर करती हैं या आस-पास की फैक्ट्रियों से ख़ुद काम लाती हैं। माल लाना और
पहुँचाना भी अपने खर्चे पर करना पड़ता है। गिनती या तौल में मामूली-सा फ़र्क होने
पर भी ठेकेदार काफी पैसे काट लेता है। कम पढ़ी-लिखी या अनपढ़ होने के कारण वे इनके
हिसाब में गड़बड़ी भी करते हैं। ज़्यादातर औरतों को सुई, धागा,
कैंची, हथौड़ी, प्लास,
सीरिंज, कढ़ाई के फ़्रेम जैसी चीज़ें भी अपने पास से
ही ख़रीदनी पड़ती हैं।
पिछले 20-22 वर्षों में जो आर्थिक नीतियाँ
पूरी दुनिया में लागू हुई हैं उसमें एक कारख़ाने के भीतर होने वाली ‘फैक्ट्री असेम्बली लाइन’ को एक दूसरे से
जुड़ी अलग-अलग इकाइयों में बाँटकर पूरी दुनिया में फैला दिया गया है और ग़रीब देशों
की स्त्रियों की भारी आबादी को इससे जोड़कर पूँजी की सबसे निचली कोटि का उजरती ग़ुलाम
बना दिया है। छोटे-छोटे दड़बों जैसे कमरों में काम करने वाली औरतें भी कई ठेकेदारों
और छोटी कम्पनियों से होते हुए ऊपर बैठे बड़े मालिकों के लिए सस्ते श्रम का भण्डार
बन चुकी हैं। आटो पार्ट्स और मोबाइल व कम्प्यूटर के पुर्ज़ों से लेकर गारमेण्ट
एक्सपोर्ट करने वाली बड़ी कम्पनियाँ तक उनकी मेहनत की लूट से मालामाल हो रही हैं।
यह एक ऐसी मज़दूर आबादी है जो आज अपने हक़
के लिए आवाज़ भी नहीं उठा सकती है। स्थापित ट्रेड यूनियनों की कार्यसूची में भी ये
औरतें और उनकी माँगें कहीं नहीं आती हैं। बस सिर्फ आनुष्ठानिक तरीके से कभी-कभार
इनके बारे में भी वे कुछ बातें कह देते हैं जिनका कोई मतलब नहीं होता है। मगर
क्रान्तिकारी मज़दूर कार्यकर्ताओं के सामने इन मज़दूर स्त्रियों को संगठित करना आज
एक बड़ी चुनौती है। सबसे पहले तो उन्हें इस बात का अहसास कराना होगा कि वे जो काम
करती हैं उसकी श्रमशक्ति के वास्तविक मूल्य का एक छोटा-सा हिस्सा भी उन्हें नहीं
मिलता है।
पीस रेट पर काम करने वाले मज़दूरों की सबसे
पहली माँग यह बनती है कि उन्हें ''स्वरोजगार'' की श्रेणी में रखने के बजाय उस मालिक या कांट्रैक्टर का कर्मचारी माना
जाये जिसके लिए वे काम करते हैं। अलग-अलग उद्योगों में जितनी न्यूनतम मज़दूरी तय हो
और एक कार्य दिवस में औसतन जितने पीस तैयार हो सकते हैं, उस
न्यूनतम मज़दूरी की राशि में पीसों की संख्या से भाग देकर न्यूनतम पीस रेट तय किया
जाना चाहिए। उन्हें ठेका मज़दूरों को क़ानूनन मिलने वाले सभी अधिकार व सुरक्षा मिलने
चाहिए।
(मज़दूर बिगुल, अप्रैल
2012 अंक में प्रकाशित)
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