--कविता कृष्णपल्लवी
पहचान की राजनीति और दलितवादी राजनीति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह इस पूँजीवादी व्यवस्था और बुर्जुआ संसदीय राजनीति की चौहद्दी के बाहर कुछ सोचने-देखने की कल्पना तक नहीं कर पाती।
साठ वर्षों के अनुभव के बाद भी ज्यादातर दलितवादी बुद्धिजीवी सोचते है कि इन्हीं बुर्जुआ पार्टियों में और इन्हीं बुर्जुआ सरकारों में यदि दलितो की भागीदारी बढ़ जाये तो दलितों की स्थिति में बदलाव आ जायेगा। हद तो तब हो गयी जब पिछले दिनों जाने-माने लेखक अजय नावरिया ने भाजपा में शामिल होकर संसद में पहुँचने वाले उदित राज से बहुत सारी उम्मीदें बाँधते हुए उन्हें बधाई देते हुए एक पोस्ट डाली थी। आज देख रही हूँ, बहुत सारे दलितवादी- मार्क्सवादी मुसहर जाति के जीतन राम माँझी के बिहार का मुख्य मंत्री बनने पर खुशियाँ मना रहे हैं।
नावरिया जी को पता ही होगा कि एक सुलझे हुए और ईमानदार माने जाने वाले दलित नेता संघप्रिय गौतम ज़माने से भाजपा में हैं। भाजपा के फासीवादी हिन्दुत्ववाद को वे कितना प्रभावित कर पाये और भाजपा सरकारों से दलितों का कितना भला करवा पाये? जगजीवन राम से लेकर सुशील कुमार शिन्दे तक न जाने कितने नेता सत्ता में रहे हैं। बिहार में कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री रहे, जो व्यक्तिगत तौर पर निहायत ईमानदार थे।
बात बहुत स्पष्ट है। यदि कुछ दलित व्यक्ति या कुछ मज़दूर सत्ता में आ भी जायें तो वे व्यवस्था की पूरी मशीनरी को नहीं बदल सकते, बल्कि उसके पुर्जे बनकर रह जायेंगे। हर व्यवस्था शोषितों-उत्पीडितों के बीच के उन्नत तत्वों को अपनाकर आत्मसात कर लेती है और कुछ ईमानदार चेहरों को भी समय-समय पर आगे करके जनता में भ्रम पैदा करती हैा भारत की बुर्जुआ संसदीय राजनीति में आधी सदी के दौरान दर्जनों दलित पार्टियाँ और पचासों नेता उभरे, पर व्यापक दलित मेहनतकश आबादी की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ा। जो दस प्रतिशत दलित आबादी पढ़लिखकर खुशहाल मध्यवर्ग बन गयी, वह व्यवस्था के प्रति वफादार बन गयी और व्यापक ग़रीब दलित आबादी के लिए विश्वासघाती सिद्ध हुई।
दलित प्रश्न का समाधान इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के नाश से जुड़ा हुआ है। जबतक साम्राज्यवाद-पूँजीवाद का नाश करके खेती और आवास को राष्ट्र की सम्पत्ति नहीं बनाया जायेगा, जबतक समान नि:शुल्क शिक्षा-स्वास्थ्य-आवास और सबको रोज़गार देने वाली व्यवस्था नहीं लागू होगी, तबतक महज कुछ सुधारमूलक पैबंदसाजियों से दलित प्रश्न का समाधान संभव ही नहीं है। हमें दलित मुक्ति के प्रश्न को सामाजिक मुक्ति के क्रांतिकारी एजेण्डे का अंग बनाना होगा और साथ ही जातिभेद-विरोधी तथा दलित उत्पीड़न-विरोधी जुझारू सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन संगठित करना होगा।
पहचान की राजनीति और दलितवादी राजनीति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह इस पूँजीवादी व्यवस्था और बुर्जुआ संसदीय राजनीति की चौहद्दी के बाहर कुछ सोचने-देखने की कल्पना तक नहीं कर पाती।
साठ वर्षों के अनुभव के बाद भी ज्यादातर दलितवादी बुद्धिजीवी सोचते है कि इन्हीं बुर्जुआ पार्टियों में और इन्हीं बुर्जुआ सरकारों में यदि दलितो की भागीदारी बढ़ जाये तो दलितों की स्थिति में बदलाव आ जायेगा। हद तो तब हो गयी जब पिछले दिनों जाने-माने लेखक अजय नावरिया ने भाजपा में शामिल होकर संसद में पहुँचने वाले उदित राज से बहुत सारी उम्मीदें बाँधते हुए उन्हें बधाई देते हुए एक पोस्ट डाली थी। आज देख रही हूँ, बहुत सारे दलितवादी- मार्क्सवादी मुसहर जाति के जीतन राम माँझी के बिहार का मुख्य मंत्री बनने पर खुशियाँ मना रहे हैं।
नावरिया जी को पता ही होगा कि एक सुलझे हुए और ईमानदार माने जाने वाले दलित नेता संघप्रिय गौतम ज़माने से भाजपा में हैं। भाजपा के फासीवादी हिन्दुत्ववाद को वे कितना प्रभावित कर पाये और भाजपा सरकारों से दलितों का कितना भला करवा पाये? जगजीवन राम से लेकर सुशील कुमार शिन्दे तक न जाने कितने नेता सत्ता में रहे हैं। बिहार में कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री रहे, जो व्यक्तिगत तौर पर निहायत ईमानदार थे।
बात बहुत स्पष्ट है। यदि कुछ दलित व्यक्ति या कुछ मज़दूर सत्ता में आ भी जायें तो वे व्यवस्था की पूरी मशीनरी को नहीं बदल सकते, बल्कि उसके पुर्जे बनकर रह जायेंगे। हर व्यवस्था शोषितों-उत्पीडितों के बीच के उन्नत तत्वों को अपनाकर आत्मसात कर लेती है और कुछ ईमानदार चेहरों को भी समय-समय पर आगे करके जनता में भ्रम पैदा करती हैा भारत की बुर्जुआ संसदीय राजनीति में आधी सदी के दौरान दर्जनों दलित पार्टियाँ और पचासों नेता उभरे, पर व्यापक दलित मेहनतकश आबादी की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ा। जो दस प्रतिशत दलित आबादी पढ़लिखकर खुशहाल मध्यवर्ग बन गयी, वह व्यवस्था के प्रति वफादार बन गयी और व्यापक ग़रीब दलित आबादी के लिए विश्वासघाती सिद्ध हुई।
दलित प्रश्न का समाधान इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के नाश से जुड़ा हुआ है। जबतक साम्राज्यवाद-पूँजीवाद का नाश करके खेती और आवास को राष्ट्र की सम्पत्ति नहीं बनाया जायेगा, जबतक समान नि:शुल्क शिक्षा-स्वास्थ्य-आवास और सबको रोज़गार देने वाली व्यवस्था नहीं लागू होगी, तबतक महज कुछ सुधारमूलक पैबंदसाजियों से दलित प्रश्न का समाधान संभव ही नहीं है। हमें दलित मुक्ति के प्रश्न को सामाजिक मुक्ति के क्रांतिकारी एजेण्डे का अंग बनाना होगा और साथ ही जातिभेद-विरोधी तथा दलित उत्पीड़न-विरोधी जुझारू सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन संगठित करना होगा।
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