Tuesday, May 08, 2018

प्रबोधनकालीन दार्शनिकों के आदर्श और पूँजीवादी समाज का यथार्थ



"... वे (प्रबोधनकाल के दार्शनिक) एक बुद्धिसंगत राज्य तथा एक बुद्धिसंगत समाज की स्थापना करना चाहते थे I वे ऐसी प्रत्येक वस्तु को निर्ममतापूर्वक हटा देना चाहते थे, जो शाश्वत बुद्धि के ख़िलाफ़ जाती थी Iहमने यह भी देखा था कि वह शाश्वत बुद्धि वास्तव में अठारहवीं शताब्दी के उस नागरिक की समझ के आदर्श रूप के सिवा और कुछ नहीं थी, जिसका ठीक उसीसमय पूँजीपति के रूप में विकास हो रहा था Iइस बुद्धिसंगत समाज और बुद्धिसंगत राज्य को फ्रांसीसी क्रांति ने मूर्त रूप दिया था I नयी व्यवस्था पुरानी परिस्थितियों की तुलना में तो काफ़ी बुद्धिसंगत थी, परन्तु पता चला कि वह सर्वथा बुद्धिसंगत कदापि नहीं है I बुद्धि पर आधारित राज्य पूर्णतया ध्वस्त हो गया I रूसो की सामाजिक संविदा ने आतंक के शासन में मूर्त रूप प्राप्त किया था, जिससे घबराकर पूंजीपति वर्ग ने, जिसका स्वयं अपनी राजनीतिक क्षमता में विश्वास समाप्त हो गया था, पहले डायरेक्टरेट की भ्रष्टता की शरण ली, और अंत में वह नेपोलियन की निरंकुशता की गोद में जाकर बैठ गया I वायदा किया गया था किअब सदा शांति रहेगी I पर वह शाश्वत शांति दूसरे देशों को जीतने के एक अंतहीन युद्ध में बदल गयी I बुद्धि पर आधारित समाज का हाल इससे बेहतर नहीं था Iअमीर और ग़रीब का भेद मिटाकर सामान्य समृद्धि नहीं आयी, बल्कि शिल्पी संघों के तथा अन्य प्रकार के उन विशेषाधिकारों के समाप्त कर दिए जाने के फलस्वरूप, जिनसे कुछ हद तक यह विरोध कम हो जाता था, और चर्च की दानशील संस्थाओं के ख़त्म कर दिए जाने के फलस्वरूप यह विरोध और तीव्र हो गया I पूँजीवादी आधार पर उद्योग का जो विकास हुआ, उसने श्रमिक जनता की दरिद्रता और कष्टों को समाज के अस्तित्व की आवश्यक शर्त बना दिया Iअपराध की संख्या वर्ष प्रति वर्ष बढ़ती चली गयी I पहले सामंती दुराचार दिन दहाड़े होता था: अब वह समाप्त तो नहीं हो गया था, पर कम से कम पृष्ठभूमि में ज़रूर चला गया था I उसके स्थान पर पूँजीवादी अनाचार , जो इसके पहले परदे के पीछे हुआ करता था, अब प्रचुर रूप में बढ़ने लगा था I व्यापार अधिकाधिक धोखेबाज़ी बनाता गया I क्रांतिकारी आदर्श-सूत्र के "बंधुत्व" ने होड़ के मैदान की ठगी तथा प्रतिस्पर्धा में मूर्त रूप प्राप्त किया I बलपूर्वक उत्पीड़न का स्थान भ्रष्टाचार ने ले लिया I समाज में ऊपर उठाने के प्रथम साधन के रूप में तलवार का स्थान सोने ने ग्रहण कर लिया I लड़कियों के साथ पहली रात सोने का अधिकार सामंती प्रभुओं के बजाय पूँजीवादी कारखानेदारों को मिल गया I वेश्यावृत्ति में इतनी अधिक वृद्धि हो गयी, जो पहले कभी सुनी नहीं गयी थी I विवाह प्रथा अब भी पहले की तरह वेश्यावृत्ति का क़ानूनी मान्यताप्राप्त रूप तथा उसकी सरकारी रामनामी बनी हुई थी, और इसके अलावा व्यापक परस्त्रीगमन उसके अनुपूरक का काम कर रहा था I संक्षेप में दार्शनिकों ने जो सुन्दर वायदे किये थे, उनकी तुलना में "बुद्धि की विजय" से उत्पन्न सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाएं घोर निराशाजनक व्यंग्यचित्र प्रतीत होती थीं I
--- फ्रेडरिक एंगेल्स (ड्यूहरिंग मत-खण्डन)

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