Friday, February 05, 2016

इन दिनों...

(कुछ खुदरा विचार...)



प्रतिरोधों को ख़रीद लेने की ताक़त सत्ता की सबसे बड़ी ताक़त होती है।



 सम्पत्ति-संचय से पैदा होने वाला अपराध-बोध और भय धनी लोगों को दान देने के लिए प्रेरित करता है।



 कुछ दिन कम्युनिस्ट रह लेने के बाद एन.जी.ओ. सेक्टर में भविष्य उज्ज्वल हो जाता है।



 मृतक के शोक समागम में शामिल ज्यादातर लोग ख़ुद को विश्वास दिलाते रहते हैं कि वे जीवित हैं।



 अक्सर शोक समागमों में शामिल लोग सोचते रहते हैं कि उनके मरने पर शोक प्रकट करने कितने आयेंगे और कौन-कौन आयेंगे!



 शोक सभा में वह कवि अपने दिवंगत कवि मित्र के बारे में भावविह्वल होकर बोला। दरअसल वह वही बातें बोल रहा था, जो वह चाहता था कि उसके मरने पर उसका कोई मित्र उसके लिए बोले।



 दोस्ती, प्यार से जिन लोगों का भरोसा उठ गया उन्होंने अन्याय से नफ़रत करना छोड़ दिया। उनमें से कुछ अवसाद का शिकार या पागल हो गये। कुछ ने आत्महत्या कर ली। बचे हुए लोग ताक़तवर लोग बने।



 पार्कों में जो एक साथ ठहाके लगाते हैं, घरों में अलग-अलग चुप रहते हैं। या फिर झींकते रहते हैं। या गुर्राते रहते हैं।



 जो रोज़ पार्कों में समवेत ठहाके लगाते हैं, वे घर या दफ्तर में किसी के ठहाके सुनकर चौंक जाते हैं। कभी आश्चर्य तो कभी डर से भर जाते हैं।



 ''मैंने अपने को पूरीतरह बदल लिया है, यक़ीन करो'', उन्होंने कहा पर किसी ने उनका यक़ीन नहीं किया। वे लोगों से नाराज़ हो गये और फिर पहले जैसा हो गये।



 बाँटने के लिए लोगों के पास ज्यादातर अपना दुख होता है।



 सुखी आदमी लोगों को जलाने के लिए जश्न मनाता है।



 सुखी दिखना और सुखी होना -- दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं। यही बात दुखी दिखने  और होने के बारे में भी कही जा सकती हैं।



 हमने कितने लोगों को अपमानित किया, हमें याद नहीं रहता। लेकिन हमें जिसने अपमानित किया, उसे हम न तो कभी माफ़ करते हैं, न ही भूल पाते हैं। हमने कितनों को धोखा दिया, याद नहीं रहता। लेकिन जो हमें धोखा देता है, हम न तो उसे माफ कर पाते हैं, न ही भूल पाते हैं।



 हमारे शहर में एक सिद्ध महात्‍मा जी थे जो दशकों से इन्द्रियों पर नियंत्रण की योग विधियाँ बताते चले आये थे। बुढ़ापे में वे यौन शोषण के आरोप में गिरफ्तार हो गये।



 एक समय में क्रांतिकारी वाम कवियों-लेखकों का एक समूह हुआ करता था। चालीस वर्षों बाद सभी बूढ़े हो गये। उनमें से एक अपने बेटे के साथ रहने कनाडा चला गया। एक वरिष्‍ठ पत्रकार बनने के बाद अवकाश लेकर शिमला में रहने जाने वाला था। एक अब किसी प्रांतीय अकादमी का अध्यक्ष था और शान्तिवादी हो चुका था। एक बुद्ध-अम्बेडकर-गाँधी के विचारों पर और मार्क्सवाद की कमजोरियों पर अखबारों में स्तम्भ लिखता रहता था और व्याख्यान देते हुए घूमता रहता था। एक शास्त्रीय और सूफी संगीत में डू‍ब गया था। एक जीवन भर असफल रहने के बाद इन दिनों कुछ अनुवाद और कुछ कमासुत बेटे की कृपा पर जी रहा था और बुढ़ापे में समझौते करना सीख रहा था। एक जो कमज़ोर, नेकदिल और प्रेमी किस्म का जीव था, वह अब भी यहाँ-वहाँ प्रेम करने की कोशिशें करता रहता था, नाज़ुक, सुगढ़ और नेकदिल किस्म की वामपंथी कविताएँ लिखता रहता था, समय-समय पर सर्वहारा क्रांति पर संदेह प्रकट करता रहता था, पार्टी और सर्वहारा अधिनायकत्व के खिलाफ कुछ-कुछ बोलता रहता था और राजधानी में मानवाधिकार और साम्प्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध होने वाले कार्यक्रमों में अतिथि या वक्ता के रूप में उपस्थित होता रहता था।
-- कविता कृष्णपल्लवी

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