इस देश के जो पढ़े-लिखे लोग हैं, उन्हें पढ़ा-लिखाकर अज्ञानी बनाया गया है। उन्हें न तो अपना सही इतिहास पता है, न ही वर्तमान की वास्तविक तस्वीर उनके सामने है और समाज के भविष्य के बारे में तो वे सोचते तक नहीं। वे सिर्फ अपने भविष्य को किसी भी कीमत पर संवारने के लिए प्रशिक्षित किये गये हैं।
ऐसे लोग प्राय: चीज़ों के बारे में ज्यादा सोचते नहीं। उनकी ज़िन्दगी के सारे जोड़-घटाव-गुणा-भाग का कुल उद्देश्य निजी तरक्क़ी, ऊंचा ओहदा, खुशहाली और रुतबा हासिल करना होता है। उनके घरों में यदि अख़बार-पत्रिकाएं आती भी हैं तो शेयर के भाव, प्रॉपर्टी के रेट्स जानने के लिए, अपराध समाचार या फ़िल्मी गॉसिप कॉलमों के अध्ययन के लिए या कम्पटीशन की तैयारी के लगे बेटे-बेटियों के लिए।
ऐसे कुछ लोग या तो भारत को लगभग इतिहास विहीन मानते हैं या पूरे इतिहास को ही अंधकारयुग समझते हैं। इनमें से कुछ लोग दूसरे छोर पर खड़े होकर अतीत के भारत को ''विश्वगुरु'' और ''सोने की चिड़िया''...वगैरह-वगैरह घोषित कर देते हैं। वे लोकायत दर्शन, सांख्य, बौद्ध दर्शन, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, कालीदास, भवभूति, वेदव्यास आदि के बारे में कुछ भी नहीं जानते। न ही वे अतीत के अंधकारमय पक्षों - ब्राहमणवाद और जाति व्यवस्था के उदय या स्त्रियों और दलितों के बर्बर दमन-उत्पीड़न के बारे में कुछ जानते हैं। प्राय: ऐसे लोग ''अतीत के खोये हुए गौरव'' की बहाली की बातें करते हैं और आम मुसलमानों को ''बाहरी'' और ''राट्रद्रोही'' बताते हैं। साम्राज्यवादी लूट से उन्हें ज्यादा परहेज नहीं होता। भारत को भी तरक्क़ी के रास्ते पर आगे बढ़ाते हुए वे एक साम्राज्यवादी (यानी अपने से कमज़ोर देशों की जनता का शोषक-उत्पीड़क) बनते देखना चाहते हैं। साम्राज्यवादियों से यदि उन्हें शिकायत होती है तो इसलिए कि वे भारत को साम्राज्यवादी नहीं बनने दे रहे हैं। ऐसे लोग अपने बेटों को अमेरिका-यूरोप-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया में घुसाने-बसाने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर देते हैं और वहां कोई गोरा नस्ली अहंकार में उनके लाडले को पीट देता है या छुरा भोंक देता है तब वे अचानक नस्लवाद के ख़िलाफ़ काफ़ी मुखर हो जाते हैं। उनके डॉक्टर-इंजीनियर-बिजनेस एक्ज़ीक्यूटिव बेटे बाहरी देशों में रहते हुए वहां काम करने वाले भारतीय मज़दूरों या तीसरी दुनिया के दूसरे देशों के आप्रवासी मेहनतकशों को काफ़ी हिक़ारत की निगाह से देखते हैं और उनकी संगत से अपने को दूर रखते हैं।
खुशहाल मध्यवर्ग के ऐसे लोग एक 'फेयर प्ल' और 'स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा' वाली ''भ्रष्टाचारमुक्त'' पूंजीवादी दुनिया चाहते हैं। वे इस बात को कत्तई स्वीकार नहीं कर पाते कि पूंजीवाद अपने आप में भ्रष्टाचार है और समस्त भ्रष्टाचारों की जननी है। महान लेखक बाल्जा़क की यह बात उनके गले के नीचे उतर ही नहीं पाती कि 'हर सम्पत्ति-साम्राज्य अपराध की बुनियाद पर खड़ी है।' पूंजीवादी शोषण श्रम की विधिसम्मत लूट है। जहां क़ानूनी लूट होगी वहां ग़ैर क़ानूनी लूट भी होगी ही। भ्रष्टाचार पूंजीवादी शरीर पर पसरा हुआ एक्ज़िमा या सोरायसिस जैसी असाध्य व्याधि है। बीच-बीच में कुछ मलहम लगाकर उसे दबा दिया जाता है, फिर यह उभड़ जाता है। सफेद धन का सगा भाई होता है काला धन। जहां ''नियमानुसार'' अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है, वहां छल-फरेब, धोखाधड़ी, घूसखोरी, लूटपाट से भी कुछ कमाई की ही जाती है। यह भी पूंजी संचय की प्रक्रिया का ही एक हिस्सा है। सरकारे और नौकरशाही पूंजीपतियों के प्रबंधक और नौकर होते हैं। वे जानते हैं कि वे लुटेरों के सेवक हैं, फिर वे स्वयं बहती गंगा में हाथ क्यों न धोएं? पूंजीवाद में ठेके लेने के लिए और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की ख़रीद के लिए होड़ करने वाली कम्पनियां नेताओं-अफसरों को घूस देंगी ही। सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की ख़रीदों में कमीशनखोरी होगी ही। यह सिलसिला ऊपर से लेकर नीचे ग्राम प्रधान व बी. डी. ओ. के स्तर तक आता है। एक लोकपाल क्या, ऊपर से लेकर नीचे तक लोकपालों की टीम भी इस भ्रष्टाचार को रोक नहीं सकती। वह भी भ्रष्टों की जमात में शामिल होकर कीर्तन गाने लगेगी - 'हम भ्रष्टन के, भ्रष्ट हमारे'।
भ्रष्टाचार मुक्त पूंजीवाद एक मिथक है, एक भ्रम है। और यदि ऐसा हो भी जाये तो समाज से ग़रीबों और श्रमिकों की दुर्दशा समाप्त नहीं होगी। जो लोग भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए जंतर-मंतर और रामलीला मैदान पर हाय-तौबा मचा रहे हैं, वे लोग देश की श्रमिक वर्ग की भीषण दुर्दशा पर सवाल नहीं उठाते। वे 165 श्रम कानूनों के अनुपयोगी होने पर प्रश्न नहीं उठाते। वे ऐसी किसी वैकल्पिक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की बात नहीं करते जिसमें उत्पादन, राजकाज और समाज के ढांचे पर उत्पादन करने वाले क़ाबिज हों और फ़ैसले की ताक़त वास्तव में उनके हाथों में हो। इनके 'सिविल सोसाइटी' के दायरे में सफ़ेदपोश बौद्धिक ही आते हैं, आम मेहनतक़श नहीं आते। ये पूंजीवाद का विकल्प ढूंढने वाले लोग नहीं हैं, बल्कि पूंजीवाद को ''मानवीय'' मुखौटा पहनाने वाले और उसके दामन पर लगे रक्त के छींटों और कालिख के धब्बों को डिटर्जेंट से धोने वाले लोग हैं। ये पूंजीवाद के बाहर के लोग नहीं बल्कि उसके भीतर के लोग हैं, 'प्रेशर ब्लाक', 'सेफटी वॉल्व', 'शॉक एब्जॉर्वर' और 'स्पीड ब्रेकर' का काम करने वाले लोग हैं। आश्चर्य नहीं कि कई सारे पूंजीपति भी इनके मुहिम का समर्थन और स्वागत करते हैं। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण उनकी तो सबसे बड़ी ज़रूरत है। रामदेव के अंधराष्ट्रवादी फतवेबाजियों का और समाज में अंधविश्वास-भाग्यवाद आदि के प्रचार का व्यवस्था के सूत्रधार एक सीमा तक लाभ उठाते हैं, लेकिन रामदेव राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं के चपेट में और अति उत्साह में आकर जब पूंजीवादी संसदीय तंत्र और उसकी क़ानून-व्यवस्था के सामने अधिक समस्या पैदा करने लगते हैं तो उन्हें उनकी औक़ात भी दिखा दी जाती है। अन्ना और रामदेव जैसे लोग पूंजीवादी अर्थनीति और पूंजीवादी राजनीति के बजाय जब राजनीति को ही सभी बुराइयों की जड़ बताते हैं तो वे जनता में अराजनीतिकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं और इस प्रकार राजनीतिक सत्ता केन्द्र पर पूंजीपतियों की पकड़ को मज़बूत बनाने में तथा किसी भी प्रकार की संभावित क्रांतिकारी जन-चुनौती को विभ्रम एवं बिख़राव का शिकार बनाने में सहायक होते हैं।
आम सफ़ेदपोश मध्यवर्ग कुछ अपनी वर्गीय स्वार्थपरता और कुछ अपनी कूपमण्डूकता के चलते ऐसे लोगों के पीछे जा खड़ा होता है और ग़ैर मुद्दों की आड़ में बुनियादी मुद्दों को ओझल कर दिया जाता है। ....
ऐसे लोग प्राय: चीज़ों के बारे में ज्यादा सोचते नहीं। उनकी ज़िन्दगी के सारे जोड़-घटाव-गुणा-भाग का कुल उद्देश्य निजी तरक्क़ी, ऊंचा ओहदा, खुशहाली और रुतबा हासिल करना होता है। उनके घरों में यदि अख़बार-पत्रिकाएं आती भी हैं तो शेयर के भाव, प्रॉपर्टी के रेट्स जानने के लिए, अपराध समाचार या फ़िल्मी गॉसिप कॉलमों के अध्ययन के लिए या कम्पटीशन की तैयारी के लगे बेटे-बेटियों के लिए।
ऐसे कुछ लोग या तो भारत को लगभग इतिहास विहीन मानते हैं या पूरे इतिहास को ही अंधकारयुग समझते हैं। इनमें से कुछ लोग दूसरे छोर पर खड़े होकर अतीत के भारत को ''विश्वगुरु'' और ''सोने की चिड़िया''...वगैरह-वगैरह घोषित कर देते हैं। वे लोकायत दर्शन, सांख्य, बौद्ध दर्शन, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, कालीदास, भवभूति, वेदव्यास आदि के बारे में कुछ भी नहीं जानते। न ही वे अतीत के अंधकारमय पक्षों - ब्राहमणवाद और जाति व्यवस्था के उदय या स्त्रियों और दलितों के बर्बर दमन-उत्पीड़न के बारे में कुछ जानते हैं। प्राय: ऐसे लोग ''अतीत के खोये हुए गौरव'' की बहाली की बातें करते हैं और आम मुसलमानों को ''बाहरी'' और ''राट्रद्रोही'' बताते हैं। साम्राज्यवादी लूट से उन्हें ज्यादा परहेज नहीं होता। भारत को भी तरक्क़ी के रास्ते पर आगे बढ़ाते हुए वे एक साम्राज्यवादी (यानी अपने से कमज़ोर देशों की जनता का शोषक-उत्पीड़क) बनते देखना चाहते हैं। साम्राज्यवादियों से यदि उन्हें शिकायत होती है तो इसलिए कि वे भारत को साम्राज्यवादी नहीं बनने दे रहे हैं। ऐसे लोग अपने बेटों को अमेरिका-यूरोप-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया में घुसाने-बसाने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर देते हैं और वहां कोई गोरा नस्ली अहंकार में उनके लाडले को पीट देता है या छुरा भोंक देता है तब वे अचानक नस्लवाद के ख़िलाफ़ काफ़ी मुखर हो जाते हैं। उनके डॉक्टर-इंजीनियर-बिजनेस एक्ज़ीक्यूटिव बेटे बाहरी देशों में रहते हुए वहां काम करने वाले भारतीय मज़दूरों या तीसरी दुनिया के दूसरे देशों के आप्रवासी मेहनतकशों को काफ़ी हिक़ारत की निगाह से देखते हैं और उनकी संगत से अपने को दूर रखते हैं।
खुशहाल मध्यवर्ग के ऐसे लोग एक 'फेयर प्ल' और 'स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा' वाली ''भ्रष्टाचारमुक्त'' पूंजीवादी दुनिया चाहते हैं। वे इस बात को कत्तई स्वीकार नहीं कर पाते कि पूंजीवाद अपने आप में भ्रष्टाचार है और समस्त भ्रष्टाचारों की जननी है। महान लेखक बाल्जा़क की यह बात उनके गले के नीचे उतर ही नहीं पाती कि 'हर सम्पत्ति-साम्राज्य अपराध की बुनियाद पर खड़ी है।' पूंजीवादी शोषण श्रम की विधिसम्मत लूट है। जहां क़ानूनी लूट होगी वहां ग़ैर क़ानूनी लूट भी होगी ही। भ्रष्टाचार पूंजीवादी शरीर पर पसरा हुआ एक्ज़िमा या सोरायसिस जैसी असाध्य व्याधि है। बीच-बीच में कुछ मलहम लगाकर उसे दबा दिया जाता है, फिर यह उभड़ जाता है। सफेद धन का सगा भाई होता है काला धन। जहां ''नियमानुसार'' अतिरिक्त मूल्य पैदा होता है, वहां छल-फरेब, धोखाधड़ी, घूसखोरी, लूटपाट से भी कुछ कमाई की ही जाती है। यह भी पूंजी संचय की प्रक्रिया का ही एक हिस्सा है। सरकारे और नौकरशाही पूंजीपतियों के प्रबंधक और नौकर होते हैं। वे जानते हैं कि वे लुटेरों के सेवक हैं, फिर वे स्वयं बहती गंगा में हाथ क्यों न धोएं? पूंजीवाद में ठेके लेने के लिए और सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की ख़रीद के लिए होड़ करने वाली कम्पनियां नेताओं-अफसरों को घूस देंगी ही। सार्वजनिक प्रतिष्ठानों की ख़रीदों में कमीशनखोरी होगी ही। यह सिलसिला ऊपर से लेकर नीचे ग्राम प्रधान व बी. डी. ओ. के स्तर तक आता है। एक लोकपाल क्या, ऊपर से लेकर नीचे तक लोकपालों की टीम भी इस भ्रष्टाचार को रोक नहीं सकती। वह भी भ्रष्टों की जमात में शामिल होकर कीर्तन गाने लगेगी - 'हम भ्रष्टन के, भ्रष्ट हमारे'।
भ्रष्टाचार मुक्त पूंजीवाद एक मिथक है, एक भ्रम है। और यदि ऐसा हो भी जाये तो समाज से ग़रीबों और श्रमिकों की दुर्दशा समाप्त नहीं होगी। जो लोग भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए जंतर-मंतर और रामलीला मैदान पर हाय-तौबा मचा रहे हैं, वे लोग देश की श्रमिक वर्ग की भीषण दुर्दशा पर सवाल नहीं उठाते। वे 165 श्रम कानूनों के अनुपयोगी होने पर प्रश्न नहीं उठाते। वे ऐसी किसी वैकल्पिक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की बात नहीं करते जिसमें उत्पादन, राजकाज और समाज के ढांचे पर उत्पादन करने वाले क़ाबिज हों और फ़ैसले की ताक़त वास्तव में उनके हाथों में हो। इनके 'सिविल सोसाइटी' के दायरे में सफ़ेदपोश बौद्धिक ही आते हैं, आम मेहनतक़श नहीं आते। ये पूंजीवाद का विकल्प ढूंढने वाले लोग नहीं हैं, बल्कि पूंजीवाद को ''मानवीय'' मुखौटा पहनाने वाले और उसके दामन पर लगे रक्त के छींटों और कालिख के धब्बों को डिटर्जेंट से धोने वाले लोग हैं। ये पूंजीवाद के बाहर के लोग नहीं बल्कि उसके भीतर के लोग हैं, 'प्रेशर ब्लाक', 'सेफटी वॉल्व', 'शॉक एब्जॉर्वर' और 'स्पीड ब्रेकर' का काम करने वाले लोग हैं। आश्चर्य नहीं कि कई सारे पूंजीपति भी इनके मुहिम का समर्थन और स्वागत करते हैं। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण उनकी तो सबसे बड़ी ज़रूरत है। रामदेव के अंधराष्ट्रवादी फतवेबाजियों का और समाज में अंधविश्वास-भाग्यवाद आदि के प्रचार का व्यवस्था के सूत्रधार एक सीमा तक लाभ उठाते हैं, लेकिन रामदेव राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं के चपेट में और अति उत्साह में आकर जब पूंजीवादी संसदीय तंत्र और उसकी क़ानून-व्यवस्था के सामने अधिक समस्या पैदा करने लगते हैं तो उन्हें उनकी औक़ात भी दिखा दी जाती है। अन्ना और रामदेव जैसे लोग पूंजीवादी अर्थनीति और पूंजीवादी राजनीति के बजाय जब राजनीति को ही सभी बुराइयों की जड़ बताते हैं तो वे जनता में अराजनीतिकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं और इस प्रकार राजनीतिक सत्ता केन्द्र पर पूंजीपतियों की पकड़ को मज़बूत बनाने में तथा किसी भी प्रकार की संभावित क्रांतिकारी जन-चुनौती को विभ्रम एवं बिख़राव का शिकार बनाने में सहायक होते हैं।
आम सफ़ेदपोश मध्यवर्ग कुछ अपनी वर्गीय स्वार्थपरता और कुछ अपनी कूपमण्डूकता के चलते ऐसे लोगों के पीछे जा खड़ा होता है और ग़ैर मुद्दों की आड़ में बुनियादी मुद्दों को ओझल कर दिया जाता है। ....
itne khubsurat dhang se pesh kiye gaye lekhon aur kavitaoon ki jarurat hamesha padti hai...
ReplyDeleteLikhte rahiye aise hi..
mujhe aapka ye lekh kaafi upyogi laga
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