Wednesday, June 04, 2014

सुशीला पुरी की 5 मई की पोस्‍ट पर कौशल किशोर के कमेंट का जवाब

- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

 सुशीला पुरी की पोस्‍ट पर कमेंट करते हुए जो तमाम उन्‍हीं जैसे विचारवंचित चम्‍मच-कलछुल बजे हैं, उनका जवाब देना तो बचकानी हरकत होगी, लेकिन कौशल किशोर जैसे मित्रों को तो उत्तर देना ही होगा जिन्‍हें हम संजीदा व्‍यति मानते हैं और गंभीरता से लेते हैं।

कौशल किशोर जी के मुताबिक मैं आज भी 1970 के आसपास खड़ी हूं 'जहां सिर्फ हम क्रांतिकारी और दूसरे सभी संशोधनवादी-नवसंशोधनवादी' की धारणा प्रचलित थी।

क्षमा करें कौशल किशोर जी, आपसे इस किस्‍म की बचकाना फ़तवेबाज़ी की अपेक्षा नहीं थी। 1970 के दशक में जिन लोगों की लेखनी से कविता लिखते हुए भी बारूद की गंध निकलती थी, वही 1980 का दशक आते-आते संसद मार्ग की ओर शांतिपूर्ण संक्रमण कर गये और आज भाकपा-माकपा की ही तरह संसदीय जड़वामन बन चुके हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि वे अपने कुर्ते का रंग थोड़ा ज़्यादा लाल दिखाने की कोशिश करते हैं। उनकी पार्टी विचारधारा ही नहीं, बल्कि लेनिनवादी सांगठनिक ढांचे और प्रणाली से भी कोसों दूर हट चुकी है और पूरी तरह से एक खुली सामाजिक जनवादी सांचे-खांचे में ढल चुकी है। मज़े की बात यह है कि यह सब करते हुए वे नक्‍सलबाड़ी जनउभार और '60-'70 के दशक के ''वाम'' दुस्‍साहसवादी दौर की विरासत को स्‍वीकारते और भुनाते हैं। उनकी निगाहों में माओ भी सही हैं और ख्रुश्‍चेव तथा देंग सियाओ-पिंग भी। 'महान बहस' की चीनी पोज़ीशन भी ठीक है और 1956 से 1990 तक का सोवियत संघ एक समाजवादी देश भी था।

यदि आपने भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन और वाम-जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन पर, मैं जिस धारा से जुड़ी हूं, उस धारा के पिछले 36 वर्षों के लेखन में से (जो निस्‍संदेह परिष्‍कृत और विकसित होता रहा है) कुछ भी पढ़ा होता ('दिशा संधान' में भी मा-ले आंदोलन के इतिहास और उसके ठहराव-बिखराव के कारणों पर लेखमाला की पहली किश्‍त आ चुकी है), तो य‍ह नहीं कहते कि हम 1970 खड़े हैं। हम 1970 के दशक में हावी ''वाम'' दुस्‍साहसवादी धारा के भी उतनेही मुखर विरोधी थे, जितना ''वाम'' दुस्‍साहसवाद के आज जारी रूप का। दक्षिणपंथी अवसरवाद और संसदीय जड़वामनपंथ के हम तब भी विरोधी थे और आज भी विरोधी हैं। हम क्रांतिकारी जनदिशा के समर्थक थे और हैं। हां, एक बात ज़रूर है। हमारी धारा को भी 1980 के दशक की शुरुआत तक भारत में चीन जैसी नवजनवादी क्रांति करने की जड़ीभूत धरणा से मुक्‍त होने और भारत में उत्‍पादन संबंधों और अधिरचना के मूल चरित्र के विकृत-विरूपित पूंजीवादी रूपांतरण को समझने तथा साम्राज्‍यवाद के इस नये चरण में संभावित नयी समाजवादी क्रांति (साम्राज्‍यवाद-विरोधी, पूंजीवाद-विरोधी क्रांति) के कार्यक्रम की तफ़सीलों और अमली कार्ययोजना को जानने-समझने-लागू करने में कुछ समय ज़रूर लगना था, जो कि लगा।

जिन लोगों ने 1970 की ''वाम'' दुस्‍साहसवादी, अर्द्धअराजकतावादी लाइन को छोड़ते-छोड़ते मार्क्‍सवाद की क्रांतिकारी अंतर्वस्‍तु का ही परित्‍याग कर दिया, संसद के इस्‍तेमाल को रणकौशल (टैक्टिक्‍स) की जगह रणनीति (स्‍ट्रेटेजी) बना दिया तथा पार्टी के ढांचे व चरित्र को सामाजिक जनवादी बना दिया, वही लोग भारतीय समाज की प्रकृति और क्रांति के कार्यक्रम के सवाल पर अभी भी 1970 के आसपास खड़े हैं।

अब हम सांस्कृतिक मोर्चे के सवाल पर आते हैं। हम सांस्कृतिक मोर्चे पर भी देश विशेष की क्रांति की मंज़ि‍ल विशेष के अंतर्गत वर्गों के रणनीतिक संश्रय के हिसाब से संयुक्‍त मोर्चे के पुरज़ोर हामी हैं। आप जैसे वरिष्‍ठ साथी यदि हमारी धारा के साथियों द्वारा 1978 से 1984 तक सांस्कृतिक मोर्चे पर किये गये प्रयोगों, 1984 के 'सांस्कृतिक आंदोलन की दिशा' विषय पर आयोजित 5 दिवसीय अ.भा. संगोष्‍ठी (गोरखपुर) में प्रस्‍तुत अवस्थिति पत्रों और 'सृजन परिप्रेक्ष्‍य' पत्रिका में सांस्कृतिक मोर्चे के कार्यभारों पर प्रकाशित अवस्थिति पत्र से परिचित होते तो इस तरह फतवे देने का काम नहीं करते। फासीवाद विरोधी संयुक्‍त मोर्चे और सांस्कृतिक संयुक्‍त मोर्चे की हमारी जो समझ है और इनकी सामाजिक जनवादी समझदारी की हमारी जो आलोचना है, उस पर 'सृजन परिप्रेक्ष्‍य' , 'दिशा संधान' और 'आह्वान' पत्रिकाओं में काफी सामग्री मौजूद है और मैंने भी अपने ब्‍लॉग और फेसबुक वॉल पर इस मुद्दे पर कई बार लिखा है।

'वामपंथी कम्‍युनिज़्म - एक बचकाना मर्ज़' मैंने कई बार पढ़ा है। आग्रह है कि आप उसे एक बार फिर पढ़ि‍ये और समझिये कि तमाम संसदीय जड़वामन किस प्रकार अपने पक्ष के औचित्‍य-प्रतिपादन के लिए उसकी विकृत व्‍याख्‍या करते हैं। लेनिन के विचार एकदम स्‍पष्‍ट हैं: बुर्जुआ जनवाद के अंतर्गत संसद व संसदीय चुनावों का इस्‍तेमाल किया जा सकता है, लेकिन 'टैक्टिक्‍स' के तौर पर, 'स्‍ट्रेटेजी' के तौर पर नहीं और बुर्जुआ ट्रेड यूनियनों के भीतर भी किन्‍हीं स्थितियों में काम किया जा सकता है, लेकिन क्रांतिकारी जनदिशा को ध्‍यान में रखकर, न कि स्‍वयं अर्थवाद और ट्रेड यूनियनवाद का शिकार होकर। लेनिन संयुक्‍त मोर्चे में अपनी विचारधारात्‍मक अवस्थिति का परित्‍याग करके समझौते के हामी नहीं थे। वे पूरी विचारधारात्‍मक और रणनीतिगत दृढ़ता के साथ अधिकतम रणकौशलात्‍मक लचीलेपन के पक्षधर थे। बेहतर हो कि फासीवाद और फासीवाद-विरोधी संयुक्‍त मोर्चे के बारे में भी आप दिमित्रोफ़, तोग्लियाती आदि के लेखन तथा ग्राम्‍शी, बूर्देरों, दानिएल गुरिएन आदि को पढ़ लें और विचार करें।

लेनिन की पुस्‍तक का हवाला देकर हिंदुत्‍ववादी फासीवाद विरोधी मोर्चे में एक भूतपूर्व पुलिस नौकरशाह और एक विश्‍वविद्यालय के भूतपूर्व निरंकुश स्‍वेच्‍छाचारी कुलपति (जिसके स्‍त्री-विरोधी विचार और तदनुरूप जीवन से सभी परिचित हैं), बीबीसी पर साक्षात्‍कार में मोदी के पक्ष में बयान देकर पलट जाने वाले स्‍वनामधन्‍य कथाकार, एक घोर सवर्णवादी दलित विरोधी प्रोफेसरऔर भांति-भांति के सत्ताधर्मियों और अवसरवादियों के साथ साझीदारी को उचित नहीं ठहराया जा सकता। लेनिन के हवाले देकर भाजपाई सांसद के जन्‍मदिन के आयोजन में जसम, जलेस, प्रलेस की स्‍थानीय इकाइयों की अग्रणी भागीदारी की गंदगी को ढांपा नहीं जा सकता, न ही सत्ता के संस्‍कृति प्रतिष्‍ठानों में घुसे हुए और घुसने को आतुर लोगों, हत्‍यारे पूंजीपतियों के प्रतिष्‍ठानों और सत्ता द्वारा पुरस्‍कृत हो रहे और गुणगान कर रहे लोगों, फासिस्‍ट विचारक और गुण्‍डे राजनेता की पुस्‍तकों का विमोचन और प्रशस्ति-वाचन करने वाले आचार्य-शिरोमणि और फासिस्‍ट योगी के हाथों सम्‍मानित होने वाले 'महान कवि' के अवसरवादी कुकृत्‍यों पर ही लीपापोती की जा सकती है! इतनी विशालहृदयता उसूलपरस्‍ती की सेहत के लिए ठीक नहीं कि उत्तरआधुनिकतावादी मार्क्‍सवाद-विरोधी कवि-लेखक की मुरीद होने के साथ ही जसम-जलेस-प्रलेस के आयोजनों में भी बढ़चढ़कर शिरकत करने वाली विचारवंचित, स्‍थापनाकांक्षी किन्‍हीं महोदया के अवसरवाद और कैरियरवाद पर सवाल न उठाया जाये।

कौशल किशोर जी, मेरा मूल कथ्‍य मात्र इतना था कि राजेश जोशी जैसे महामहिम के साहित्यिक चौर्यकर्म पर अन्‍य सभी गणमान्‍य चुप रहेंगे, क्‍योंकिअवसरवाद के हम्‍माम में वे सभी नंगे हैं। इस अवसरवाद के उदाहरण के तौर पर मैंने नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह, केदारनाथ सिंह, लीलाधर जुगाड़ी, आलोकधन्‍वा, जसम-जलेस-प्रलेस की वाराणसी इकाइयों आदि के घटिया अवसरवादी कुकृत्‍यों के हवाले दिये हैं। इस अवसरवादी घटाटोप के ठोस साक्ष्‍यों पर आपको अपनी ठोस अवस्थिति रखनी चाहिए थी। यह करने के बजाय आप एक सांगठनिक अंधभक्ति की निष्‍ठा के साथ मुझे ही लेनिन के हवाले देते हुए संयुक्‍त मोर्चे की उदारताका इतिहास का अध्‍ययन करने का पाठ पढ़ाने लगे।

इतिहास का अध्ययन सबसे अधिक उनको करने की जरूरत है जो अतिवामपंथ से दोलन करते हुए दक्षिणपंथ के छोर पर चले गये। अपने अतिवामपंथी दौर में जिन्हें वे दक्षिणपंथी कह रहे थे, उन्हें ही आज वे अराजकतावादी बता रहे हैं। मार्क्स से माओ के लेखन और सर्वहारा क्रान्ति के इतिहास के अध्ययन से मुझ अल्पबुद्धि ने जो बातें समझी हैं, उनमें एक प्रमुख बात यह है कि क्रान्ति का मोर्चा चाहे जो भी हो, दक्षिणपंथी अवसरवाद और "वामपंथी" अवसरवाद -- दोनों से अनवरत समझौताहीन संघर्ष करके ही जनता के संघर्ष को आगे बढाया जा सकता है। फासिस्ट डकैतों के विरुद्ध कैरियरवादी, अवसरवादी, दुरंगे चरित्र वाले, सत्ताधर्मी छद्म प्रगतशील ठगों-गिरहकटों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाकर अपने मन की झूठी तसल्ली के अतिरिक्त और कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। अगर यही ज़मीन पर लड़ी जाने वाली लड़ाई है तो इसमें भागीदारी के लिए टिटिहरियां शायद सबसे उपयुक्त होंगी।
इतिहास के अध्ययन के आपके सुझाव के लिए धन्यवाद! मैं करती रहती हूं। प्रगतिशील सांसकृतिक आन्दोलन के इतिहास पर सुधी प्रधान की दो खण्डों की पुस्तक और प्रलेस, जलेस, जसम के इतिहास से मैं परिचित हूं तथा गोरख, महेश्वर और कौशल किशोर से भी। मुझे यह भी पता है कि गहन अवसाद की मानसिक व्याधि से पीड़ित गोरख पाण्डेय की अंतिम दिनों में जसम ने कितनी और कैसी मदद की थी! मुझे यह भी पता है कि कुछ उचित सैद्धान्तिक प्रश्न (जैसे अज्ञेय पर जसम के नये सिद्धान्तकारों की अवस्थिति पर) उठाने पर स्वस्थ जनवादी ढंग से बहस चलाने के बजाय अन्दरूनी सांगठनिक दुरभिसंधियों के जरिए अजय सिंह को आज किस प्रकार अलग-थलग कर दिया गया है। इसलिए, बेहतर है कि चन्द लोगों के अच्छे-बुरे होने पर नहीं, बल्कि उठाये गये उसूली मसलों पर चर्चा की जाये, रखे गये ठोस तथ्यों पर अपना स्टैण्ड बताया जाये और ठोस तर्कों का जवाब ठोस तर्कों से दिया जाये।

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