Wednesday, June 04, 2014

एक पूर्व-मार्क्सवादी, उत्तरआधुनिकतावादी ''चिन्तक-कवि-लेखक'' की डायरी से



(मैं एक उत्तरआधुनिकतावादी की डायरी उठा लायी हूं, उसकी कुछ टिप्पणियों को समय-समय पर प्रस्तुत करती रहूंगी।)

हेगेल के वहां द्वन्द्ववाद सिर के बल खड़ा था, उसे मार्क्स ने उलटकर पैर के बल खड़ा कर दिया और प्रत्ययवादी विश्व्दृष्टि से विच्छिन्न करके उसका विरहस्यीकरण (डीमिस्टीफ़ि‍केशन) कर दिया। मार्क्स ने स्वयं ऐसा लिखा था।

लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि जीवन या सिद्धान्तों का विरहस्यीकरण कला की हत्या कर देता है। जीवन स्वयं एक रहस्य है। कला का काम उस रहस्य का पुनर्सृजन, उदात्तीकरण और आदर्शीकरण है। राजनीति लोगों को ठोस सामाजिक दायित्व और कार्यभार बताने के चक्कर में जीवन के सारे रहस्यों को तार-तार कर देती है और कला का सत्यानाश कर डालती है। इसीलिए मेरा मानना है कि जहां भी राजनीति होती है वहां कला नहीं होती है। मार्क्‍सवादी कलाद्रोही होते हैं।

मेरा विचार है कि हेगेलियन द्वन्द्ववाद नहीं, बल्कि यह जीवन, यह वस्तुगत जगत ही सिर के बल खड़ा है। अब इसे उलटकर पैर के बल खड़ा करना तो मेरे बस की बात नहीं (ऐसे हर उद्यम में राजनीति की दरकार होती है और राजनीति कला की हत्या कर देती है और मानवता की भी), इसलिए जीवन यथार्थ को सही रूप में देखने के लिए मैं स्वयं ही सिर के बल लटका रहता हूं। यह मेरी नई, मौलिक कलात्मक तकनीक है।

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