''आप कहती हैं कि मैं बहुत आदर्शवादी हूं: आप यह जानना चाहती हैं, आख़िर जीवन से मैं अपेक्षा क्या करती हूं। न तो मुझे अधिकार चाहिए, न पराधीनता। न मैं छल पसन्द करुंगी और न ढोंग करुंगी। मैं नहीं चाहती कि मैं दूसरों की राय पर चलने को विवश होऊं, जो दूसरे कहें, वही करूं। नहीं, मुझे यह करने की ज़रूरत नहीं। न तो धन-दौलत में पली हूं और न ही मुझे इसकी ज़रूरत महसूस होती है। तो फिर मैं क्यों इसके पीछे भागूं, क्यों इसीलिए कि दूसरे यह सोचते हैं कि सभी को इसको पाने की इच्छा होती है और इसीलिए यह मेरी भी इच्छा बन जाये? मैंने उच्च समाज में कभी क़दम नहीं रखा और न कभी यह महसूस किया कि वैभवशाली बन जाने का अर्थ क्या होता है और न ही ऐसा बनने की कोई लालसा ही मुझमें है - क्योंकि लोग ऐसा चाहते हैं, क्या इसीलिए मैं चमक-दमक भरे शिखर तक पहुंचने के लिए अपना बलिदान करूं? जब तक मुझे अपने लिए अथवा समझिये अपनी किसी छोटी सी छोटी सनक के लिए - किसी चीज़ की किसी निश्चित आवश्यकता के लिए दरकार नहीं होगी, तबतक उसके लिए मैं कोई बलिदान नहीं करुंगी। मैं अपनी स्वतंत्रता चाहती हूं, अपना जीवन अपनी मर्जी़ के मुताबिक जीना चाहती हूं। और जो मुझे सचमुच चाहिए, उसके लिए मैं हर तरह से तैयार हूं और जिसकी मुझे आवश्यकता नहीं वह मुझे नहीं चाहिए, और न मैं वह लूंगी। मुझे नहीं मालूम कि मुझे किस-किस चीज़ की आवश्यकता पड़ेगी। आप कहती हैं कि मैं अभी जवान हूं, अनुभव की कमी है मुझमें और समय मुझे बदल देगा - तो क्या हुआ, बदल गयी, तो बदल गयी; लेकिन फिलहाल मुझे यह सब नहीं चाहिए, कुछ भी नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं, जिसका चुनाव मैं खुद न करूं! आप पूछती हैं, मुझे क्या चाहिए अभी? ठीक है, ठीक है, अभी इसका उत्तर मुझे नहीं मालूम। क्या मैं किसी पुरुष से प्रेम करना चाहती हूं? नहीं मालूम, कल सुबह जब मैं सोकर उठी तो मुझे यह पता भी नहीं था कि मैं आपसे प्रेम करना चाहुंगी, मिलने से घण्टों पहले तक भी मुझे यह पता नहीं था और सोचा भी नहीं था कि जब मिलने आऊंगी तो कैसा महसूस होगा। इस समय मुझे यह नहीं मालूम कि अगर कभी मैं प्रेम में पड़ी भी, तो मुझे कैसा लगेगा, बस मुझे यह मालूम है कि मैं किसी पुरुष के सामने झुकना नहीं चाहती; मैं स्वतंत्र रहना चाहती हूं, किसी भी पुरुष के प्रति किसी भी ज़िम्मेदारी से मुक्त, ताकि कोई भी पुरुष मुझसे यह कहने की हिम्मत न कर सके कि मैं उसकी आज्ञानुसार काम करूं। मैं अपनी मरज़ी से, केवल अपनी मरज़ी से काम करना चाहती हूं और यह भी चाहती हूं कि मेरा साथी भी इसी प्रकार अपनी मरज़ी से काम करे। मैं किसी दूसरे की स्वतंत्रता का अतिक्रमण नहीं करना चाहती और न ही यह चाहती हूं कि कोई पुरुष मेरी स्वतंत्रता का अतिक्रमण करे।''
मैं अपनी मरज़ी से, केवल अपनी मरज़ी से काम करना चाहती हूं और यह भी चाहती हूं कि मेरा साथी भी इसी प्रकार अपनी मरज़ी से काम करे। मैं किसी दूसरे की स्वतंत्रता का अतिक्रमण नहीं करना चाहती और न ही यह चाहती हूं कि कोई पुरुष मेरी स्वतंत्रता का अतिक्रमण करे।
ReplyDeleteWhen at least 5 percent men and women realize the meaning of this statement, only then true love can come in this world. Thanks Kavita - for once again making me aware of my walls.
एक दम उपयुक्त पंक्तियों का चयन किया है, इस महत्वपूर्ण उपन्यास से. स्त्री-विमर्श सलीके से शुरू भी नहीं हुआ था जब ये पंक्तियाँ लिखी गई थीं. वैचारिक स्पष्टता और दृढ़ता, दोनों ही देखने लायक़ हैं. बधाई.
ReplyDeleteअगर किसी के सामने झुकने की नौबत है तो उससे प्रेम नहीं किया जा सकता।
ReplyDeleteजहां स्वतंत्रता का अतिक्रमण होगा, वहां प्रेम टिक नहीं सकता।
और आज्ञा देने वाला साथी प्रेम नहीं कर सकता।
चूंकि स्वतंत्रता की तरह प्रेम भी मनुष्य का प्राकृतिक गुण है, इसलिए साथी की
मर्जी के स्वीकार का साहस खुद को अपनी नजरों में उठाने की प्रक्रिया है और एक
ऐसी ताकत बख्शता है जिसमें किसी तरह के छल या ढोंग की जगह नहीं।
दूसरों की राय पर चलना ही दरअसल उस व्यवस्था का हिस्सा बनना है, जिसमें
धन-दौलत, वैभव, चमक-दमक आदि जीवन का पर्याय माना जाता है। यह सब हासिल करना या
समझौता करना बहुत आसान है, बशर्ते कि अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व का बलिदान कर
दिया जाए। और अपनी स्वतंत्रता के साथ, अपनी मर्जी के मुताबिक जीवन भी बहुत
मुश्किल नहीं है, अगर धन-दौलत, वैभव, चमक-दमक जैसी चीजों से प्रेम नहीं हो।
जवान होना या अनुभव की कमी होना अपने भीतर कुछ कम होना कतई नहीं है। और पूरा
हुआ कौन है कभी...?
समय अगर बदल देता है, तो बदल दे! बस इतना हो कि अपने व्यक्तित्व, अपनी
स्वतंत्रता को कोई नुकसान न हो।
और वेरा...! प्रेम हमेशा अच्छा ही लग सकता है... बस इतना हो कि अपने साथी के
सामने झुकने की नौबत न आए...!