--कविता कृष्णपल्लवी
बौद्धिक विमर्शों की दुनिया से जिजीविषा और युयुत्सा जैसे शब्द या तो बहिर्गमन कर गये हैं, या फिर अपने अर्थ खोकर यूँ पड़े हुए हैं जैसे धान के सूखे खेतों में घोंघों, केंकड़ों और सीपों के सूखे निर्जीव खोल बिखरे नज़र आते हैं।
जहाँ रोज़-रोज़ के जीवन के लिए विकट संघर्ष है, वहीं जिजीविषा और युयुत्सा के विस्मृत मर्म का संधान किया जा सकता है। इन दुर्लभ खनिजों की खोज उन विकट दुर्गम भूभागों में छिपे खदानों में ही की जा सकती है जहाँ जीवन को उसकी सारी उम्मीदों के साथ पूँजी ने काले पानी की सजा सुनाकर निर्वासित कर दिया है। वास्तविक कविता भी वहीं निवास करती है। शोख और उदास रंगों से रंगी-पुती बहुरूपिया कविताएँ बौद्धिक अड्डों के इर्दगिर्द अभिजन समाज के ग्राहकों की खोज में मँडराती रहती हैं।
कुसुम बादली औद्योगिक क्षेत्र के जे.जे. कैम्प में रहती है। पाँच बहनों में तीसरी है और दो भाई हैं। दो बड़ी बहनों की शादी हो चुकी है। पिता बरसों कारखानों में हड्डियाँ गलाते-गलाते अब एक निश्शेष खण्डहर हो चुके हैं। एक शादीशुदा भाई नशे का शरणागत हो चुका है। अब परिवार फुटपाथ पर मछली बेचकर घर चलाता है। कुसुम भी इसमें हाथ बँटाती है। जैसा फुटपाथ पर रेहड़ी-पटरी वालों के साथ होता है, आये दिन पुलिस वाले परेशान करते रहते हैं। दो बहनें छोटी हैं। परिवार गोरखपुर के गगहा से विस्थापित होकर दो दशक से भी अधिक पहले दिल्ली आया था।
कुसुम की पढ़ाई कक्षा आठ के आगे जारी नहीं रह सकी। अब अपनी माँ की मदद और छोटी बहनों की देखभाल के साथ वह पहलवानी भी करती है। कुश्ती के अभ्यास के लिए रोज़ सिरसपुर के अखाड़े में जाती है। माँ हरियाणा के जाट किसान परिवारों की तरह बेटी को घी-दूध की समृद्ध खुराक तो नहीं दे सकती, पर हर सप्ताह आज़ादपुर मण्डी जाकर बड़े अरमानों से उसके लिए सस्ते फल खरीदकर लाती है।
खास बात यह है कि कुसुम पहलवानी करने के साथ-साथ कविताएँ भी लिखती है। उसके पास कविताओं की एक कापी है। उसने त्रिलोचन, नागार्जुन या आज के कवियों को नहीं पढ़ा है। कवियों-बुद्धिजीवियों से उसका कभी कोई सम्पर्क नहीं हुआ। कविता के बारे में वह उतना ही जानती है जितना कि कक्षा आठ तक की हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में पढ़ा है। पर जीवन का उसका अपना पर्यवेक्षण है, उसके अपने रूपक और बिम्ब हैं, अपनी राजनीतिक दृष्टि है। कुसुम से राजनीतिक प्रचार के दौरान मुलाकात हुई। दूसरी मुलाकात में उसने बताया कि वह कविताएँ लिखती है। देखकर आश्चर्य हुआ कि कुसुम की कविताओं में विस्थापन, पूँजीवादी समाज की विडम्बनाएँ-निर्ममताएँ, राजनीतिक छल-प्रपंच, साम्प्रदायिकता, स्त्री-उत्पीड़न, मज़दूरों के जीवन, संघर्ष और सपने ही विषयवस्तु हुआ करते हैं।
एक उल्लेखनीय बात यह है कि कुसुम की माँ उसपर पूरा भरोसा करती है और पूरी आजादी देती है। वह स्वयं एक साहसी और विद्रोही स्त्री है, जिसने कदम-कदम पर लड़कर बच्चों को पाला-पोसा है और परिवार के पैरों के नीचे की ज़मीन तैयार की है। अपनी बेटी पर उसे नाज है। वह उसकी सच्ची दोस्त है और उसके संघर्षों में हर कदम पर उसके साथ है।
कुसुम एक उदाहरण है कि मेहनतकशों के घरों में प्रस्फुटित होने वाली सम्भावनाएँ कठिन हालात के थपेड़ों से कैसे असमय ही मुरझा जाती हैं। कुसुम की दो छोटी बहनें सुंदर चित्रकारी करती हैं और कुसुम की हार्दिक इच्छा है कि उन्हें यथोचित प्रशिक्षण मिले। वह खुद भी आगे पढ़ना चाहती है। साहित्य में उसकी गहरी रुचि है। मध्यवर्गीय परिवारों के पीजा-बर्गर-इण्टरनेटी युवाओं से सामाजिक-राजनीतिक सामान्य ज्ञान के मामले में वह काफी आगे है। वह एक स्वाभाविक संगठनकर्ता है। अब 'नौजवान भारत सभा' के कार्यक्रमों में नियमित आती है। राजनीतिक अध्ययन चक्रों में उसकी गहरी दिलचस्पी है, पर साथ ही वह लड़कियों के स्वयंसेवक दस्ते भी तैयार करना चाहती है। लाठी चलाना तो वह खुद ही सिखाने को तैयार है, किक बॉक्सिंग और मार्शल आर्ट सिखाने के लिए प्रशिक्षक ढूँढने का आग्रह करती रहती है। हमलोग इस तलाश में लगे हुए हैं। कुसुम अपने तईं आठ-दस लड़कियों की टीम लीडर है। व्यक्तित्व में इतना आत्मविश्वास और शरीर में इतनी ताकत है कि गली के शोहदे आसपास फटकने की हिम्मत नहीं कर पाते। कोई ''लड़कियाना'' झिझक-हिचक नहीं है, 'नौजवान भारत सभा' की बैठकों में लड़कों के साथ बेहिचक बातचीत करती है। पिछले दिनों श्रम कानूनों में जनविरोधी सुधारों के मोदी सरकार के फैसले के विरुद्ध प्रदर्शन में जन्तर-मन्तर गयी, बैरिकेड पर जोर-आजमाइश के समय जब एक अन्य स्त्री साथी के साथ दिल्ली पुलिस की एक कान्स्टेबुल ने दुर्व्यवहार किया तो कुसुम ने उसे पहलवानी हाथ से ऐसा झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद किया कि वह दूर जाकर खड़ी हो गयी।
मज़दूर बस्तियों में कठिन जिन्दगी की धमन भट्ठी में तप-निखरकर जो फौलादी युवा व्यक्तित्व ढल रहे हैं, मुख्यत: उन्हीं के बीच से तूफानों को चुनौती देने वाले पितरेल पक्षी तैयार होंगे। कैरियरवाद की कुत्ता-दौड़ में भागते-हाँफते खोखले दिखावटी व्यक्तित्वों तथा अकमर्क विमर्शों और अलगाव-अवसाद में डूबे मानसिक और भौतिक नशाखोर मध्यवर्गीय पीले-बीमार चेहरों के बीच ऊर्जस्वी चमकते चेहरे आज बहुत कम ही मिलेंगे। दुर्लभ, अमूल्य खनिजों की खोज के लिए बीहड़ जीवन-प्रदेशों की यात्रा तो करनी ही होगी। इसी प्रक्रिया में मध्यवर्गीय कायर-काहिल-अराजक भी थोड़ा आदमी बन जायेंगे।
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