समाजवाद के निर्माण का अर्थ केवल विशालकाय फैक्ट्रियों और आटे की मिलों का निर्माण करना नहीं है। ये चीज़ें ज़रूरी हैं, किन्तु समाजवाद का निर्माण इतने से ही नहीं हो सकता। आवश्यक है कि लोगों के मस्तिष्कों और हृदयों का भी विकास किया जाये। और, प्रत्येक व्यक्ति की इस वैयक्तिक उन्नति के आधार पर, अन्ततोगत्वा एक, नये प्रकार की बलशाली समाजवादी सामूहिक इच्छा की सृष्टि की जाये जिसके अन्दर ''मैं'' और ''हम'' अभिन्न रूप से मिलकर एकाकार हो जायें। इस तरह की सामूहिक इच्छा का विकास गहरी वैचारिक एकता तथा उतने ही गहरे पारस्परिक सौहार्द्र-भाव एवम् आपसी समझदारी के आधार पर ही किया जा सकता है।
और, इस क्षेत्र में, कला और साहित्य विशेष रूप से असाधारण भूमिका अदा कर सकते हैं। मार्क्स की ''पूँजी'' में एक अद्भुत अध्याय है; (क्रुप्स्काया ''पूँजी'' के तेरहवें अध्याय ''सहकारिता'' का उल्लेख कर रही हैं) उसका ऐसी सरल से सरल भाषा में मैं अनुवाद करना चाहती हूँ जिसे कि अर्ध-शिक्षित लोग भी समझ लें। वह अध्याय सहकारिता के सम्बन्ध में हैं। उसमें मार्क्स ने लिखा है कि सहकारिता एक नई शक्ति को जन्म देती है। यह नयी शक्ति जनता का मात्र कुल योग,उसकी शक्तियों का कुल योग मात्र नहीं होती, बल्कि एक सर्वथा नयी, कहीं अधिक सबल, शक्ति होती है। सहकारिता पर अपने अध्याय में मार्क्स ने नयी भौतिक शक्ति के विषय में लिखा है। किन्तु उसके आधार पर जब चेतना और संकल्प की एकता हो जाती है, तो वह एक अदम्य शक्ति बन जाती है।
(20 सितम्बर,1932)
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