Monday, October 27, 2014

(दो कविताएँ) मसखरा-2014, नगर में बर्बर


मसखरा-2014

मसखरा सिंहासन पर बैठा
तरह-तरह के करतब दिखाता है
दरबारी हँसते हैं तालियाँ पीट-पीटकर
और डरे हुए भद्र नागरिक उनका साथ देते हैं।
वे जानते हैं, मसखरा एक हत्‍यारा है
और दरबार में खून के चहबच्‍चों के ऊपर
बिछी हुई है लाल कालीन।
मसखरे का सबसे प्रिय शगल है
सड़कों पर युगपुरुष बनकर निकलने का स्‍वांग रचना
विशाल भव्‍य मंचों से अच्‍छे दिनों की घोषणा करना
जिन्‍हें सुनकर सम्‍मोहित भीड़ नारे लगाने लगती है
सदगृहस्‍थ भले लोग डर जाते हैं
सयाने अपनी हिफाजत की जुगत भिड़ाने लगते हैं
और विवेकवान लोग चिन्‍तापूर्वक आने वाले दिनों की
तबाहियों के बारे में सोचने लगते हैं।
सदियों पहले जो बर्बर हमलावर बनकर आये थे
वे अतिथि बनकर आ रहे हैं
मसखरे ने ऐसा जादू चलाया है।
मसखरा अपने मामूली से महान बनने के अगणित संस्‍मरण सुनाता है
वह चाँद को तिलस्‍मी रस्‍सी फेंककर
धरती पर खींच लाने के दावे करता है।
मसखरा शब्‍दों से खेलता है
और अलंकार-वैचित्र्य की झड़ी लगाता है।
शब्‍द हों, या परिधान या लूट और दमन के विधान
या सामूहिक नरसंहार रचने के लिए
विकसित किया गया संकेत विज्ञान
मसखरा सबकुछ सुगढ़-परिष्कृत ढंग से करता है
और क्रूरता का नया सौन्‍दर्यशास्‍त्र रचता है।
सर्कस का मालिक बन बैठा है मसखरा,
जनमत उसके साथ है
ऐसा बताने के गणितीय तर्क हैं उसके पास।
फिर भी व्‍यग्र-उद्विग्‍न है मसखरा।
दुर्ग-नगर सरीखे इस विशाल बंद सर्कस पण्‍डाल के बाहर
अभी निचाट सन्‍नाटा है, चिलकती धूप है
और यहाँ-वहाँ उठते कुछ धूल के बगूले हैं।
मसखरा रहस्‍यमय सन्‍नाटे को नहीं समझता।
मसखरा बच्‍चे की उस हँसी तक को
बर्दाश्‍त नहीं कर पाता जिसमें विवशता नहीं होती,
भय नहीं होता।
तमाम आश्‍वस्तियों के बावजूद
अतीत के प्रेत सताते रहते हैं मसखरे को।
वह डरा रहता है।


नगर में बर्बर

नगर द्वार पर बर्बरों की प्रतीक्षा करते
डरे हुए लोगों ने शाम ढले
वापस लौटकर पाया कि
बर्बरों के गिरोह शहर में
पहले से ही मौजूद हैं।
आश्‍चर्य के साथ उन्‍होंने पाया कि
धीरे-धीरे अपनी संख्‍या और आक्रामक क्षमता बढ़ाते
बैक्‍टीरिया की तरह वे उनके बीच
पहले से ही अपनी जड़ें मजबूत कर रहे थे
और उनकी सरगर्मियाँ लगातार जारी थीं
और अब वे खुलकर अपने मंसूबों को
अंजाम दे रहे हैं
बाहरी बर्बरों को भी न्‍यौतते हुए
और फिर भी शान्ति, बंधुत्‍व, न्‍याय
और प्रगति की बातें करते हुए।
चित्‍त उचाट पड़ा है थका-हारा नगर।
जहाँ बच्‍चे खेला करते थे
वहाँ कुछ उदास खजुहे कुत्‍ते बैठे हैं
और नालियों में कुछ सूअर लेटे हैं।
बंद खिड़कियों की झिरियों से छनकर
रिस रही है पीली रोशनी
और बच्‍चों की दबी हुई आवाज़ें।
नील-लोहित संध्‍या लपेट चुकी है
अँधेरे की चादर अपने इर्द गिर्द
और एक बूढ़ा यात्री घूमता-भटकता ठौर-ठौर
एक फटी-पुरानी डायरी में
अपने इम्‍प्रेशंस दर्ज करता जा रहा है।
शायद उसे किसी ठिकाने की तलाश है
या वह लेकर आया है
भविष्‍य के बारे में सोचने वाले
चिन्‍तातुर विवेकात्‍माओं के लिए
इतिहास का कोई गुप्‍त सन्‍देश।

-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी



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