Saturday, March 08, 2014

कविताओं की पारी


जब हम राजनीतिक सरगर्मियों के दौरान अपने लोगों के बीच होते हैं, मज़दूर बस्तियों में घूमते-बैठते-राजनीतिक प्रचार करते, तो मन इतना ऊर्जस्‍वी बना रहता है कि शरीर की थकान का अहसास तक नहीं होता। लेकिन मानवद्वेषी लोगों से, अहम्‍मन्‍य बौद्धिकों से, मनहूस चतुर-सुजानों से और बदनीयत छद्म वामपंथियों से यदि लगातार वाद-विवाद-संवाद करना पड़ जाये, तो जैसे दिलो दिमाग पर उदासी और थकान छा जाती है। फिर से तरोताजा होने के लिए कुछ अच्‍छा साहित्‍य पढ़ने को, कुछ अच्‍छा संगीत सुनने को जी चाहता है। फेसबुक पर न चाहकर भी, ऐसे लोगों से उलझना पड़ता है कभी-कभी, जो नितांत बकवासी, पाखण्‍डी, निठल्‍ले वामपंथी होते हैं। ये तत्‍व स्‍पंज की तरह आपकी ताज़गी और रचनात्‍मकता को सोख लेते हैं। अभी जैसे दिमाग और शरीर एकदम थक सा गया था। ऐसे मैं अपनी ही कुछ पुरानी कविताएँ पढ़ रही थी। कुछ शेयर कर दूँ यहाँ, तो कोई बुराई भी नहीं है। आखिर मैं रोज़-रोज़ कविताएँ पोस्‍ट करके बोर तो करती नहीं।


--कविता कृष्‍णपल्‍लवी


भटकटैया

उनके नपे-तुले शब्‍द
जो न गर्म होते हैं, न ठण्‍डे,
घुटन पैदा कर देते हैं
किसी के भीतर।
बाँझ होती हैं उनकी खुशियाँ
और लोलुप होती हैं चाहतें।
सूखी होती हैं उनकी आँखें
और ज़ुबान पर चटोरेपन
और झूठ की परतें होती हैं।
किसी भी बड़े शहर के
किसी एम.आई.जी. प्‍लाट पर
बस जाता है उनकी खुशियों का ब्रह्माण्‍ड।
प्रतापी विद्वान  होते हैं वे,
चाहें तो सारा आकाश
राख और सन्‍देह से भर सकते हैं।
कभी उन्‍होंने बनायी थी एक भूल-भुलैया
और छिपाकर रख दी थी
उसमें अपनी आत्‍मा।
अब वे खुद ही उसे भूल गये हैं
और बन गये हैं
महज़ एक भटकटैया।


पथान्‍वेषी

तराई से मरुथल तक,
पूरब से पश्चिम तक
भटकते हैं कुछ निर्वासित लोग
और कुछ खोजी यात्राएँ करते हैं।
कभी किसी खोये रास्‍ते की
तलाश होती है
तो कभी कोई नई राह बनाने की चाहत।
जहाँ कभी काला पानी था
वहाँ जीवन का कोलाहल है।
जो हमसफर कहीं रुक गये,
संस्‍मरण सुनाते हैं वे
अपने बैठकखानों में अधलेटे
अपने साहसिक कारनामों के
या फिर देखते हैं अपरिचित दृष्टि से
कभी-कभार बस्‍ती से गुजरते यायावरों को
गोद में थाम्‍हें अपने बच्‍चे
हाथ में लिए सब्‍ज़ी का झोला
और जेब में पत्‍नी का दवा का पर्चा।


''कुछ नहीं'' के बारे में

सबकुछ है जिनके पास,
करते हैं वे
''कुछ नहीं'' के बारे में
अन्‍तहीन चिन्‍तन। 



उम्‍मीदें

एक लुंज-पुंज रस्‍सी का 
धनुष की प्रत्‍यंचा या
गले की फाँस बन जाना,
एक बकरी के सींग उग आना,
नाजुक सी उँगलियाँ
पर हथेली पलटते ही
खूँखार बघनखों का दि‍ख जाना,
एक चौखट चुपचाप लेटा हुआ,
लाँघते ही फन काढ़ता हुआ
गेंहुअन साँप की तरह --
सीधी-सादी, भोली-भाली विनम्र चीजों को
अचानक यूँ तनते,
हिंसात्‍मक होते देखना
जीवन में कविता की हिफाजत के प्रति
आश्‍वस्‍त करता है हमें
और भविष्‍य के प्रति भी।

अपनी प्रजाति का परिचय 

नीलकंठ हैं हम
विष भी पीकर पचा जाते हैं।
अपनी राख से फिर-फिर पैदा होते रहते हैं
फीनिक्‍स पक्षी की तरह।
सूख कर फिर से हरी हो जाने वाली
पुनर्नवा वनस्‍पति हैं हम।
हमारी छाती में धँसी कीलों से
बूँद-बूँद जो ख़ून गिरता हैं धरती पर,
उससे हज़ार-हज़ार सपने
पैदा हो जाते हैं।


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