Wednesday, June 17, 2020

शीर्षकहीन


एक निचाट कलात्मक रेगिस्तान में भटकती
जब मैं उस भुतहे विकराल सभाभवन में दाखिल हुई
तो वहाँ नशे में धुत्त
इधर-उधर लुढ़के पड़े थे
कुछ गुनाहों के नये-पुराने देवता,
कुछ मलबे के मालिक,
कुछ ख्याति की हवस के पुजारी,
कुछ अमरत्व के दलाल,
कुछ मानवीय मूल्यों के पंसारी,
कुछ लोकप्रियता के कमीशन एजेण्ट,
सपनों के कुछ छलिया सौदागर,
और ऐसे ही कुछ कला के प्रेत,
कविता के ओझा-गुनी,
किस्सागोई के जादूगर ।
नीलामी हो चुकी थी,
बोली लगाने वाले जा चुके थे ।
यह एक खूनी युद्ध जैसे खेल के
बाद की थकान थी जो
सबपर हावी थी।
हत्यारे भी सोने जा चुके थे
कल जल्दी उठकर अपना काम शुरू करने के लिए ।

(16जून, 2020)

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