-- कविता कृष्णपल्लवी
सर्दियों ने अभी ठीक से दस्तक भी न दी थी कि दिल्ली और आसपास के शहरों में धुँआ और कोहरा आपस में मिलकर सड़कों और घरों पर एक स्लेटी चादर की तरह पसर गये और लोगों का साँस लेना दूभर हो गया। 'स्मोक' और फॉग' को मिलाकर इसे दुनिया भर में 'स्मॉग' कहा जाता है। हिन्दी में धुँआ और कुहासा को जोड़कर 'धुँआसा' भी कहा जा सकता है। यह जाड़ा के दिनों की स्थायी समस्या है जो साल-दर-साल गम्भीर होती जा रही है।
दिशाहीन विकास के नाम पर मुनाफ़ा कूटने की अनियंत्रित अंधी हवस और धनपतियों की विलासिता की कीमत जहाँ ग़रीब मेहनतकश आबादी अपनी हडि्डयाँ गलाकार चुकाती है, वहीं पूरा समाज भी वायु-प्रदूषण और जल-प्रदूषण के घातक दुष्प्रभावों के रूप में इनका अंजाम भुगतता है। बेशक इन विभीषिकाओं से सबसे कम प्रभावित वे लोग होते हैं जो अपने एयर-फिल्टर और ए.सी. लगे घरों, दफ़्तरों, क्लबों और जिम में समय बिताते हैं और सड़कों पर ए.सी. गाड़ियों में चलते हैं, लेकिन पूरी तरह से अछूते तो वे भी नहीं रह सकते। यह बात यहाँ भी लागू होती है कि पूँजी की राक्षसी स्वयं पूँजीपतियों के बच्चों को भी अपना शिकार बनाती है।
वायु-प्रदूषण, और विशेषकर ठण्डे मौसम में शहरों में स्मॉग की समस्या, एक विश्वव्यापी समस्या है। लेकिन विशेष तौर पर यह समस्या एशिया-अफ्रीका-लातिन अमेरिका के उन देशों में अतिगम्भीर है, जहाँ निम्न गुणवत्ता वाले डीजल-पेट्रोल और बिटुमिनस कोयला का ऊर्जा के मुख्य स्रोत के रूप में इस्तेमाल होता है, ग़रीबों के घरों में ईधन के रूप में लकड़ी, उपलों और केरोसिन का प्रयोग होता है, जहाँ सार्वजनिक यातायात साधनों की दुर्व्यवस्था सड़कों पर अमीरों के निजी वाहनों का रेलमपेल कर देती है और जहाँ शहरी कूड़े के निस्तारण की समुचित व्यवस्था का भी प्राय: नितान्त अभाव होता है। इन पिछड़े पूँजीवादी देशों में भी भारत सबसे आगे है। इसका एक प्रमुख कारण यहाँ की लद्धड़ और अतिभ्रष्ट नौकरशाही और नेताशाही भी है। तमाम कानूनों को ताक पर रखकर शहरों के कारखानों की बिना फिल्टर लगी चिमनियाँ वायुमण्डल में ज़हरीला धुँआ उगलती रहती हैं। अल्यूमीनियम और सीसा (लेड) मिश्रित निम्नस्तरीय डीज़ल और पेट्रोल के इस्तेमाल के मामले में भी भारत सबसे अगली कतार के देशों में है। महानगरों के लैण्डफिल साइट्स पर कूड़ा महीनों तक, और कहीं-कहीं बरसों तक जलता रहता है (इसका जीता-जागता उदाहरण उत्तरी दिल्ली के मकरबा चौक के निकट स्थित लैण्डफिल साइट है)।
यूँ तो वायु प्रदूषण की समस्या अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और जापान जैसे पश्चिम के कई विकसित देशों के महानगरों में भी मौजूद है, लेकिन काफी हद तक नियंत्रित है क्योंकि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक ऊर्जा-स्रोत के रूप में कोयला और निम्नस्तरीय डीजल-पेट्रोल के व्यापक इस्तेमाल के बाद ये देश अब उच्चस्तर के शोधित डीजल-पेट्रोल-गैस, पनबिजली, नाभिकीय ऊर्जा आदि का इस्तेमाल करने लगे हैं। यूरोप के कई देश सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा जैसे वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर अपना ज़ोर बढ़ाते जा रहे हैं। इन विकसित देशों का साम्राज्यवादी शासक वर्ग पिछड़े देशों की आम जनता की ज़िन्दगी को नर्क बनाकर अपनी देश की जनता को कुछ सहूलियतें इसलिए देता है ताकि दैत्य के दुर्ग में तूफ़ान न पैदा हो। दूसरा कारण यह है कि इन देशों के नागरिक अपने बुनियादी अधिकारों तथा स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे मुद्दों पर अधिक जागरूक हैं। विकसित देशों की अकूत मुनाफाखोरी, विलासितापूर्ण जीवन-शैली और अत्यधिक ऊर्जा खपत के चलते भले ही अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन के परिणामस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत में छेद, ग्लेशियरों के पिघलने, समुद्र की जल सतह ऊपर उठने, रेगिस्तानों के विस्तार और जैव-विविधता कम होने जैसी भयावह पर्यावरणीय तबाही की ओर दुनिया बढ़ती जा रही हो, लेकिन वायु प्रदूषण से बीमारियों और मौत की जो विभीषिका प्रत्यक्ष और तात्कालिक तौर पर तीसरी दुनिया के पिछड़े पूँजीवादी देशों के नागरिक भुगत रहे हैं, वैसी स्थिति पश्चिमी देशों में नहीं है। इसका कारण यह है कि पिछड़े पूँजीवादी देशों का पूँजीपति वर्ग कम से कम लागत लगाकर ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा कूटने के लिए बेताब है। पूँजीवादी अपविकास की दौड़ में देर से शामिल होने के कारण वह हड़बड़ी में है और निचोड़े गये अधिशेष का एक छोटा हिस्सा भी प्रदूषण-नियंत्रण जैसे कामों पर खर्च नहीं करना चाहता। इन देशों में निवेश करने वाली विदेशी कम्पनियाँ भी पर्यावरण-मानकों को ताक पर रखकर अपना अतिलाभ सुनिश्चित करती हैं। पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के तौर पर काम करने वाली जो सरकार सालाना इन धन्ना सेठों का अरबों का कर्ज़ माफ़ करती है और सार्वजनिक सम्पत्ति को इनके हाथों कौड़ियों के मोल बेचती रहती है, वहीं वायु प्रदूषण पर नियंत्रण जैसे जनकल्याणकारी कार्यों पर ऊँट के मुँह में जीरा बराबर ख़र्च करती है और इस बजट का बड़ा हिस्सा भी भ्रष्टाचार, अव्यवस्था और योजनाहीनता की भेंट चढ़ जाता है। ऐसे अराजक जंगल तंत्र के मामले में भारत का स्थान पिछड़े पूँजीवादी देशों की अगली कतार में आता है। मेक्सिको, चीन, ब्राजील, अर्जेण्टीना जैसे तीसरी दुनिया के कई देशों ने तो फिर भी स्थिति की भयावहता को कम करने की कुछ कोशिशें कीं और इसमें कुछ कामयाबी भी हासिल की। मेक्सिको, ब्राजील और अर्जेण्टीना ने इसके लिए अपने महानगरों में नियोजन के पहलू पर बल दिया, उच्च गुणवत्ता वाले पेट्रोल-डीजल का इस्तेमाल शुरू किया, सार्वजनिक परिवहन सेवाओं में सुधार किया, कोयले के इस्तेमाल में लगातार कमी की और कारखानों के लिए प्रदूषण-सम्बन्धी कानूनों और उनपर अमल की निगरानी-व्यवस्था को सख़्त बना दिया। चीन में वायु-प्रदूषण की समस्या नयी सदी शुरू होने तक अत्यन्त गम्भीर हो चुकी थी। इसका कारण यह था कि 1980 के बाद, तेज औद्योगिक विकास के लिए चीन ने पर्यावरण-मानकों की लगभग चौथाई सदी तक कोई परवाह नहीं की और इस मंजिल तक जा पहुँचा कि मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में उसने अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है, दुनिया के कुल कच्चे स्टील के उत्पादन में आधा हिस्सा चीन का है और 2011 से 2013 के बीच उसने जितने सीमेण्ट का इस्तेमाल किया, वह अमेरिका द्वारा समूची बीसवीं सदी में इस्तेमाल किये गये सीमेण्ट का डेढ़ गुना था। इन सभी कामों में उसने ऊर्जा के लिए सबसे अधिक कोयला का इस्तेमाल किया। जल्दी ही इसके भयावह नतीज़े सामने आये। राजधानी बीजिंग और अधिकांश औद्योगिक महानगरों में 'स्मॉग' के कारण सड़कों पर निकलना दूभर हो गया। फेफड़े और दिल की बीमारियाँ और इनसे मरने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़ने लगीं। गत बीजिंग ओलंपिक के पहले वायु-प्रदूषण की इस समस्या की जब पूरी दुनिया में चर्चा होने लगी तो चीन सरकार ने प्रदूषण-नियंत्रण के लिए तेज़ और सख़्त कदम उठाये। प्रदूषण-नियंत्रण के कानूनों को सख़्त बनाया गया, सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाया गया, महानगरों की सड़कों पर निजी वाहनों की संख्या कम करने के कारगर उपाय किये गये और ऊर्जा स्रोत के रूप में कोयला के इस्तेमाल को धीरे-धीरे कम करते हुए पनबिजली, सौर ऊर्जा आदि वैकल्पिक स्रोतों पर ज़ोर बढ़ाया जाने लगा। आज चीन सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, पनबिजली जैसे ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के विकास पर दुनिया में सबसे अधिक धन खर्च कर रहा है। औद्योगिक विकास के स्तर और रफ्तार के मामले में भारत चीन से काफी पीछे है, लेकिन वायु प्रदूषण की विभीषिका को झेलने के मामले में काफी आगे है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2014 की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 13 भारत के थे। इन 20 प्रदूषित शहरों में पहला स्थान दिल्ली का था। 'सेण्टर फॉर साइन्स ऐण्ड एनवायरमेंट' की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में प्रदूषण का स्तर डब्ल्यू.एच.ओ. द्वारा प्रस्तावित मानक से 12 गुना अधिक पाया गया। दिल्ली में हर साल प्रदूषण जनित बीमारियों से 10 हजार से लेकर 30 हजार तक मौतें होती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इन मौतों का आँकड़ा 6 लाख 50 हजार है। यूनिसेफ की 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ वायु प्रदूषण के कारण हर पाँच वर्षों के दौरान दुनिया में 6 लाख बच्चों की मौत होती है। दुनिया के दो अरब बच्चे प्रदूषित हवा में साँस लेते हैं। इनमें से 62 करोड़ बच्चे दक्षिण एशिया के (जिनमें भारत सबसे ऊपर है), 52 करोड़ अफ्रीका के तथा 45 करोड़ पूर्वी एशिया व प्रशान्त क्षेत्र के हैं। प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य पर बढ़ा खर्च वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (ग्लोबल जी.डी.पी.) का 0.3 प्रतिशत है। अकेले 2014 में यह 77.83 ट्रिलियन डालर था। अबतक के शोधों के अनुसार, वायु प्रदूषण से टी.बी., दमा, फेफड़ों के कैंसर और दिल के रोगों के साथ ही दिमाग़ भी क्षतिग्रस्त हो जाता है। गर्भवती स्त्रियाँ, गर्भस्थ बच्चे और कम उम्र के बच्चे इससे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं।
पिछले कई वर्षों से वायु प्रदूषण के मामले में भारत की स्थिति दुनिया में सबसे ख़राब बनी हुई है और हर आने वाले वर्ष के साथ बद से बदतर होती जा रही है। 2015 में ग्रीनपीस, इण्डिया ने अपनी एक जाँच में भारत के 168 में से 154 शहरों में (यानी 90 प्रतिशत शहरों में) वायु प्रदूषण राष्ट्रीय पैमाने पर निर्धारित स्तर से अधिक पाया। इन 168 में से एक भी शहर में वायु प्रदूषण विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित स्तर से नीचे नहीं था। यह रिपोर्ट पी एम 10 के वार्षिक औसत के आधार पर तैयार की गयी थी। पी एम 10 हवा में मौजूद वह पार्टिक्युलेट मैटर होता है, जिसका व्यास 10 माइक्रॉन या माइक्रोमीटर होता है। पी एम 10 की गणना में पी एम 2.5 भी शामिल होता है, जो बेहद खतरनाक होता है। पी एम10मुख्यत: सड़क और निर्माण कार्यों की धूल से पैदा होता है, जबकि पी एम2.5 मख्यत: वाहनों, कारखानों में जीवाष्म ईंधन की खपत और लकड़ी, भूसा, पराली आदि जलाने से पैदा होता है। उक्त रिपोर्ट में दिल्ली को सर्वाधिक प्रदूषित शहर पाया गया जहाँ प्रति क्यूविक मीटर 268 माइक्रोगाम पी एम 10 मौजूद था। गाजियाबाद, बरेली, फरीदाबाद और इलाहाबाद भी इस मामले में दिल्ली के काफी निकट थे। यह स्थिति, हर साल जाड़े के दिनों में मीडिया में मचने वाले तमाम चीख-पुकार के बावजूद दिन पर दिन ज्यादा से ज्यादा बदतर होती चली गयी है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस वर्ष उत्तर भारत के सभी प्रमुख शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित मानक से काफी ऊपर पाया। इसे निम्नलिखित तालिका से आसानी से समझा जा सकता है:
दिशाहीन विकास के नाम पर मुनाफ़ा कूटने की अनियंत्रित अंधी हवस और धनपतियों की विलासिता की कीमत जहाँ ग़रीब मेहनतकश आबादी अपनी हडि्डयाँ गलाकार चुकाती है, वहीं पूरा समाज भी वायु-प्रदूषण और जल-प्रदूषण के घातक दुष्प्रभावों के रूप में इनका अंजाम भुगतता है। बेशक इन विभीषिकाओं से सबसे कम प्रभावित वे लोग होते हैं जो अपने एयर-फिल्टर और ए.सी. लगे घरों, दफ़्तरों, क्लबों और जिम में समय बिताते हैं और सड़कों पर ए.सी. गाड़ियों में चलते हैं, लेकिन पूरी तरह से अछूते तो वे भी नहीं रह सकते। यह बात यहाँ भी लागू होती है कि पूँजी की राक्षसी स्वयं पूँजीपतियों के बच्चों को भी अपना शिकार बनाती है।
वायु-प्रदूषण, और विशेषकर ठण्डे मौसम में शहरों में स्मॉग की समस्या, एक विश्वव्यापी समस्या है। लेकिन विशेष तौर पर यह समस्या एशिया-अफ्रीका-लातिन अमेरिका के उन देशों में अतिगम्भीर है, जहाँ निम्न गुणवत्ता वाले डीजल-पेट्रोल और बिटुमिनस कोयला का ऊर्जा के मुख्य स्रोत के रूप में इस्तेमाल होता है, ग़रीबों के घरों में ईधन के रूप में लकड़ी, उपलों और केरोसिन का प्रयोग होता है, जहाँ सार्वजनिक यातायात साधनों की दुर्व्यवस्था सड़कों पर अमीरों के निजी वाहनों का रेलमपेल कर देती है और जहाँ शहरी कूड़े के निस्तारण की समुचित व्यवस्था का भी प्राय: नितान्त अभाव होता है। इन पिछड़े पूँजीवादी देशों में भी भारत सबसे आगे है। इसका एक प्रमुख कारण यहाँ की लद्धड़ और अतिभ्रष्ट नौकरशाही और नेताशाही भी है। तमाम कानूनों को ताक पर रखकर शहरों के कारखानों की बिना फिल्टर लगी चिमनियाँ वायुमण्डल में ज़हरीला धुँआ उगलती रहती हैं। अल्यूमीनियम और सीसा (लेड) मिश्रित निम्नस्तरीय डीज़ल और पेट्रोल के इस्तेमाल के मामले में भी भारत सबसे अगली कतार के देशों में है। महानगरों के लैण्डफिल साइट्स पर कूड़ा महीनों तक, और कहीं-कहीं बरसों तक जलता रहता है (इसका जीता-जागता उदाहरण उत्तरी दिल्ली के मकरबा चौक के निकट स्थित लैण्डफिल साइट है)।
यूँ तो वायु प्रदूषण की समस्या अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और जापान जैसे पश्चिम के कई विकसित देशों के महानगरों में भी मौजूद है, लेकिन काफी हद तक नियंत्रित है क्योंकि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक ऊर्जा-स्रोत के रूप में कोयला और निम्नस्तरीय डीजल-पेट्रोल के व्यापक इस्तेमाल के बाद ये देश अब उच्चस्तर के शोधित डीजल-पेट्रोल-गैस, पनबिजली, नाभिकीय ऊर्जा आदि का इस्तेमाल करने लगे हैं। यूरोप के कई देश सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा जैसे वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर अपना ज़ोर बढ़ाते जा रहे हैं। इन विकसित देशों का साम्राज्यवादी शासक वर्ग पिछड़े देशों की आम जनता की ज़िन्दगी को नर्क बनाकर अपनी देश की जनता को कुछ सहूलियतें इसलिए देता है ताकि दैत्य के दुर्ग में तूफ़ान न पैदा हो। दूसरा कारण यह है कि इन देशों के नागरिक अपने बुनियादी अधिकारों तथा स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे मुद्दों पर अधिक जागरूक हैं। विकसित देशों की अकूत मुनाफाखोरी, विलासितापूर्ण जीवन-शैली और अत्यधिक ऊर्जा खपत के चलते भले ही अत्यधिक कार्बन उत्सर्जन के परिणामस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत में छेद, ग्लेशियरों के पिघलने, समुद्र की जल सतह ऊपर उठने, रेगिस्तानों के विस्तार और जैव-विविधता कम होने जैसी भयावह पर्यावरणीय तबाही की ओर दुनिया बढ़ती जा रही हो, लेकिन वायु प्रदूषण से बीमारियों और मौत की जो विभीषिका प्रत्यक्ष और तात्कालिक तौर पर तीसरी दुनिया के पिछड़े पूँजीवादी देशों के नागरिक भुगत रहे हैं, वैसी स्थिति पश्चिमी देशों में नहीं है। इसका कारण यह है कि पिछड़े पूँजीवादी देशों का पूँजीपति वर्ग कम से कम लागत लगाकर ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा कूटने के लिए बेताब है। पूँजीवादी अपविकास की दौड़ में देर से शामिल होने के कारण वह हड़बड़ी में है और निचोड़े गये अधिशेष का एक छोटा हिस्सा भी प्रदूषण-नियंत्रण जैसे कामों पर खर्च नहीं करना चाहता। इन देशों में निवेश करने वाली विदेशी कम्पनियाँ भी पर्यावरण-मानकों को ताक पर रखकर अपना अतिलाभ सुनिश्चित करती हैं। पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के तौर पर काम करने वाली जो सरकार सालाना इन धन्ना सेठों का अरबों का कर्ज़ माफ़ करती है और सार्वजनिक सम्पत्ति को इनके हाथों कौड़ियों के मोल बेचती रहती है, वहीं वायु प्रदूषण पर नियंत्रण जैसे जनकल्याणकारी कार्यों पर ऊँट के मुँह में जीरा बराबर ख़र्च करती है और इस बजट का बड़ा हिस्सा भी भ्रष्टाचार, अव्यवस्था और योजनाहीनता की भेंट चढ़ जाता है। ऐसे अराजक जंगल तंत्र के मामले में भारत का स्थान पिछड़े पूँजीवादी देशों की अगली कतार में आता है। मेक्सिको, चीन, ब्राजील, अर्जेण्टीना जैसे तीसरी दुनिया के कई देशों ने तो फिर भी स्थिति की भयावहता को कम करने की कुछ कोशिशें कीं और इसमें कुछ कामयाबी भी हासिल की। मेक्सिको, ब्राजील और अर्जेण्टीना ने इसके लिए अपने महानगरों में नियोजन के पहलू पर बल दिया, उच्च गुणवत्ता वाले पेट्रोल-डीजल का इस्तेमाल शुरू किया, सार्वजनिक परिवहन सेवाओं में सुधार किया, कोयले के इस्तेमाल में लगातार कमी की और कारखानों के लिए प्रदूषण-सम्बन्धी कानूनों और उनपर अमल की निगरानी-व्यवस्था को सख़्त बना दिया। चीन में वायु-प्रदूषण की समस्या नयी सदी शुरू होने तक अत्यन्त गम्भीर हो चुकी थी। इसका कारण यह था कि 1980 के बाद, तेज औद्योगिक विकास के लिए चीन ने पर्यावरण-मानकों की लगभग चौथाई सदी तक कोई परवाह नहीं की और इस मंजिल तक जा पहुँचा कि मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में उसने अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है, दुनिया के कुल कच्चे स्टील के उत्पादन में आधा हिस्सा चीन का है और 2011 से 2013 के बीच उसने जितने सीमेण्ट का इस्तेमाल किया, वह अमेरिका द्वारा समूची बीसवीं सदी में इस्तेमाल किये गये सीमेण्ट का डेढ़ गुना था। इन सभी कामों में उसने ऊर्जा के लिए सबसे अधिक कोयला का इस्तेमाल किया। जल्दी ही इसके भयावह नतीज़े सामने आये। राजधानी बीजिंग और अधिकांश औद्योगिक महानगरों में 'स्मॉग' के कारण सड़कों पर निकलना दूभर हो गया। फेफड़े और दिल की बीमारियाँ और इनसे मरने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़ने लगीं। गत बीजिंग ओलंपिक के पहले वायु-प्रदूषण की इस समस्या की जब पूरी दुनिया में चर्चा होने लगी तो चीन सरकार ने प्रदूषण-नियंत्रण के लिए तेज़ और सख़्त कदम उठाये। प्रदूषण-नियंत्रण के कानूनों को सख़्त बनाया गया, सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाया गया, महानगरों की सड़कों पर निजी वाहनों की संख्या कम करने के कारगर उपाय किये गये और ऊर्जा स्रोत के रूप में कोयला के इस्तेमाल को धीरे-धीरे कम करते हुए पनबिजली, सौर ऊर्जा आदि वैकल्पिक स्रोतों पर ज़ोर बढ़ाया जाने लगा। आज चीन सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, पनबिजली जैसे ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों के विकास पर दुनिया में सबसे अधिक धन खर्च कर रहा है। औद्योगिक विकास के स्तर और रफ्तार के मामले में भारत चीन से काफी पीछे है, लेकिन वायु प्रदूषण की विभीषिका को झेलने के मामले में काफी आगे है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2014 की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 13 भारत के थे। इन 20 प्रदूषित शहरों में पहला स्थान दिल्ली का था। 'सेण्टर फॉर साइन्स ऐण्ड एनवायरमेंट' की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में प्रदूषण का स्तर डब्ल्यू.एच.ओ. द्वारा प्रस्तावित मानक से 12 गुना अधिक पाया गया। दिल्ली में हर साल प्रदूषण जनित बीमारियों से 10 हजार से लेकर 30 हजार तक मौतें होती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इन मौतों का आँकड़ा 6 लाख 50 हजार है। यूनिसेफ की 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार सिर्फ वायु प्रदूषण के कारण हर पाँच वर्षों के दौरान दुनिया में 6 लाख बच्चों की मौत होती है। दुनिया के दो अरब बच्चे प्रदूषित हवा में साँस लेते हैं। इनमें से 62 करोड़ बच्चे दक्षिण एशिया के (जिनमें भारत सबसे ऊपर है), 52 करोड़ अफ्रीका के तथा 45 करोड़ पूर्वी एशिया व प्रशान्त क्षेत्र के हैं। प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य पर बढ़ा खर्च वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (ग्लोबल जी.डी.पी.) का 0.3 प्रतिशत है। अकेले 2014 में यह 77.83 ट्रिलियन डालर था। अबतक के शोधों के अनुसार, वायु प्रदूषण से टी.बी., दमा, फेफड़ों के कैंसर और दिल के रोगों के साथ ही दिमाग़ भी क्षतिग्रस्त हो जाता है। गर्भवती स्त्रियाँ, गर्भस्थ बच्चे और कम उम्र के बच्चे इससे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं।
पिछले कई वर्षों से वायु प्रदूषण के मामले में भारत की स्थिति दुनिया में सबसे ख़राब बनी हुई है और हर आने वाले वर्ष के साथ बद से बदतर होती जा रही है। 2015 में ग्रीनपीस, इण्डिया ने अपनी एक जाँच में भारत के 168 में से 154 शहरों में (यानी 90 प्रतिशत शहरों में) वायु प्रदूषण राष्ट्रीय पैमाने पर निर्धारित स्तर से अधिक पाया। इन 168 में से एक भी शहर में वायु प्रदूषण विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित स्तर से नीचे नहीं था। यह रिपोर्ट पी एम 10 के वार्षिक औसत के आधार पर तैयार की गयी थी। पी एम 10 हवा में मौजूद वह पार्टिक्युलेट मैटर होता है, जिसका व्यास 10 माइक्रॉन या माइक्रोमीटर होता है। पी एम 10 की गणना में पी एम 2.5 भी शामिल होता है, जो बेहद खतरनाक होता है। पी एम10मुख्यत: सड़क और निर्माण कार्यों की धूल से पैदा होता है, जबकि पी एम2.5 मख्यत: वाहनों, कारखानों में जीवाष्म ईंधन की खपत और लकड़ी, भूसा, पराली आदि जलाने से पैदा होता है। उक्त रिपोर्ट में दिल्ली को सर्वाधिक प्रदूषित शहर पाया गया जहाँ प्रति क्यूविक मीटर 268 माइक्रोगाम पी एम 10 मौजूद था। गाजियाबाद, बरेली, फरीदाबाद और इलाहाबाद भी इस मामले में दिल्ली के काफी निकट थे। यह स्थिति, हर साल जाड़े के दिनों में मीडिया में मचने वाले तमाम चीख-पुकार के बावजूद दिन पर दिन ज्यादा से ज्यादा बदतर होती चली गयी है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने इस वर्ष उत्तर भारत के सभी प्रमुख शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित मानक से काफी ऊपर पाया। इसे निम्नलिखित तालिका से आसानी से समझा जा सकता है:
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वायु गुणवत्ता सूचकांक (8नवम्बर 2017,4बजे अपरान्ह)
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आगरा बेहद खराब 394 पी एम 2.5
भिवाड़ी अति गम्भीर 467 पी एम 2.5
दिल्ली अति गम्भीर 478 पी एम 2.5, पी एम 10
फरीदाबाद अति गम्भीर 472 पी एम 2.5
गाजियाबाद बेहद खराब 372 पी एम 2.5
गुड़गॉंव अति गम्भीर 459 पी एम 2.5
लखनऊ अति गम्भीर 430 पी एम 2.5
नोएडा अति गम्भीर 469 पी एम 2.5
रोहतक अति गम्भीर 411 पी एम 2.5
मुरादाबाद अति गम्भीर 439 पी एम 2.5
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वायु गुणवत्ता सूचकांक (8नवम्बर 2017,4बजे अपरान्ह)
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आगरा बेहद खराब 394 पी एम 2.5
भिवाड़ी अति गम्भीर 467 पी एम 2.5
दिल्ली अति गम्भीर 478 पी एम 2.5, पी एम 10
फरीदाबाद अति गम्भीर 472 पी एम 2.5
गाजियाबाद बेहद खराब 372 पी एम 2.5
गुड़गॉंव अति गम्भीर 459 पी एम 2.5
लखनऊ अति गम्भीर 430 पी एम 2.5
नोएडा अति गम्भीर 469 पी एम 2.5
रोहतक अति गम्भीर 411 पी एम 2.5
मुरादाबाद अति गम्भीर 439 पी एम 2.5
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जाहिर है कि इस बेहद गम्भीर स्थिति के लिए कारखानों की अनियंत्रित धुँआ उगलती चिमनियों के साथ-साथ सउ़कों पर हर रोज़ बढ़ती वाहनों की संख्या ही मुख्य तौर ज़िम्मेदार है। अकेले दिल्ली की सड़कों पर रोज़ाना लगभग 90 लाख पेट्रोल और डीज़ल चालित वाहन होते हैं। जाड़े के दिनों में दिल्ली और पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में स्मॉग और प्रदूषण की समस्या को अतिगम्भीर बनाने वाला एक अतिरिक्त उपादान पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तर प्रदेश उत्तरांचल के तराई अंचल के किसानों द्वारा मध्य अक्टूबर से लेकर नवम्बर के शुरुआती हफ़्ते तक खेतों में धान की पराली जलाना होता है। इसमें पंजाब सबसे आगे है। दूसरे स्थान पर हरियाणा है, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश और तराई में भी यह चलन बढ़ता जा रहा है और अब राजस्थान भी इसकी चपेट में है।
हार्वेस्टर कम्बाइन जब धान की कटाई करता है तो धान का 50-60 सेण्टीमीटर डण्ठल खेत में ही छोड़ देता है, उसे ही पराली कहते हैं। उपरोक्त इलाकों के छोटे किसान तो अभी भी स्वयं हाथ से धान काटते हैं या मज़दूर लगाते हैं (कभी-कभार वे भी भाड़े पर हार्वेस्टर से कटाई कराते हैं), लेकिन बड़े किसान मज़दूरी का ख़र्च बचाकर आमद बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर पर मशीनीकरण का सहारा लेने लगे हैं और हार्वेस्टर कम्बाइन का इस्तेमाल करने लगे हैं। छोटे किसान यदि कम्बाइन का इस्तेमाल करते भी हैं तो ज्यादातर मामलों में पराली जलाते नहीं। उसे हाथ से काटकर वे पशुओं के चारे, जाड़े में उनके नीचे बिछाने या चटाई बनाने आदि में इस्तेमाल करते हैं।
पराली जलाने की अतिगम्भीर समस्या के कई तकनीकी समाधान आज मौजूद हैं। मैंने स्वयं गत 5 नवम्बर से 11 नवम्बर तक चण्डीगढ़ और पंजाब का दौरा किया और पराली जलाने से पैदा हुई गम्भीर समस्या की गवाह बनने के साथ ही इसके समाधान के मुद्दे पर भी कुछ जाँच-पड़ताल की।
पराली के निस्तारण का पहला विकल्प यह है कि हार्वेस्टर कम्बाइन के साथ एक से डेढ़ लाख रुपये की कीमत की 'सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेण्ट सिस्टम', (एस - एस.एम.एस.) नामक मशीन जोड़ दी जाये। यह मशीन पराली के ऊपरी भाग को काटकर मिट्टी में मिला देती है। जड़ें (टूँड़ी) ज़मीन में रह जाती है, जिसके रहते टी.एच.एस.मशीन (टर्बो हैप्पी सीडर) से गेहूँ की बुवाई की जा सकती है। सवा लाख कीमत की यह मशीन 50 हॉर्सपावर के ट्रैक्टर से जोड़कर चलाई जाती है। दूसरा विकल्प पराली को चॉपर से काटकर मिट्टी में मिलाकर टी.एच.एस. मशीन से गेहूँ की बुवाई कर देना है। चॉपर डेढ़ लाख रुपये का आता है और 50 हॉर्सपावर के ट्रैक्टर से चलता है। तीसरा विकल्प प्लाउर (ढाई लाख रुपये कीमत, 1200 रुपये प्रति एकड़ किराया) से पराली को मिट्टी में मिला देना है। चौथा विकल्प रोटावेटर का इस्तेमाल है, जिस मशीन की कीमत तो 20 लाख से अधिक होती है, पर किराये पर इस्तेमाल करने पर एक राउण्ड का डीज़ल खर्च 6-7 सौ रुपये पड़ता है। पाँचवाँ विकल्प बेलर का इस्तेमाल करके पराली को काटकर गाँठ बनाकर एक जगह रख देना है। फिर टी.एच.एस. से बुवाई की जा सकती है। बेलर की कीमत 2 से 10 लाख होती है और रेण्टल 1300 रुपये प्रति एकड़ के आसपास। कटी हुई पराली को छोटे किसानों को पशुओं के चारे के लिए बेचा जा सकता है या थर्मल पावर हाउस तक पहुँचाया जा सकता है। पराली से इथेनॉल और कार्डबोर्ड का भी उत्पादन किया जा सकता है।
सवाल तब यह उठता है कि इतने समाधानों के मौजूद रहते देश पराली जलाने से पैदा हुई जानलेवा समस्या का सामना क्यों कर रहा है? इसका उत्तर है, सरकार की वर्गीय पक्षधरता और सरकारी तंत्र में व्याप्त दुर्व्यवस्था। किसानों को मशीनरी पर 40 प्रतिशत सब्सिडी देने के लिए पंजाब सरकार ने केन्द्र को 1,109 करोड़ रुपये का प्रस्ताव भेजा, लेकिन उसे सिर्फ 48 करोड़ मिले। इसमें से भी राज्य सरकार के वित्त विभाग ने सिर्फ 30 करोड़ सरकारी खजाने से निकालने की मंजूरी दी और यह रकम भी किसानों के पास तब पहुँची जब गेहूँ की बुवाई शुरू हो चुकी थी। दूसरी बात, एस - एस.एम.एस. मशीन और टी.एच.एस. मशीनें जो सबसे उपयोगी हैं, उन्हें बनाने वाले कम हैं और ये मशीनें मँहगी हैं। तीसरी बात, किसानों के सब्सिडी बिल्स पेण्डिंग पड़े रहते हैं। चौथी बात, सरकार बड़े किसानों पर सख़्ती करने से कतराती है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के निर्देश पर पंजाब सरकार ने पहले पराली जलाने वाले किसानों पर प्राथमिकी दर्ज़ करना शुरू किया। फिर इसे रोक दिया गया। फिर पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड सिर्फ चालान काटने लगा। 9नवम्बर तक 66.27 लाख रुपये के कुल 2,351 चालान कटे थे लेकिन रिकवरी सिर्फ 4.88 लाख रुपये की हुई थी। पाँचवी बात, पंजाब में धान कुल 30 लाख हेक्टेयर में बोया जाता है जबकि उपलब्ध मशीनरी सिर्फ 2 लाख हेक्टेयर का प्रबंधन कर सकती है।
लेकिन इन सबमें प्रमुख कारण सरकार और प्रमुख चुनावी पार्टियों की वर्गीय पक्षधरता का है। पंजाब की कुल आबादी में सिर्फ 18 प्रतिशत किसान रह गये हैं। इस किसान आबादी में से 67 प्रतिशत छोटे किसान हैं। शेष मुट्ठी भर जो धनी किसान हैं, उन्हीं के पास खेती की ज़मीन का 90 प्रतिशत के आसपास है और वही पराली जलाते हैं। छोटे किसान पराली नहीं जलाते हैं। अदूरदर्शी मुनाफाखोर बड़े किसान यह नहीं सोच पाते कि पराली जलाने से खेत की मिट्टी से पोषक जैविक तत्वों का भारी विनाश होता है और रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों पर उनकी निर्भरता बढ़ती जाती है। वे सिर्फ तात्कालिक बचत और मुनाफे के बारे में सोचते हैं। इन धनी किसानों को कोई भी सरकार नाराज़ नहीं करना चाहती, चाहे वो कांग्रेस की हो या अकाली दल - बी. जे. पी. की। एक परिचित और प्रगतिशील विचारों के धनी किसान ने मुझे पंजाब में बताया कि पराली के निस्तारण में, अलग-अलग विकल्पों के इस्तेमाल के हिसाब से प्रति एकड़ 5 सौ रुपये से 2,000 रुपये तक का खर्च आता है। प्रति एकड़ 50 से 60 हज़ार रुपये की आमदनी करने वाला धनी किसान चाहे तो ऐसा आसानी से कर सकता है, लेकिन वह नहीं करता क्योंकि सरकार और प्रशासन उसके प्रति नरमी का रुख अपनाते हैं।
अंत में, कुल मिलाकर, यही कहा जा सकता है कि वायु प्रदूषण की समस्या पूँजीवादी समाज व्यवस्था की अन्तर्निहित अराजकता, समृद्धिशाली वर्गों की निकृष्ट स्वार्थपरता और विलासिता तथा पूँजीवादी समाज में सरकारों की वर्गीय पक्षधरता का परिणाम है। जन समुदाय यदि जागरूक होकर और संगठित होकर दबाव बनाये, तभी सत्तातंत्र को इस समस्या से राहत दिलाने के लिए कुछ सार्थक कदम उठाने को बाध्य किया जा सकता है। और इस समस्या का अंतिम और निर्णायक समाधान तभी हो सकता है जब लोभ-लाभ और स्वार्थपरता की जननी पूँजीवादी व्यवस्था का जन समुदाय द्वारा शवदाह कर दिया जाये।
हार्वेस्टर कम्बाइन जब धान की कटाई करता है तो धान का 50-60 सेण्टीमीटर डण्ठल खेत में ही छोड़ देता है, उसे ही पराली कहते हैं। उपरोक्त इलाकों के छोटे किसान तो अभी भी स्वयं हाथ से धान काटते हैं या मज़दूर लगाते हैं (कभी-कभार वे भी भाड़े पर हार्वेस्टर से कटाई कराते हैं), लेकिन बड़े किसान मज़दूरी का ख़र्च बचाकर आमद बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर पर मशीनीकरण का सहारा लेने लगे हैं और हार्वेस्टर कम्बाइन का इस्तेमाल करने लगे हैं। छोटे किसान यदि कम्बाइन का इस्तेमाल करते भी हैं तो ज्यादातर मामलों में पराली जलाते नहीं। उसे हाथ से काटकर वे पशुओं के चारे, जाड़े में उनके नीचे बिछाने या चटाई बनाने आदि में इस्तेमाल करते हैं।
पराली जलाने की अतिगम्भीर समस्या के कई तकनीकी समाधान आज मौजूद हैं। मैंने स्वयं गत 5 नवम्बर से 11 नवम्बर तक चण्डीगढ़ और पंजाब का दौरा किया और पराली जलाने से पैदा हुई गम्भीर समस्या की गवाह बनने के साथ ही इसके समाधान के मुद्दे पर भी कुछ जाँच-पड़ताल की।
पराली के निस्तारण का पहला विकल्प यह है कि हार्वेस्टर कम्बाइन के साथ एक से डेढ़ लाख रुपये की कीमत की 'सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेण्ट सिस्टम', (एस - एस.एम.एस.) नामक मशीन जोड़ दी जाये। यह मशीन पराली के ऊपरी भाग को काटकर मिट्टी में मिला देती है। जड़ें (टूँड़ी) ज़मीन में रह जाती है, जिसके रहते टी.एच.एस.मशीन (टर्बो हैप्पी सीडर) से गेहूँ की बुवाई की जा सकती है। सवा लाख कीमत की यह मशीन 50 हॉर्सपावर के ट्रैक्टर से जोड़कर चलाई जाती है। दूसरा विकल्प पराली को चॉपर से काटकर मिट्टी में मिलाकर टी.एच.एस. मशीन से गेहूँ की बुवाई कर देना है। चॉपर डेढ़ लाख रुपये का आता है और 50 हॉर्सपावर के ट्रैक्टर से चलता है। तीसरा विकल्प प्लाउर (ढाई लाख रुपये कीमत, 1200 रुपये प्रति एकड़ किराया) से पराली को मिट्टी में मिला देना है। चौथा विकल्प रोटावेटर का इस्तेमाल है, जिस मशीन की कीमत तो 20 लाख से अधिक होती है, पर किराये पर इस्तेमाल करने पर एक राउण्ड का डीज़ल खर्च 6-7 सौ रुपये पड़ता है। पाँचवाँ विकल्प बेलर का इस्तेमाल करके पराली को काटकर गाँठ बनाकर एक जगह रख देना है। फिर टी.एच.एस. से बुवाई की जा सकती है। बेलर की कीमत 2 से 10 लाख होती है और रेण्टल 1300 रुपये प्रति एकड़ के आसपास। कटी हुई पराली को छोटे किसानों को पशुओं के चारे के लिए बेचा जा सकता है या थर्मल पावर हाउस तक पहुँचाया जा सकता है। पराली से इथेनॉल और कार्डबोर्ड का भी उत्पादन किया जा सकता है।
सवाल तब यह उठता है कि इतने समाधानों के मौजूद रहते देश पराली जलाने से पैदा हुई जानलेवा समस्या का सामना क्यों कर रहा है? इसका उत्तर है, सरकार की वर्गीय पक्षधरता और सरकारी तंत्र में व्याप्त दुर्व्यवस्था। किसानों को मशीनरी पर 40 प्रतिशत सब्सिडी देने के लिए पंजाब सरकार ने केन्द्र को 1,109 करोड़ रुपये का प्रस्ताव भेजा, लेकिन उसे सिर्फ 48 करोड़ मिले। इसमें से भी राज्य सरकार के वित्त विभाग ने सिर्फ 30 करोड़ सरकारी खजाने से निकालने की मंजूरी दी और यह रकम भी किसानों के पास तब पहुँची जब गेहूँ की बुवाई शुरू हो चुकी थी। दूसरी बात, एस - एस.एम.एस. मशीन और टी.एच.एस. मशीनें जो सबसे उपयोगी हैं, उन्हें बनाने वाले कम हैं और ये मशीनें मँहगी हैं। तीसरी बात, किसानों के सब्सिडी बिल्स पेण्डिंग पड़े रहते हैं। चौथी बात, सरकार बड़े किसानों पर सख़्ती करने से कतराती है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के निर्देश पर पंजाब सरकार ने पहले पराली जलाने वाले किसानों पर प्राथमिकी दर्ज़ करना शुरू किया। फिर इसे रोक दिया गया। फिर पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड सिर्फ चालान काटने लगा। 9नवम्बर तक 66.27 लाख रुपये के कुल 2,351 चालान कटे थे लेकिन रिकवरी सिर्फ 4.88 लाख रुपये की हुई थी। पाँचवी बात, पंजाब में धान कुल 30 लाख हेक्टेयर में बोया जाता है जबकि उपलब्ध मशीनरी सिर्फ 2 लाख हेक्टेयर का प्रबंधन कर सकती है।
लेकिन इन सबमें प्रमुख कारण सरकार और प्रमुख चुनावी पार्टियों की वर्गीय पक्षधरता का है। पंजाब की कुल आबादी में सिर्फ 18 प्रतिशत किसान रह गये हैं। इस किसान आबादी में से 67 प्रतिशत छोटे किसान हैं। शेष मुट्ठी भर जो धनी किसान हैं, उन्हीं के पास खेती की ज़मीन का 90 प्रतिशत के आसपास है और वही पराली जलाते हैं। छोटे किसान पराली नहीं जलाते हैं। अदूरदर्शी मुनाफाखोर बड़े किसान यह नहीं सोच पाते कि पराली जलाने से खेत की मिट्टी से पोषक जैविक तत्वों का भारी विनाश होता है और रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों पर उनकी निर्भरता बढ़ती जाती है। वे सिर्फ तात्कालिक बचत और मुनाफे के बारे में सोचते हैं। इन धनी किसानों को कोई भी सरकार नाराज़ नहीं करना चाहती, चाहे वो कांग्रेस की हो या अकाली दल - बी. जे. पी. की। एक परिचित और प्रगतिशील विचारों के धनी किसान ने मुझे पंजाब में बताया कि पराली के निस्तारण में, अलग-अलग विकल्पों के इस्तेमाल के हिसाब से प्रति एकड़ 5 सौ रुपये से 2,000 रुपये तक का खर्च आता है। प्रति एकड़ 50 से 60 हज़ार रुपये की आमदनी करने वाला धनी किसान चाहे तो ऐसा आसानी से कर सकता है, लेकिन वह नहीं करता क्योंकि सरकार और प्रशासन उसके प्रति नरमी का रुख अपनाते हैं।
अंत में, कुल मिलाकर, यही कहा जा सकता है कि वायु प्रदूषण की समस्या पूँजीवादी समाज व्यवस्था की अन्तर्निहित अराजकता, समृद्धिशाली वर्गों की निकृष्ट स्वार्थपरता और विलासिता तथा पूँजीवादी समाज में सरकारों की वर्गीय पक्षधरता का परिणाम है। जन समुदाय यदि जागरूक होकर और संगठित होकर दबाव बनाये, तभी सत्तातंत्र को इस समस्या से राहत दिलाने के लिए कुछ सार्थक कदम उठाने को बाध्य किया जा सकता है। और इस समस्या का अंतिम और निर्णायक समाधान तभी हो सकता है जब लोभ-लाभ और स्वार्थपरता की जननी पूँजीवादी व्यवस्था का जन समुदाय द्वारा शवदाह कर दिया जाये।
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