Friday, May 30, 2014

ब्रह्मराक्षस पुराण का एक सर्ग


- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

समय के साथ, हर चीज़, हर शै बदलती है। ब्रह्मराक्षस भी।

ब्रह्मराक्षस अब एकदम बदल चुका था। कारीगरों और कबूतरों के बारे में जो भी थोड़ा-बहुत ज्ञानात्‍मक संवेदन और संवेदनात्‍मक ज्ञान उसके पास था वह दे चुकने के बाद वह एकदम रिक्‍त हो चुका था। एकदम संवेदनाशून्‍य और ज्ञानशून्‍य। अब जाकर व‍ह विशुद्ध ब्रह्मराक्षस बना था।


लोगों का ब्रह्मराक्षसों के बारे में जो पारंपरिक ज्ञान और पुराना अनुभव था उसके आधार पर वे इसे कतई नहीं पहचान सकते थे। ब्रह्मराक्षस के पास ऐसी पैशाचिक प्रविधियां और कुटिल कलाएं थीं जिनसे वह भाव प्रवणता और मानवीय संवेदनाओं का ऐंद्रजालिक मिथ्‍याभासी वितान रचता था, ज्ञान को आतंककारी बना देता था, तमाम दुखी, संतप्‍त और उत्‍पीड़ि‍त लोगों के जीवन यथार्थ को जादुई बना देता था। उसकी कलात्‍मक रचनाओं में मृत्‍यु और पराजय का शोकगीत अनवरत गूंजता रहता था, न्‍याय के हर संघर्ष का अंत पराजय में होता था, विद्रोह हमेशा अकेला व्‍यक्ति करता था और पराजय उसकी त्रासद नियति होती थी। ब्रह्मराक्षस स्‍वयं को सत्‍यान्‍वेषी और उत्‍पीड़ि‍त मानवता के चिरंतन दुख के चितेरे के रूप में प्रस्‍तुत करता था और सत्ता के आतंक का जादू रचकर लोगों को अवसन्‍न कर देता था। सत्ता को वह अप्रतिरोध्‍य बताता था, इतिहास में मानवीय मूल्‍यों की हर विजय को मिथ्‍याभास या मुक्ति की क्षणिक कौंध या मृगमरीचिका का छलावा बताता था और तरह-तरह से यह कहने की कोशिश करता था कि सत्ता के वर्चस्‍व का हर प्रतिरोध अंतत: एक नई वर्चस्‍वकारी सत्ता को जन्‍म देता है और जनता अपने नेतृत्‍व द्वारा हमेशा ठग ली जाती है। समाज के एकाकी, पराजित मानस लोगों को ब्रह्मराक्षस की ये बातें बहुत रुचती थीं और वे उसकी कला पर चकित, विस्मित, सम्‍मो‍हित हो जाया करते थे। इस तरह कई भोले-भाले लोग ब्रह्मराक्षस की कुटिल परियोजना के क्रियान्‍वयन में शामिल हो जाया करते थे। कोई भी कुटिल परियोजना दिग्‍भ्रमित या नासमझ भोले-भाले लोगों की सक्रिय साझेदारी के बिना अमल में नहीं लाई जा सकती। ब्रह्मराक्षस भ्रम-विभ्रम-दिग्‍भ्रम-संभ्रम-मतिभ्रम का इंद्रजाल रचने में उस्‍ताद था।

ब्रह्मराक्षस एक ठंडा हत्‍यारा था और एक विकल शैतानी विध्‍वंसक प्रवृत्ति उसकी आत्‍मा में निवास करती थी। जहां कहीं भी कुछ सार्थक, मानवीय दिखता था, ब्रह्मराक्षस का मन उसे नष्‍ट-भ्रष्‍ट, विकृत-कलुषित करने के लिए, उसके बारे में सन्‍देह पैदा करने के लिए आकुल-व्‍याकुल हो उठता था। वह विचारों-भावनाओं-उम्‍मीदों-स्‍वप्‍नों की हत्‍या करता रहता था और संवेदनशील लेकिन भोले-भाले कमज़ोर व्‍यक्तियों को क्षत-विक्षत करता रहता था, लेकिन कहीं भी लहू का कोई सुराग नहीं मिलता था। न दस्‍त-ओ-नाख़ूने-क़ातिल न आस्‍तीं पे निशां, न बाम पे कोई धब्‍बा, न ख़ाक पे कोई दाग़। ब्रह्मराक्षस सारी हत्‍याएं अपनी जादू की क़लम से करता था। लेकिन वैसे वह लगातार शान्ति, अहिंसा और मनुष्‍यता की पीड़ाओं का ही बखान करता र‍हता था। लोग उसे शान्ति के अहर्निश कर्तव्‍यनिष्‍ठ पुजारी के रूप में जानते थे।

इतिहास की विरासत, विचारों और स्‍वप्‍नों की ठंडी कलात्‍मक हत्‍याएं करता हुआ यायावर ब्रह्मराक्षस अपने 'सॉफ़्ट टारगेट' के रूप में सीधे-सादे संवेदनशील लेकिन कमज़ोर व्‍यक्तित्‍वों की तलाश करता रहता था। फिर अपनी क़लम से तरह-तरह के तीर छोड़कर उन्‍हें क्षत-विक्षत करके शरशैया पर सुलाकर ही मानता था।

यह बात थोड़ी पुरानी पड़ गई है पर भुलाई नहीं जा सकेगी। दूर देहात से यायावरी करते पढ़ते-लिखते-भटकते एक भोला-भाला इंसान राजधानी के शहर में आ पहुंचा था। कवि था, दर्शनवेत्ता था, पर दन्‍द-फन्‍द से मुक्‍त था। मुक्तिसंघर्षों और स्‍वप्‍नों के अच्‍छे गीत और कविताएं लिखता था। पर उसके व्‍यक्तित्‍व का एक त्रासद अन्‍तरविरोध यह था कि प्रेम पाने की नैसर्गिक चाहत में महानगरीय छलनाओं का शिकार होते-होते वह टूट-सा गया था और अवसादग्रस्‍त हो गया था। जन मुक्ति का दर्शन उसके पास था पर शायद उसे दर्शन ने उसे इतना मज़बूत नहीं बनाया था कि वह निजी जीवन में महानगरीय छल-छद्म और अलगाव का सामना कर सके। जो भी हो वह एक प्‍यारा इंसान था और लोग उसे प्‍यार करते थे। ऐसे इंसान को ब्रह्मराक्षस का 'सॉफ़्ट टारगेट' बनना ही था। ऊपर से उस भोले-भाले इंसान ने ब्रह्मराक्षस की प्रतिबद्धता और ज्ञान के छल-छद्म पर अनजाने ही चोट करके उसे अपना जानी दुश्‍मन बना लिया। ब्रह्मराक्षस डर गया। प्रतिशोध ने उसे खूंख्‍वार बना दिया। उसने फिर बदला लिया। अपनी क़लम ज़हर में डुबोकर उसने उस भोले-भाले इंसान के विफल प्रेमप्रसंग पर एक कहानी लिखी। 'फ़ैक्‍ट' को 'फ़ि‍क्‍शन' बनाने से अधिक 'फ़ि‍क्‍शन' को ही 'फ़ैक्‍ट' बना देना उसकी कला थी। अपनी कहानी में उस भोले-भाले इंसान को उसने महानगरीय परिवेश में आकर कुंठित हो गये एक देहाती के रूप में चित्रित किया। शैतानी प्रवृत्ति के लोगों ने उस कहानी का ख़ूब मज़ा लिया। भोला-भाला कवि हृदय इंसान बहुत आहत हुआ, अंदर से टूट-सा गया और गहन अवसाद में डूब गया, जिसने अंतत: उसे आत्‍महत्‍या की अंधी खाई में धकेल दिया। ब्रह्मराक्षस ख़ुश हुआ। उसका प्रतिशोध पूरा हुआ।

लोग ब्रह्मराक्षस से डरने लगे। बहुत सारे लोग उसकी असलियत जानते थे पर उससे बच-बचाकर निकल जाते थे। कुछ ब्रह्मराक्षस को ख़ुश रखते थे ताकि कहीं उसकी ज़हरीली क़लम की चपेट में न आ जायें। कुछ लोग ज़्यादा चालाक और आत्‍मविश्‍वासी थे, वे ब्रह्मराक्षस की ताक़त और सत्ता तंत्र से रिश्‍तों का लाभ उठाने के लिए उसकी चापलूसी करते थे या उसके गिरोह में शामिल हो जाते थे। समाजवाद की पराजय के प्रभाव में जिन बौद्धिकों का वामपंथ से मोहभंग हो गया था, वे ब्रह्मराक्षस को 'नवयुग का वैचारिक मसीहा' और विलक्षण सर्जक घोषित करने लगे थे।

ब्रह्मराक्षस का जनसंपर्क प्रबंधन कौशल विलक्षण था। व्‍यापक प्रचार तंत्र और सोशल मीडिया के माध्‍यम से उसने अपने समर्थकों-प्रशंसकों की एक सेना खड़ी कर ली थी। उसकी आल्‍मारियां पुरस्‍कारों से भरी रहती थीं। दूरदर्शन और संस्‍कृति विभाग में अपनी घुसपैठ के ज़रिये वह लगातार वृत्तचित्र और कथाचित्र बनाने के अनुबंध जुगाड़ता रहता था। फिर भी वह यह प्रभाव छोड़ने में सफल रहता था कि ''संस्‍कृति के मठाधीशों'' और सत्ता द्वारा वह उपेक्षित है, प्रताड़ि‍त है और षड्यंत्रों का शिकार है। इस तरह, लगातार वह सहानुभूति बटोरने की को‍शिश करता रहता था।

ब्रह्मराक्षस का ज्ञान पल्‍लवग्राही था, पर विद्वत्ता के आतंककारी प्रदर्शन में वह माहिर था। वह बात-बात में ढेरों पुस्‍तकों के हवाले और विद्वानों के उद्धरण देता रहता था और लोगों को आतंकित करता रहता था। उसके हवाले कई बार एकदम ग़लत होते थे और व्‍याख्याएं बेसिरपैर की होती थीं। जब कभी भी ऐसा होता था कि कोई व्‍यक्ति बहस में उसके झूठ और उसके गलत संदर्भों-उद्धरणों को पकड़ लेता था तो ब्रह्मराक्षस प्रचंड प्रतिशोध की आग में जलने लगता था। उस बहस से तो वह भाग निकलता था लेकिन तुरत वह उस व्‍यक्ति के विरुद्ध अफ़वाहें फैलाने लगता था, कुत्‍साप्रचार का धुंध फैलाने लगता था या चरित्र हनन के लिए किसी नई कहानी का ताना-बाना बुनने लगता था।

राजधानी के एक वरिष्‍ठ कवि भी एक बार अनजाने ही उसकी चपेट में आ गये। ग़लती से उन्‍होंने ब्रह्मराक्षस को रुष्‍ट कर दिया और उनका चरित्र हनन करने के लिए उसने फिर एक लम्‍बी कहानी उसी तरह लिख मारी, जिस तरह पहले भी वह एक भोले-भाले इंसान के साथ कर चुका था। कला से शिकार की इस अद्भुत प्रविधि का आविष्‍कार साहित्‍य के इतिहास को ब्रह्मराक्षस का अनन्‍य अवदान है।

ब्रह्मराक्षस अपने नये अवतार में एक सुखी-सम्‍पन्‍न सद्गृहस्‍थ बन चुका है। राजधानी क्षेत्र के सम्‍पन्‍न इलाके में अपार्टमेंट में रहता है। छत पर ही बाग-बगीचा लगा लिया है। बाल-बच्‍चे विदेश में व्‍यवस्थित हैं। ब्रह्मराक्षस का एक पैर देश में तो एक विदेश में रहता है। दुनिया के कई देशों की भाषाओं में उसकी रचनाएं अनूदित होती रहती हैं। आज वह कार्ल मार्क्‍स के गृहनगर में उनकी मूर्ति के बाजू में खड़ा तस्‍वीरें उतरवाते दिखता है, तो कल अमेरिका में हडसन नदी के किनारे बैठा चिन्‍तन करते हुए, तो अगले सप्‍ताह पेरिस की किसी बुकशॉप में, या फिर फ्रैंकफर्ट के पुस्‍तक मेले में, या फिर हेग के किसी कला संग्रहालय में। इस तरह ब्रह्मराक्षस यह प्रभाव देता है कि उसकी प्रतिभा की किस कदर भूमण्‍डलीय पूछ है, जबकि इस देश के मूर्ख अभागे उस पर गर्व करने के दुर्लभ सौभाग्‍य से वंचित रह जाते हैं।

ब्रह्मराक्षस हवाई यात्राओं, फर्स्‍ट एसी की रेल यात्राओं, गेस्‍ट हाउसों, होटलों और अपने सुविधासम्‍पन्‍न अपार्टमेंट में ही व्‍यस्‍त रहता है, पर अपनी रचनाओं में समाज के वंचितों के अभिशप्‍त जीवन और सत्ता के आतंक के जो चित्र रचता है उन्‍हें अपनी जादुई कला से एकदम प्रामाणिक और प्रभावी बना देता है, हालांकि वह एक मिथ्‍याभास होता है। ब्रह्मराक्षस रहस्‍य और जादू से जितना प्‍यार करता है और 'आभासी' को जिस प्रकार 'वास्‍तविक' बना देता है, उससे यह विश्‍वास हो जाता है कि वह सिर्फ और सिर्फ ब्रह्मराक्षस है, और कुछ भी नहीं।

ब्रह्मराक्षस आदमी तो क्‍या, घोड़ा तो क्‍या, एक अकेले मिट्टी के ढेले का दु:ख तक बयान कर देता है। निस्‍तब्‍ध रात्रि में उसे हारमोनियम की आवाज़ सुनाई देती है। अपनी कहानियों में प्राय: व‍ह एक ग़रीब फटे-चुटे कपड़ों वाले अस्‍तव्‍यस्‍त दार्शनिकनुमा पगले के रूप में सामने आता है जिससे सत्ता और सत्ताधर्मी बुद्धिजीवी घबरा जाते हैं और उसे अपना शिकार बना लेते हैं। ब्रह्मराक्षस अपने को उस रूप में प्रस्‍तुत करता है, जैसा वह जीवन में एकदम नहीं है। शराबनोशी और ऐय्याशी की उसकी अपनी रातें अलग होती हैं, लेकिन छद्म वामपंथियों की ऐसी ही रातों पर वह प्रभावी कहानियां लिखता है और फिर उनके हवाले से समूचे वामपंथ पर गंद उछालता रहता है। हर रात या तो वह अपने आलीशान घर में होता है, या किसी महफ़ि‍ल में, लेकिन उसकी कहानियों के पाठक समझते हैं कि वह अन्‍तरात्‍मा का जासूस बनकर किसी मज़दूर बस्‍ती या बेघरों के किसी ठीहे के रहस्‍यमय अंधेरे में भटकता हुआ सत्‍य का संधान कर रहा है।

तमाम पराजित मानस वामपंथी बुद्धिजीवी, छद्म वामपंथी कैरियरवादी और पीले बीमार चेहरे वाले अलगावग्रस्‍त युवा ब्रह्मराक्षस के प्रशंसक या समर्थक हैं। कुछ विभ्रमग्रस्‍त लोग उसकी कला के शिकार हैं। कुछ नेकदिल कमज़ोर लोग उससे डरते हैं। यह डर ब्रह्मराक्षस की ताक़त है।

ब्रह्मराक्षस को लोग स्‍वतंत्र समझते हैं, जबकि सच्‍चाई यह है कि वह पूंजी-पिशाचिनी का एक विश्‍वस्‍त अनुचर है।

(एक पश्‍चटिप्‍पणी : पिछले दिनों एक अनाम उत्तरआधुनिक चिन्‍तक की डायरी जो मेरे हाथ लगी, वह दरअसल हवाईअड्डे से टैक्‍सी चलाने वाले मेरे एक परिचित टैक्‍सी ड्राइवर को अपनी टैक्‍सी में छूटी हुई मिली थी। मेरा वह परिचित साहित्‍य में दिलचस्‍पी रखता है और मेरी दिलचस्‍पी के बारे में भी जानता है। उसी से यह डायरी मुझे मिली। डायरी के अलग-अलग पन्‍नों पर ब्रह्मराक्षस की जीवनचर्या और विचार के बारे में दर्जनों फुटकल प्रविष्टियां मिलीं, जिनके आधार पर मैंने ब्रह्मराक्षस का यह शब्‍दचित्र तैयार किया। लेकिन कल जब मैंने यह शब्‍दचित्र राजधानी के एक वरिष्‍ठ साहित्यकार को सुनाया तो वे चौंक पड़े। उन्‍होंने बताया कि वस्‍तुत: इस डायरी का मालिक उत्तरआधुनिक चिन्‍तक स्‍वयं ही वह ब्रह्मराक्षस है। परकाया प्रवेश का आदी ब्रह्मराक्षस अपनी डायरी की प्रविष्टियों में हमेशा स्‍वयं को 'अन्‍य पुरुष' के रूप में प्रस्‍तुत करता है। उन्‍होंने बताया कि मैंने ब्रह्मराक्षस की डायरी पढ़कर और उसमें लिखी कुछ बातों को जगजाहिर करके जो अक्षम्‍य अपराध किया है, उसके लिए वह मुझे कभी माफ़ नहीं करेगा। वह घात लगाता रहेगा और बदला लेकर रहेगा। अब जब मैं ब्रह्मराक्षस का कोपभाजन बन ही चुकी हूं तो फिर आधा-अधूरा काम क्‍यों करूं? मैं समय-समय पर इस डायरी की कुछ सामग्री लोगों के सामने लाती रहूंगी। ब्रह्मराक्षस की सोच और छल-नियोजनों को समझना वास्‍तव में सत्ता के सांस्‍कृतिक प्रपंचों को समझना है, अत: कुछ जोखिम लेकर भी यह काम तो करना ही होगा। )

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