कवि नीरज नहीं रहे I यह बर्बर समय उनके गीतों की निश्छल रूमानियत के लिए किसी हत्यारे सरीखा निर्मम था I नीरज कोई गंभीर साहित्यिक मूल्यों वाली कविता के रचयिता नहीं थे I वे मंच और फिल्मों के परिष्कृत गीतकार थे जिनके गीतों को गुनगुनाते हुए तीन पीढ़ियाँ सयानी हुईं I नीरज दरअसल नेहरूकालीन भारत की यूटोपियाई, आदर्शवादी रूमानियत और मूल्यों के गीतकार थे, वही रूमानियत जिसके अलग-अलग रूप 50 और 60 के दशक की फिल्मों में देखने को मिलते थे, विशेषकर राजकपूर और गुरुदत्त की फिल्मों में I
किसी ख़ास मूड में नीरज की ये पंक्तियाँ मुझे अच्छी लगती हैं :
"सपना क्या है, नयन सेज पर सोया हुआ आँख का पानी
... ... ...
कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है "
कभी कुछ उदास लम्हों में शायद 'मेरा नाम जोकर' का यह गीत आप भी गुनगुनाते हों :
"गम जब सताए तो सीटी बजाना
पर मसखरे से दिल ना लगाना
कहता है जोकर सारा जमाना
आधी हक़ीक़त आधा फ़साना "
मुझे तो 'शर्मीली' फिल्म का यह चलताऊ गीत भी एक टीस भरी उदासी से भर देता है:
"खिलते है गुल यहाँ खिल के बिखरने को
मिलते हैं दिल यहाँ मिलके बिछड़ने को ..."
नीरज निजता के सुखद-दुखद अहसासों के कुशल चितेरे थे, और साथ ही, उनमें सामाजिक सरोकारों और मानवीय मूल्यों का भी एक सहज बोध था, भले ही उसकी ज़मीन आदर्शवादी, भाववादी और रूमानी हो I
उनका समय तो पहले ही बीत चुका था, अब उनका जीवन भी बीत गया I
(20जुलाई,2018)
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