Wednesday, September 17, 2014

''प्रगतिशील'' कुलीन कलावंतों की कलई उतारना भी सच्‍ची कला का एक ज़रूरी दायित्‍व है!




-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

विद्रोह के लिए उठे हाथों में उनके हाथ कहीं नज़र नहीं आते। व्‍यवस्‍था को अस्‍वीकार करती आवाजों में उनकी आवाज कहीं सुनाई नहीं देती। जिस देश में विकास के लम्‍बे-चौड़े दावों के पीछे, आधी से अधिक आबादी अपनी न्‍यूनतम ज़रूरतें नहीं पूरी कर पाती और एक तिहाई लोग भुखमरी का जीवन बिताते हैं, जहाँ संविधान और कानून की किताबों में दर्ज जनवादी अधिकारों का आम जनता के लिए कोई मतलब नहीं, जहाँ राजनेता ठगों, गुण्‍डों और बलात्‍कारियों के गिरोह से अलग कुछ भी नहीं हैं, जहाँ सत्‍ता लगातार जनता के विरुद्ध एक युद्ध चलाती रहती है, जहाँ पूँजी की मायाविनी राक्षसी हर वर्ष दसियों लाख लोगों को उनकी जगह-ज़मीन से उजाड़कर दर-बदर करती रहती है, जहाँ करोड़ों मेहनतक़शों का कोई पुर्सानेहाल नहीं है, वहाँ जो कवि-लेखक स्‍वयं को प्रगतिशील और जनवादी बताते हुए सत्‍ता प्रतिष्‍ठानों से पुरस्‍कार, पद और सुविधाएँ लेने के लिए जुगत भिड़ाते रहते हैं, अपने सुविधासम्‍पन्‍न घरों में सुरासेवन और कला-क्रीड़़ा में व्‍यस्‍त रहते हैं, उन्‍हें किसी भी रूप में 'जनता का आदमी' कैसे कहा जा सकता है? हत्‍यारों की महफिल में राग दरबारी गाने वाली यह जमात कोठों के दलालों से भी गयी-बीती होती है।
जिन्‍दगी की कविता के बिना काग़ज़ पर लिखी कविता निष्‍प्राण होती है। कठिन समय में सच्‍ची कविता अध्‍ययन कक्षों और संगोष्ठियों के बाहर सड़क की सरगर्मियों में शामिल होती है। जिन्‍दगी में इंसानियत की बहाली की जद्दोजहद से दूर कला की दुनिया में जीवन, संघर्ष और सृजन के कृत्रिम चित्र रचने वाले पाखण्‍डी, हृदयहीन और व्‍यापारी किस्‍म के लोग हुआ करते हैं। ये कलात्‍मक ठग विद्या के पारंगत सट्टेबाज होते हैं। ऐसे बदमाश खुद को जनता का हमदर्द बताते हुए मुक्ति के उदात्‍त स्‍वप्‍नों और परियोजनाओं के प्रति संदेह पैदा करके जनता की संकल्‍प शक्ति को क्षरित करने का काम करते हैं तथा आदर्श प्रेरित मध्‍यवर्गीय युवाओं को पथभ्रष्‍ट करके और कैरियरवाद की नसीहतें देकर उन्‍हें अपने जैसा बनाने की कोशिशें करते रहते हैं। कला-साहित्‍य की दुनिया के ऐसे धंधाखोर, कायर, अकर्मण्‍य, जनविमुख नकली वामपंथियों से घृणा करना, इनके रेशमी कलात्‍मक चोंगों को नोचकर इन्‍हें नंगा करते रहना भी एक ज़रूरी काव्‍यात्‍मक सामाजिक-सांस्‍कृतिक कर्म है।

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