... श्रम-विभाजन की दृष्टि से इसे समझना सबसे आसान है। समाज कुछ आम क्रियाओं को जन्म देता है, जिनके बिना वह अपना काम नहीं चला सकता है। इन क्रियाओं के लिए नियुक्त व्यक्ति समाज के अन्दर श्रम-विभाजन की एक नयी शाखा स्थापित करते हैं, इससे उनके विशेष हित पैदा होते हैं, जो उन लोगों के हितों से भी भिन्न होते हैं, जिन्होंने उन्हें सत्ता प्रदान की है। वे उन लोगों से स्वतंत्र हो जाते हैं -- और इस प्रकार राज्य का आविर्भाव होता है। इसके बाद वैसा ही क्रम चलता है, जैसा माल व्यापार में और बाद में मुद्रा व्यापार में चलता है। नयी स्वतंत्र शक्ति सामान्यतया उत्पादन की गति का अनुसरण करने के लिए बाध्य होते हुए भी, अपनी अंतर्निहित सापेक्ष स्वतंत्रता की बदौलत, यानी उस स्वतंत्रता की बदौलत, जो एक बार उसके हाथों में सौंपे जाने पर क्रमश: विकसित हो गयी थी, अपनी ओर से भी उत्पादन की परिस्थितियों और प्रक्रिया पर प्रभाव डालती है। यह दो असमान शक्तियों अन्योन्यक्रिया है। एक ओर है आर्थिक गति और दूसरी ओर है नयी राजनीतिक शक्ति, जो अधिकतम स्वतंत्रता प्राप्त करने की कोशिश करती है और जो एक बार स्थापित हो जाने के बाद अपनी अलग गति से युक्त हो जाती है। कुल मिलाकर, आर्थिक गति अपने मार्ग से अग्रसर होती है, पर उसे राजनीतिक गति की जिसे उसने स्वयं स्थापित किया और सापेक्ष स्वतंत्रता प्रदान की, प्रतिक्रिया को, एक ओर राज्य-सत्ता की गति की और दूसरी ओर संग-संग उत्पन्न विरोध पक्ष की प्रतिक्रिया को भी सहन करना पड़ता है। जिस तरह औद्योगिक बाज़ार की गति सामान्यतया और ऊपर बतायी जा चुकी शर्तों के साथ मुद्रा बाज़ार में प्रतिबिम्बित होती है, और कहने की ज़रूरत नहीं कि उल्टी होकर प्रतिबिम्बित होती है, ठीक उसी प्रकार पहले ही से विद्यमान और परस्पर टकराते हुए वर्गों का संघर्ष सरकार और विरोध पक्ष के संघर्ष में प्रतिबिम्बित होता है, और यह भी उल्टा होकर -- प्रत्यक्ष नहीं, वरन् अप्रत्यक्ष होकर, वर्ग संघर्ष के रूप में नहीं, बल्कि राजनीतिक सिद्धांतों के लिए संघर्ष के रूप में -- प्रतिबिम्बित होता है। यह प्रतिबिम्ब इतना विकृत हो चुका होता है कि उसे पहचानने में हमें हज़ारों वर्ष लग गये।
आर्थिक विकास पर राज्य-सत्ता का प्रभाव इन तीनों में से किसी एक प्रकार का हो सकता है: यानी वह उसी दिशा में चल सकता है, जिसमें आर्थिक विकास हो रहा है, तब विकास और तेजी से होता है। वह आर्थिक विकास की विपरीत दिशा ग्रहण कर सकता, तब आज के ज़माने में किसी भी बड़े देश में राज्य-सत्ता अंतत: चूर-चूर हो जायेगी। या फिर आर्थिक विकास के कुछ मार्गों को रोक सकता तथा उसके लिए कुछ नये मार्ग निर्धारित कर सकता है। इसमें अंतत: उपर्युक्त दो दिशाओं में से किसी एक का ही अनुसरण होता है। परंतु यह स्पष्ट है कि दूसरी और तीसरी सूरत में राज्यसत्ता आर्थिक विकास को भारी क्षति पहुँचा सकती है और इसके फलस्वरूप शक्ति और सामग्री का भीषण अपव्यय हो सकता है।
इसके अलावा, ऐसा भी होता है कि दूसरे देशों को जीता जाता है और आर्थिक संसाधनों को क्रूरतापूर्वक नष्ट किया जाता है। इससे कतिपय स्थितियों में पहले के ज़माने में पूरे का पूरा स्थानीय राष्ट्रीय विकास विध्वस्त किया जा सकता था। पर आज के ज़माने में ऐसा मार्ग अपनाने का आम तौर पर उल्टा ही प्रभाव होता है -- कम से कम बड़ी जातियों में। इसमें विजित जाति प्राय: विजेता से अधिक आर्थिक, राजनीतिक और नैतिक लाभ प्राप्त करती है।
यही बात क़ानून पर लागू होती है। ज्यों ही पेशेवर विधिवेत्ताओं को पैदा करने वाला नया श्रम-विभाजन आवश्यक हो जाता है त्यों ही एक नया और स्वतंत्र क्षेत्र खुल जाता है, जो उत्पादन और व्यापार पर सामान्य रूप से निर्भर होने के बावजूद, इन क्षेत्रों को प्रभावित करने की एक विशिष्ट क्षमता रखता है। आधुनिक राज्य में यही ज़रूरी नहीं है कि कानून सामान्य आर्थिक परिस्थिति के अनूरूप एवं उसकी अभिव्यक्ति हो, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि वह आंतरिक रूप से सामंजस्यपूर्ण अभिव्यक्ति हो, जो आंतरिक अंतरविरोधों के कारण अपने को शून्य न बना ले। यह सामंजस्य प्राप्त करने में आर्थिक संबंधों के सच्चे प्रतिबिम्ब में अधिकाधिक व्याघात पड़ता है। यह उतना ही अकसर होता है, जितना कम कोई विधि-संहिता किसी वर्ग के आधिपत्य की उग्र, अनम्य और अविकृत अभिव्यक्ति होती है, क्योंकि ऐसा होना तो ''विधि अवधारणा'' के विपरीत होता है। 1792-1796 के क्रांतिकारी बुर्जुआ वर्ग की इस शुद्ध तथा तर्क संगत विधि अवधारणा का तो नेपोलियन की संहिता में ही काफी हद तक मिथ्याकरण हो चुका था और जिस हद तक यह अवधारणा इस संहिता में मूर्तिमान हुई, वह सर्वहारा की नित्यप्रति बढ़ती शक्ति की बदौलत सब तरह से क्षीण होती रहती है। इसके बावजूद नेपोलियन की संहिता वह संविधि पुस्तक है, जो दुनिया के हर भाग में हर नयी विधि-संहिता के आधार का काम देती है। इस प्रकार, एक बड़ी हद तक ''विधि-विकास'' का प्रक्रम केवल यह होता है कि पहले आर्थिक संबधों को कानूनी सिद्धांतों में सीधे-सीधे रूपांतरित करने से उत्पन्न अंतर्विरोधों को दूर करने की और विधि की एक तालमेल युक्त पद्धति स्थापित करने की चेष्टा की जाती है, फिर इस पद्धति में आगे होने वाले आर्थिक विकास के प्रभाव एवं दबाव से बार-बार दरारें पड़ती हैं, जिससे वह नये अंतरविरोधों में फँस जाती है (यहाँ मैं फिलहाल केवल दीवानी कानून की बात कर रहा हूँ)।
कानूनी सिद्धांतों के रूप में आर्थिक संबंधों की प्रतिच्छाया भी अनिवार्यत: उल्टी होती है। वह क्रियाशील व्यक्ति के बोध के बिना ही होती है। विधिशास्त्री सोचता है कि वह पूर्वानुमानित प्रस्थापनाओं को लेकर चल रहा है, पर वस्तुत: वे आर्थिक सम्बन्धों के प्रतिवर्त मात्र होती है। अत: सबकुछ औंधा रहता है और मुझे स्पष्ट लगता है कि यह विपर्यास, जिसे न पहचाने जाने तक विचारधारात्मक अवधारणा कहा जाता है, अपनी ओर से आर्थिक आधार को प्रभावित करता है और कुछ सीमाओं के भीतर उसे परिवर्तित भी कर सकता है। उत्तराधिकार कानून का आधार -- इसे मान लेते हुए कि परिवार के विकास में हासिल मंजिलें बराबर हैं -- आर्थिक है। फिर भी, उदाहरणार्थ, यह सिद्ध करना कठिन होगा कि इंगलैण्ड में वसीयत करने वाले को पूरी आजादी हासिल होना और फ्रांस में उसके ऊपर सम्पूर्ण व्यौरे के साथ सख्त पाबंदियों का लगना केवल आर्थिक कारणों से है। पर दोनों ही बहुत बड़ी हद तक आर्थिक क्षेत्र को पुन: प्रभावित करते हैं क्योंकि उनका सम्पत्ति के वितरण पर असर पड़ता है।
जहाँ तक विचारधारा के क्षेत्रों का, आकाश में और ऊपर उठते क्षेत्रों का, यानी धर्म, दर्शन, आदि का सवाल है, इनके पास प्रागैतिहासिक काल का एक भंडार है, जो ऐतिहासिक काल में पहले से विद्यमान पाया गया और ग्रहण कर लिया गया -- उन चीजों का भण्डार है, जिन्हें हम निरर्थक ही कहेंगे। प्रकृति, मानव के सारतत्व, भूत-प्रेतों, जादू-टोने, आदि के बारे में इन अनेक मिथ्या अवधारणाओं का आर्थिक आधार केवल नकारात्मक है। प्रागैतिहासिक काल का निम्न आर्थिक विकास प्रकृति की मिथ्या अवधारणाओं द्वारा पूरित, उसके द्वारा अंशत: परिनियमित और यहाँ तक कि उत्पन्न भी हुआ। यद्यपि आर्थिक आवश्यकता प्रकृति के उत्तरोत्तर बढ़ते हुए ज्ञान की मुख्य प्रेरक शक्ति थी और अधिकाधिक होती गयी थी, पर इस सारी आदिम कालीन बकवास के लिए आर्थिक कारण खोजने की चेष्टा करना निस्संदेह कोरा पंडिताऊपन होगा। विज्ञान का इतिहास इस बकवास के धीरे-धीरे मिटते जाने का या यों कहें कि उसकी जगह एक नयी, किंतु सदा कम बेतुकी बकवास के आते-जाने का इतिहास है। जो लोग इसमें संलग्न हैं, वे श्रम विभाजन में विशेष क्षेत्रों के लोग हैं और उन्हें लगता है कि वे स्वतंत्र क्षेत्र में काम कर रहे हैं। और जिस हद तक वे सामाजिक श्रम-विभाजन के अंदर एक स्वतंत्र समूह होते हैं, उस हद तक उनकी कृतियाँ -- इनमें उनकीं ग़लतियाँ भी सम्मिलित हैं -- पूरे समाज के विकास को, यहाँ तक कि उसके आर्थिक विकास को भी, प्रभावित करती हैं। इस सबके बावजूद वे स्वयं अपनी बारी में आर्थिक विकास के प्रभुत्वशाली प्रभाव के अधीन होते हैं।
--फ्रेडरिक एंगेल्स (कोनराड श्मिड्ट को पत्र, 1890)
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